Wednesday, September 30, 2015

तन्त्र विज्ञान की दुर्गति

नई सभ्यता के चकाचौंध में हम अपने यहाँ के उत्तमोत्तम विज्ञानों को झूठा समझने लगे हैं। पराई पत्तल का भात मीठा लगने वाली बात चरितार्थ हो रही है। लोग योग शास्त्र को ढोंग मानते थे, पर जब पश्चिमी लोगों ने मैस्मरेजम की एक सीप ढूँढ़ ली तब लोगों ने उसे सत्य समझा। टोना, टोटका, मूर्खता के द्योतक समझे जाते थे, पर जब मनोविज्ञान के डाक्टरों ने टोने, टोटकों का महत्त्व बताया तब लोगों की आँखें खुली। तन्त्र विद्या के बारे में भी यही बात है। अमेरिका के प्रसिद्ध पत्र न्यूयार्क मेल में मिसेज स्टेट्सन के उन रोमांचकारी तान्त्रिक पुरश्चरणों के समाचार छपे, जिनके कारण कई लोगों के प्राणों पर आ बनी थी। तब लोगों को विश्वास हुआ कि तन्त्र विज्ञान वास्तव में प्रकृति में छिपी पड़ी असंख्य महाविद्याओं में से एक है और उसका बिजली जैसा असर लोगों पर होता है।
तान्त्रिक लोग स्वयं कठोर साधना करते हैं जिसके द्वारा वे ऐसी अपूर्व शक्ति अपने अन्दर जागृत कर लेते हैं जिसके द्वारा दूसरों का भला बुरा भी आसानी से हो सकता है। उनकी अनुष्ठान, पुरश्चरण, जप, मुद्रा आदि क्रियाओं के द्वारा एक प्रकार के सूक्ष्म कम्पन उत्पन्न होते हैं चूंकि यह निश्चित उद्देश्य के साथ किसी खास काम के लिये उत्पन्न किये जाते है, इसलिए उनका प्रवाह एक ही दिशा में होता है और जैसे आतिशी शीशे द्वारा एकत्र की हुई सूर्य की किरणें एक स्थान पर केन्द्रित होकर अग्नि समान बन जाती हैं वहाँ बात इन कम्पनों की होती है। मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन आदि सब कुछ तन्त्र विद्या द्वारा होता रहा है और हो सकता है। फिर भी अविश्वासी लोग अपनी हठ पर दृढ़ रह सकते हैं। पृथ्वी गोल और भ्रमणशील है। पर सांप के फन पर तवे की तरह रखी हुई है ये समझने वाले अपनी राय रखने में स्वतन्त्र हैं।
प्राचीन काल में गोरखनाथ, मछन्द्रनाथ, नागार्जुन आदि अनेक तान्त्रिक और सिद्ध हुये हैं। एक जमाना था कि इस विद्या का सर्वत्र बोलबाला था और लोग इसके द्वारा पूरा- पूरा लाभ उठाते थे। किन्तु समय ने पलटा खाया, जो चढ़ता है वह गिरता भी है। तन्त्र विद्या कुपात्रों के हाथ में चली गई और उसका उपयोग लालची, स्वार्थ एवं इन्द्रिय लोलुपता के लिये होने लगा। ईश्वर ने ऐसा विधान बना रखा है कि अन्यायी और पर पीड़ा कालान्तर में स्वयंमेव नष्ट हो जाते हैं। तदनुसार जब तान्त्रिकों ने रावण जैसा रवैया धारण कर लिया तो जनता में उसके विरुद्ध आतंक और भय छा गया। लोग उनके अत्याचारों से पीड़ित होकर त्राहि- त्राहि करने लगे। ईश्वर को यह मंजूर न था, उसने तान्त्रिकों को विनाश के मुख में धकेल दिया। तन्त्र विद्या के महाशास्त्र हम्मामों को गरम करने के काम आये।
तब भी जो टूटी फूटी विद्या बच रही थी वह गुरु परम्परा के अनुसार अपने उल्टे सीधे रूप में अपनी उपयोगिता के कारण प्रचार पाती रही। अब भी कोई गली, मुहल्ला, गाँव, शहर ऐसा नहीं है जहाँ काना, कुबड़ा तान्त्रिक न रहता हो। झाड़, फूँक, गण्डा, ताबीज उसी विद्या के लँगड़े रूप हैं। इनसे भी लाभ होता है। यदि लाभ न होता तो बिलकुल झूठे अन्ध विश्वास को इतने दिनों तक कोई जीवित नहीं रख सकता था। वह कब का मर गया होता।
आज तन्त्र विद्या बड़े विकृत रूप में इस प्रकार जनता के सामने उपस्थित होता है कि उसका रूप ढोंग की ठगी से मिलता जुलता हो जाता है। इसीलिये समझदार लोग उसे दुरदुराते है। कोई भी अच्छी चीज यदि अशिक्षित लोगों तक सीमित रहे, तो उसकी दुर्गति होना अवश्यम्भावी है। तन्त्र विद्या की दुर्गति का भी यही कारण है। यदि इस विषय के विद्वान इस विज्ञान पर प्रकाश डाले तो जन हित का एक बड़ा साधन लोगों को प्राप्त हो सकता है।

बच्चों को नजर कैसे लगती है?

यह मानी हुई बात है कि मनुष्य के शरीर में एक ऐसी बिजली रहती है जिसका दूसरों पर प्रभाव पड़ता है। साथ रहने पर हर व्यक्ति एक दूसरे से प्रभावित होता है। विद्वानों ने सत्संग की महिमा और कुसंग की बुराई में बहुत कुछ लिखा है, क्योंकि वे जानते थे कि साथ रहने पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा। शक्ति का नियम है कि वह जहाँ अधिक होती है वहाँ से उस स्थान को शीघ्रता पूर्वक जाना चाहती है जहाँ उसका अभाव या कमी हो। एक भरे हुए तालाब और एक खाली तालाब के बीच में ऐसा रास्ता बना दिया जाय जिससे एक का पानी दूसरे में जा सके, तो भरे हुए तालाब का पानी तब तक तेजी के साथ खाली तालाब की ओर दौड़ता रहेगा जब तक दोनों की सतह बराबर न हो जाय। यही बात मनुष्य शरीर की बिजली के सम्बन्ध में कही जा सकती है। बलवान व्यक्ति में से निकल कर वह निर्बल में प्रवेश करना चाहती है। हम नित्य देखते हैं कि शारीरिक या मानसिक बल रखने वाले ही दूसरे पर अपना असर डालने में समर्थ होते हैं। निर्बल तो उन्हीं पर असर डाल सकते हैं जो उनसे भी निर्बल हो।

उपरोक्त नियम के अनुसार बड़े आदमियों का बालकों पर असर पड़ता हैं। यह असर कभी तो हितकर होता है कभी अहितकर। बालकों को नजर लगना मानवीय विद्युत का अहितकर प्रभाव है। नजर लगने की बात को अन्ध विश्वास कह कर हँसी में उड़ाना मूर्खता है। जब दो शक्तिशाली आदमी आपस की विद्युत से बीमार होकर मरणासन्न स्थिति तक पहुँच जाते हैं, तो बालकों पर असर हो जाने में आश्चर्य की कौन सी बात है? मैस्मरेजम और हिप्रोटेजम विद्या के विशारदों ने यह सिद्ध कर दिया है कि दूसरों पर प्रभाव डालने या प्रभाव ग्रहण करने का मार्ग नेत्र हैं। वे लोग दृष्टिपात करके ही दूसरों को गहरी निन्द्रा में ले जाते हैं और अपने प्रयोग करते हैं। आदमी जब एकाग्र होकर या अधिक आकर्षित होकर किसी की ओर देखता है तो उसकी दृष्टि प्रभावशाली हो जाती है। लालायित होकर देखने पर भी ऐसा ही प्रभाव होता है। कोई बच्चा अधिक हँसता खेलता है, प्यारी- प्यारी बातें करता है तो लोगों का ध्यान उनकी ओर अधिक आकर्षित होता है। यदि उस समय अधिक ध्यान पूर्वक उन्हें खिलावें या प्रशंसा करे तो बच्चों को नजर लग जाती है। मुग्ध होकर अधिक ध्यानपूर्वक उनकी ओर दृष्टिपात किया जाय तो भी नजर का असर हो जाता है। कुछ लोगों में स्वभावतः एक खास प्रकार की बेधक दृष्टि हो जाती है, जिससे साधारणतः भी यदि वे किसी बच्चे की ओर देखें तो असर हो जाता है। ऐसे लोग जिनके बाल बच्चे नहीं होते और बच्चों के लिए तरसते रहते हैं, वे जब दूसरों के बच्चों को हसरत भरी निगाह से देखते है तब यह असर अधिक होता है, क्योंकि लालायित होकर देखने से दूसरी चीजों का अपनी तरफ आकर्षण होता है। पति जब परदेशों को जाते हैं और स्त्री लालायित होकर उसकी ओर देखती है तो रास्ते भर उनका चित्त बेचैन बना रहता है। कभी- कभी तो उन्हें वापिस तक लौटना पड़ता है या एक दिन ठहर जाना पड़ता है। इसलिए प्राचीन काल में क्षत्राणियाँ पतियों को युद्ध में भेजते हुए प्रोत्साहन देकर तिलक लगा कर भेजती थी, वे जानती थी कि यदि हम आकर्षण विद्युत इनकी ओर फेकेंगी तो वे पीछे की ओर खिंचे रहेंगे, युद्ध से लौट आवेंगे या असफल रहेंगे। इसी प्रकार बड़े आदमी जब लालायित होकर बच्चों की ओर देखते हैं तो उन बच्चों की शक्ति खिंचती है और वे उसके झटके को बर्दास्त न करके बीमार पड़ जाते हैं। बिना किसी पूर्व रूप के जब अचानक बच्चा बीमार पड़ जाता है तब समझा जाता है कि उसे नजर लग गई।
हमारे यहाँ की स्त्रियों को इसकी जानकारी बहुत पहले से हैं। नजर से बचाने और लग जाने पर उपचार की क्रिया से भी वे परिचित हैं। ताँबे का ताबीज, शेर का नाखून, मूंगा, नीलकण्ठ का पर आदि चीजें गले या हाथ में पहनाई जाती है। यह चीजें बाहरी बिजली के अपने में ग्रहण करके या उसके प्रभाव को रोककर बच्चों पर असर नहीं होने देती। गरम लोहे का टुकड़ा पानी या दूध में बुझाने से भी वह जल या दूध उस असर को दूर करने वाला हो जाता है। कहते हैं कि आकाश की बिजली अक्सर काले साँप, काले आदमी, काले जानवर आदि काली चीजों पर पड़ती है। काले कपड़े जाड़े के दिनों में इसलिए पहने जाते हैं कि गर्मी की बिजली को अधिक इकट्ठी करके अपने अन्दर रख लें और अधिक गरम रहें। इसी नियम के आधार पर नजर से बचाने के लिये काली चीजों का उपयोग होता है। मस्तक पर काला टीका लगाया जाता है। हाथ या गले में काला डोरा बाँधा जाता है। काली बकरी का दूध पिलाया जाता है। काली भस्म चटाई जाती है। जिस प्रकार बड़े- बड़े मकानों के गुम्बजों की चोटी पर एक लोहे की छड़ इसलिए लगाई जाती है कि वह स्वयं बिजली का असर ग्रहण करके पृथ्वी में भेज दे और मकान को नुकसान न पहुँचने दे, उसी प्रकार यह काला टीका, डोरा आदि नजर के असर को अपने में ग्रहण कर लेता है और बच्चे को नुकसान नहीं पहुँचने देता।

अचूक वशीकरण मन्त्र

एक कवि का कथन है वशीकरण इक मन्त्र है, तज दे वचन कठोर। वास्तव में प्रिय भाषण की ऐसी ही शक्ति है इससे पराये अपने हो जाते हैं। सर्वत्र मित्र ही मित्र दृष्टिगोचर होते हैं, शत्रु कोई दिखाई नही पड़ता। बड़े- बड़े कठिन कार्य मधुर भाषण के द्वारा आसानी से सिद्ध हो जाते हैं। मधुर वाणी एक दैवी वरदान है, मोहनास्त्रों में इसे शिरोमणि कह सकते हैं।
कई प्रकार के प्रिय भाषी हमें दुनियाँ में दिखाई पड़ते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जिनका हृदय तो दूषित और कठोर होता है, किन्तु लोगों को धोखा देने के लिये मीठी- मीठी बातें बनाते हैं। एक ही लोगों पर बोलहिं मधुर वचन जिमि मोरा। खांहि महा अहि हृदय कठोरा।। वाली चौपाई लागू होती है। पर ऐसी वार्ता का भेद तुरन्त ही खुल जाता है। बनावटी चीज में कुछ ऐसी अस्वाभाविकता और मिलावट होती है कि झूंठ और संदेह उसमें से टपकता है। स्वार्थ और दम्भ की गन्ध उन बातों में से उड़ती रहती है। किसी को इन चिकनी चुपड़ी बातों से कुछ समय के लिये धोखा भले ही हो जाय, पर स्थायी असर नहीं हो सकता। प्रिय भाषण की जड़ में प्रेम और सत्य होना चाहिए। इसी के बल पर वाणी में ओज आता है जिसका दूसरों पर असर पड़ता हैं। प्रेम से सद्भावना की उत्पत्ति होती है और सद्भावना में वह जादू है कि रूखा और सीधी सादी भाषा में कहे हुए शब्द भी बड़ी- बड़ी लच्छेदार बातों से अधिक मूल्यवान साबित होते हैं। मिलनसार सद्भावना का दूसरा रूप है। सद्भावना युक्त वाणी शत्रुओं के घर में भी अपना स्थान बना देती है।
यह बात अच्छी तरह समझ रखने की है कि खुशामद, चापलूसी, हाँ में हाँ मिलाना प्रिय भाषण नहीं हैं। खरी और हितकर बात जो मीठी भाषा में कही जाय वही सत्य भाषण है। जो यह कहते है कि सच्ची बात कड़वी होती है वे भ्रम में हैं। सच्चाई के चारों ओर अमृत ही अमृत भरा हुआ है फिर उसमें कड़वापन कहाँ से आ सकता है? जो कड़वा बोलता है उसके मन में दूसरों के प्रति पराया पन और क्रोध होता है। जब कोई प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ अभिन्न हृदय होकर बातचीत करती है, तब चाहे वह प्रेमी को उसके दोष ही बता रही हो उसकी वाणी में कड़वापन नहीं हो सकता। यदि कोई शब्द कड़वा भी मुँह से निकल जाता है तो उसका कोई खराब असर नहीं होता। फिर सत्य और प्रेम से सनी हुई वाणी कडुई कैसे हो सकती है? अपने काने पिता को क्या आप काना कह कर पुकारेंगे? जिसके प्रति हमारे मन में श्रद्धा होती है उनसे दुर्वचन नहीं कहते। अपने पूज्य सम्बन्धी से जिनके प्रति हम आदर रखते हैं, कोई कड़ुवी बात कहते हुए भी मीठी भाषा का प्रयोग करते हैं। यदि हमारे विचार प्रेम युक्त हैं, तो दूसरों के साथ भी यही बात होनी चाहिए। किसी के नाम को भद्दी तरह से लेकर या तू जैसे अपमान जनक संबोधन से पुकारने में पराया पन और घमंड टपकता है। इस प्रकार के संबोधन असत्य नहीं समझे जाते पर पराया पन और घमंड क्या सत्य की शाखा है। जहाँ सत्य होगा वहाँ यह दुर्गुण नहीं पहुँच सकते। वाणी में हलकापन, ओछापन, चिड़चिड़ापन, पराया पन यह सब असत्य और अप्रेम का परिणाम है। इन दुर्गुणों युक्त वाणी में खटाई और कषाय होता है जिससे दूसरे का हृदय दुग्ध फट जाता है।
आपको कुछ सत्यनिष्ठ मृदु भाषियों के साथ रहने का कभी न कभी थोड़ा बहुत अवसर अवश्य प्राप्त हुआ होगा। उनकी बातचीत में कैसा आनन्द आता है, यही इच्छा होती है कि इन्हीं के पास बैठे रहे और बातें सुनते रहे। लोग खानपान की सुधि बुधि भूल कर उनका वचनामृत पान करते हैं। उनका एक एक शब्द हृदय के अन्तर में घुल जाता है। जिन बातों को हम हर किसी के मुँह सुनते हैं और छपे हुये कागजों में पढ़ते हैं, उन्हीं बातों को यदि कोई महापुरुष कहता है तो अपूर्व असर होता है। इसका एक ही कारण है सद्भावना। सद्भावना वाणी द्वारा जब झलकती है तब अचूक वशीकरण मन्त्र का काम करती है। सम्राट अशोक और भर्तृहरि राज सिंहासन छोड़कर भिखारी क्यों बन गये थे? गुरुओं की सद्भावना पूर्ण वाणी उनके अन्तर में इतनी गहरी उतर गई थी कि वे अन्य सुख साधनों को व्यर्थ समझने लगे थे। प्रेम में आकर्षण की अलौकिक शक्ति है। जिसके पास यह शक्ति आई उसके सब अपने हो जाते हैं। न तो कोई उससे घृणा करता है और न द्वेष। जंगलों में तपस्या करने वाले महात्माओं के पास सिंहादि हिंसक जानवर बैठे रहते हैं और उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचाते। प्रेमियों के दरबार में जाकर गाय और शेर एक घाट पानी पीते हैं। छोटा बालक जो किसी से विशेष पहचान नहीं रखता, आँखों को देखकर मनुष्य की भावना ताड़ जाता है। जिसमें उसे प्रेम दिखाई देता है उसकी तरफ जाता है, जिस तरफ उपेक्षा या निरादर देखता है, कदम भी नहीं रखता। ठगों को देखिये वे केवल सद्भावना और प्रेम की नकल बनाते हैं और लोगों को बहकाकर अपने पंजे में फँसा लेते हैं। जब नकल में इतना असर है तो असल की तो बात ही अलग है।
मीठी बोली केवल भाषा में गति कर लेने और कूटनीति को जान लेने से नहीं आ सकती है। इनकी सहायता से आदमी हाथ पाँव फेंकता है पर थक जाता है। उसका मन डरता रहता है कि कहीं कोई ताड़ न ले, इसलिये बार- बार यह सिद्ध करने की चेष्टा करता है कि मैं सच बोल रहा हूँ। उसकी बातें और व्यवहार एक दूसरे से मेल नहीं खाते। यद्यपि वह यही समझता रहता है कि मैं सबको चकमा देकर लोगों को मूर्ख बना रहा हूँ, पर असल में वह खुद ही धोखा खाता है। असली रूप प्रकट होने में देर नहीं लगती और तब वह लोगों की निगाहों में बहुत ही गिर जाता है। कपट व्यवहार और झूठी बातों की सहायता से दूसरों पर असर डालने का जितना प्रयत्न किया जाता है यदि उतना ही या उससे भी कम श्रम करने, अपने को ईमानदार बनाने में किया जाय तो अधिक सफलता मिल सकती है। कुछ लोगों को बात का बतंगड़ बनाने की और व्यर्थ कतरनी की तरह जबान चलाते रहने की आदत होती है। यह वाणी का असंयम और दुराचार है जिससे असत्य भाषण की आदत पड़ जाती है।
सत्य भाषण, हितकर भाषण, प्रिय भाषण वाणी की सिद्धियाँ हैं, यह आत्म संयम, स्वार्थ त्याग और प्रेम भावना से आती है। जिसका सब लोगों में आत्मभाव हो गया उसने वशीकरण मन्त्र की साधना पूरी कर ली। मनुष्य नहीं पशु पक्षी और देवता भी उसके वश में हैं। पर्वत उसे रास्ता देंगे और कटीली झाड़ियाँ उस पर छाया करेंगी। व्याघ्र और सर्पादि उसके मित्र होंगे एवं उसे सर्वत्र प्रेम का सागर लहराता नजर आवेगा।

जहाँ चाह, वहाँ राह

जिस प्रकार राजा के हाथ में सत्ता होती है जिस प्रकार इंजन की ताकत से अन्य यंत्र चलते हैं। उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क की शक्ति-मनोबल-से सारे शरीर का कार्य संचालन होता। मस्तिष्क के पिछले भाग में रहने वाले अंतर्मन के बल से हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, आँतें आदि अवयव दिन−रात अपने काम में लगे रहते हैं और उस गति विधि का हमें प्रत्यक्षतः भान भी नहीं हो पाता। आगे का मस्तिष्क-बाह्ममन-सोच विचार करने का काम करता है। शरीर के सब अंग उसका कहना भी मानते हैं। ज्यों ही मन में आया कि सामने पड़ी हुई पुस्तक को उठावें त्यों ही हाथ आगे बढ़ जाता है और पुस्तक को पकड़ कर उठा लेता है। मन में जैसे विचार होते हैं शरीर में उसके लक्षण साफ प्रकट होने लगते हैं। एक मनोविज्ञान शास्त्री का कहना है कि किसी आदमी की निजी चाल ढाल और रूप रेखा मुझे बताओ मैं तुम्हें बता दूँगा कि वह क्या सोचता रहता है।
निस्सन्देह हमारी आकृति मन की छाया मात्र है। विचारों का प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से चेहरे पर झलकता है। भयभीत होने पर मुँह पीला पड़ जाता है, क्रोध आने पर आँखें लाल हो जाती हैं, स्वप्न से कामेच्छा होने पर स्वप्न दोष हो जाता है, स्वप्न में डर लगने या झगड़ा होने पर मुँह से शब्द निकल पड़ते हैं और हाथ पाँव पटकते हैं, कोई उत्साह होने पर शक्ति से अधिक काम करने पर भी थकान नहीं व्यापती, ब्याह शादी में बिना थके चौगुना काम कर लेते हैं, कोई उत्तेजनात्मक बात सुनकर रोग शैया पर से भी उठ खड़े होते हैं। यह मन की शक्ति है। स्वस्थ आदमी दुख का धक्का लगते ही बीमारों जैसा अशक्त हो जाता है। अपने को बीमार समझने वाले लोग सचमुच बीमार पड़ जाते हैं। एक बार एक स्कूल के विद्यार्थियों ने सोचा कि कोई ऐसा उपाय करें जिससे दो−चार दिन की छुट्टी मिले। उन्होंने इसके लिए एक उपाय सोच कर निश्चित कर लिया। अध्यापक ज्यों ही स्कूल में आये त्यों ही एक लड़के ने कहा ‘मास्टर साहब, आपका चेहरा बहुत उतरा हुआ है। क्या कुछ बीमार हैं, मास्टर साहब को आश्चर्य हुआ कि मैं घर से अच्छा खासा आया हूँ यहाँ क्या बात हुई। इतने में दूसरे लड़के ने कहा बुखार चढ़ने की तरह आपकी साँस तेज चल रही है। तीसरे ने उनका शरीर छूकर बहुत गरम बतलाया। चौथे ने दर्पण लाकर सामने रख दिया कि देखिये आपके चेहरे का कैसा हाल हो गया है। अन्य लड़कों ने भी उनके बीमार होने का समर्थन किया अब तो मास्टर साहब के मन में पक्का विश्वास हो गया कि मैं अवश्य बीमार हूँ। कुछ ही देर में सचमुच उन्हें बुखार चढ़ आया और वे स्कूल की छुट्टी करके घर चले गये।
गाँवों की कहावत है कि ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ जो जैसा होना चाहता है वैसा बन जाता हैं। महा पुरुषों के जीवन चरित्रों पर नजर डालिये। क्या परिस्थितियों ने ही उन्हें ऊंचा उठा दिया था? नहीं, जिसने अपने को जैसा बनाना चाहा वह वैसा बन गया। अर्जुन, रावण, राम, कृष्ण, हनुमान, अभिमन्यु, प्रताप, शिवाजी, प्रभृति महापुरुषों में यदि दृढ़ मनोबल न होता तो क्या वे इतने बड़े कार्य कर पाते? आज के महान तानाशाह जिनके डर से दुनिया में खलबली मच रही है, ‘हिटलर’ और ‘मुसोलिनी’ उस दिन अपने बहुत ही गरीब पिताओं के घरों में पैदा हुए थे और अपनी आधी उम्र तक इतना पैसा नहीं कमा पाये थे कि अच्छी तरह अपना खर्च चला लें। नैपोलियन बोनापार्ट एक गरीब के घर में पैदा हुआ था पर उसने वह कर दिखाया जिसे अरबों खरबों की गिनती रखने वाले और उसकी अपेक्षा चौगुना शारीरिक बल रखने वाले नहीं कर सकते महा प्रभु ईशा ने अपने मार्ग में आये हुए पहाड़ से कहा ‘हट जाओ’ वह सचमुच हट गया।
जो कुछ आश्चर्य जनक चीजें हमें दुनिया में दिखाई देती हैं वह मनोबल के ही चमत्कार हैं। मनोबल ही सब प्रकार की सफलता और उन्नति का राज मार्ग है। यह पहले बताया जा चुका हैं कि शरीर शीशे की तरह हैं जो नम के सांचे में तुरन्त ढल जाता है। इच्छा करने पर बाहर की चीजें भी अनुकूल हो जाती हैं। जब आपके मन में उपन्यास पढ़ने की इच्छा होती है तो उपन्यास प्राप्त होते हैं और जब धर्म ग्रन्थों के पढ़ने की लगन लग जाती है तब कहीं न कहीं से धर्म ग्रन्थ भी मिल जाते हैं। कहते हैं कि साँप मारने वाले को साँप अधिक मिलते हैं। चोर को कुतिया मिल रहती है। साधुओं के पास साधुओं और चोरों के पास चोरों का जमघट रहता है। सोने चाँदी आदि धातुओं की बड़ी बड़ी खानें किस प्रकार बनती हैं इसके संबंध में अन्वेषकों का कहना है कि धातुओं के परमाणु सर्वत्र व्याप्त हैं। एक जगह कुछ अधिक परमाणु हुए तो वे अपनी प्रकृति दत्त आकर्षण शक्ति से अपनी जाति के अन्य परमाणुओं को अपनी ओर खींचते हैं। वे जितने अधिक होते जाते हैं उतनी ही उनकी आकर्षण शक्ति बढ़ती जाती है और खान की परमाणु वृद्धि तीव्र जाति से होने लगती है। यही बात हमारी परिस्थितियों के संबंध में है। जिस चीज की हम इच्छा करते हैं उसे प्राप्त करने के अनुकूल सुविधाएं अपने आप हमारी तरफ खिंच आती हैं। चाह होते ही राह दिखाई पड़ने लगती है।
आप पूछेंगे कि कौन आदमी ऐसा है जो धन आरोग्य ऐश्वर्य और यश न चाहता हो फिर सब को वह चीजें प्राप्त क्यों नहीं होतीं? उत्तर यह है कि उनकी चाह ढ़ुल-मुल, कच्ची, संशय युक्त और स्वप्न समान होती है अभी मकान प्राप्त होने का स्वप्न देख रहे हैं तो अभी स्त्री सुख का, अभी राजा बना चाहते हैं तो अभी योगी। ऐसे आदमी को न तो मकान मिलता है न स्त्री। वे न राजा बन पाते हैं न योगी। यह इच्छाशक्ति नहीं यह तो शेखचिल्ली पन है जो अभी मुर्गियाँ खरीद रहा था और अभी शादी करने लगा।
मनोबल या इच्छाशक्ति वह हैं जब एक ही बात पर सारे विचार केन्द्री भूत हो जाएं उसी को प्राप्त करने की सच्ची लगन लग जाय। सन्देह कच्चापन या संकल्प विकल्प इसमें न होने चाहिए। गीता कहती है कि ‘संशयात्मा विनश्यति’ अर्थात् संशय करने वाला नष्ट हो जाता है। पहले किसी काम के हानि लाभ को खूब सोच समझ लिया जाय जब कार्य उचित प्रतीत हो तब उसमें हाथ डालना चाहिये किन्तु किसी काम को करते समय ऐसे संकल्प विकल्प न करते रहना चाहिए कि ‘जाने यह कार्य पूरा होगा या नहीं मुझे सफलता मिलेगी या नहीं, सफलता देने वाला कि निश्चय वह है। जिसकी शक्ति को पहिचान कर नेपोलियन ने कहा था कि ‘असंभव शब्द मूर्खों के कोष में हैं।’ दृढ़ मनोबल और निश्चयात्मक इच्छा शक्ति ही सच्ची चाह है ऐसी चाह के पीछे राह छाया की भाँति दौड़ी फिरती है।

शीर्षासन का महत्व

आसनों का महत्व साधारण व्यायाम से बहुत अधिक है। तभी तो योग के आठ अंगों में उन्हें स्थान दिया गया है। यदि उनमें विशेषता न होती तो कोई भी व्यायाम योग का अंग बन जाता। कारण यह है कि निर्बल शरीर वाले, बुद्धि जीवी, रोगी, बालक, स्त्रियाँ, बुड्ढे सभी के लिए आसनों का व्यायाम ऐसा है जो बिना किसी प्रकार की अनावश्यक शक्ति हरण किये शरीर के मन्द हुए कल पुर्जों को आसानी से चला देता है। साधारण व्यायाम में यह बात नहीं है। डंड बैठक करने के बाद आदमी थक जाता है और सुस्ती आती है किन्तु आसनों के बाद प्रफुल्लता और फुर्ती का उदय होता है। 

मेरे अनुभव में जितने आसन आये हैं उनमें दिमागी काम करने वालों के लिए शीर्षासन सब से श्रेष्ठ है। योग शास्त्रों में इसकी बड़ी महिमा बताई गई है और इसे आसनों का राजा कहा गया है। अपने और दूसरों के अनुभव के आधार पर मैं भी इसकी श्रेष्ठता स्वीकार करती हूँ। किन्तु बीस वर्ष से कम उम्र वालों, प्रसूता, गर्भवती और रजस्वला स्त्रियों को मैं इसकी सलाह नहीं दे सकती क्योंकि उन्हें तो इससे उलटी हानि पहुँच सकती है। 
आरम्भ में शीर्षासन की साधना कठिन है। बिना किसी सहारे के एक दम सिर नीचे को और पैर ऊपर को करके कुछ देर खड़े रहने का अभ्यास नहीं हो सकता। इसलिए दीवार या दूसरे साथी की सहायता लेनी चाहिए। शीर्षासन करते समय कोई गुदगुदा बिछौना बिछा लेना चाहिए। और दोनों हाथों की उंगलियों को आपस में मिला कर उन्हें सिर के पीछे के भाग में लगा कर उल्टा होने की कोशिश करनी चाहिए। हाथों पर सिर रखने की जरूरत नहीं है। आसानी के लिहाज से एक चौकोर छोटा तकिया सिर के नीचे रखा जा सकता है। गरदन को बिल्कुल सीधा रखना चाहिए उसे टेड़ी−मेड़ी करने या इधर उधर हिलाने से गरदन में मोच वगैरह आने का अन्देशा रहता है। 
दीवार का सहारा लेना ठीक है। यह जरूरी नहीं कि शरीर बिल्कुल सीधी लाइन में ही उल्टा हो। पहले पहल तिरछा रख कर काम चलाया जा सकता है। सिर दीवार से एक, डेढ़ फुट अलग रहे और पाँव ऊपर जा कर दीवार से सट जाएं, धीरे धीरे सिर को दीवार के पास लाने का अभ्यास करना चाहिए। कुछ दिनों में बिल्कुल सीधी तरह उल्टे होने का अभ्यास हो जायगा और फिर बिना सहारे भी उल्टा हुआ जा सकेगा। शुरू के चार पाँच दिन पन्द्रह सेकिण्ड ही उल्टा होना चाहिए और फिर प्रति दिन दो-तीन सेकिंड के हिसाब से क्रम बढ़ाना चाहिए। साल दो साल के अभ्यास के बाद जब पूरी तरह साधन होने लगे तब स्त्रियों को पन्द्रह-बीस मिनट और पुरुषों को आधा घण्टा यह आसन करना काफी होगा। इस आसन को करते समय साँस नाक द्वारा शान्ति पूर्वक लेनी चाहिए।
न पतली चीज है और पतली चीजों का स्वभाव होता है कि वे नीचे को बहें। जब शीर्षासन किया जाता है तो खून की गति नीचे की ओर अर्थात् मस्तिष्क की ओर अधिक हो जाती है। जिस प्रकार काफी पानी मिलने से सूखे हुए पौधे भी हरे हो जाते हैं इसी प्रकार काफी रक्त मिलने से मस्तिष्क के जीवन कोष तरोताजा हो जाते हैं और उनकी शक्ति बढ़ती है। निर्बल मानसिक शक्तियाँ सबल होती हैं और स्मरण शक्ति, कल्पना शक्ति, तर्क शक्ति आदि शक्तियाँ जाग उठती हैं। सब प्रकार की दिमागी कमजोरी दूर होती है।
अभ्यास के आरम्भ में कुछ साधकों को खुश्की बढ़ जाने की शिकायत हो जाती है। इसके लिए घी दूध खूब खाना चाहिए और कानों में तेल डालना चाहिए। मैं पिछले सात साल से नित्य प्रातः काल शीर्षासन करती हूँ अपना खोया हुआ स्वास्थ्य इसी के द्वारा मैंने पुनः प्राप्त कर लिया है। इस पैंतालीस वर्ष की उम्र में भी मेरे सिर के सब बाल काले बने हुए हैं और पायोरिया की शिकायत से बिलकुल छुटकारा मिल गया है।

एक सरल प्राणायाम

योग के आठ अंगों में प्राणायाम का प्रमुख स्थान है। योगाचार्य जानते थे कि बिना शरीर को स्वस्थ रखे कोई भी साधना ठीक प्रकार नहीं हो सकती। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए स्वच्छ वायु, स्वच्छ भोजन और स्वच्छ जल का विधान है। वायु का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि बिना भोजन और जल के कुछ समय तक जीवन टिक सकता है किन्तु वायु के अभाव में क्षण भर भी जीवित रहना कठिन है। अशुद्ध अन्न जल से जितनी हानि होती है अशुद्ध वायु से उससे कहीं अधिक हानि होती है। रोगी आँतों वाला जितने दिन जी सकता है उतने दिन रोगी फेफड़े वाला व्यक्ति नहीं जी सकता। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए फेफड़े को स्वस्थ रखना आवश्यक समझा गया है और उसके लिए प्राणायाम नामक व्यायाम क्रियाओं का आविष्कार किया गया है।

अनेक प्रकार के प्राणायामों पर समयानुसार अगले अंकों में प्रकाश डालने का प्रयत्न करूँगा। इस अंक में तो प्राणायाम की अत्यंत ही सुगम क्रियाओं का उल्लेख करना है जिन्हें बहुधन्धी और कामकाजी आदमी भी बिना किसी कठिनाई के आसानी के साथ हर दशा में कर सके।
हमारे फेफड़े छाती के दोनों ओर मधु मक्खियों के छत्ते के समान फैले हुए हैं। यह अनेक कोष्ठ प्रकोष्ठों में विभाजित हैं और वायु को ग्रहण करना व छोड़ना इनका प्रमुख कार्य है। जिस प्रकार धोंकनी की खाल के चलाने से उसके छेद में हो कर हवा निकलती है, उसी प्रकार फेफड़े की क्रिया द्वारा नाक से साँस आती जाती है। रक्त की शुद्धि वायु द्वारा होती है, इसलिए फेफड़ों की अशुद्धता रक्त की अशुद्धता का कारण बन जाती है।
साधारण तौर से साँस लेते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वायु शुद्ध और स्वच्छ हो। सील से भरी हुई, सड़ी हुई, बदबूदार, धूलि मिश्रित, धुआँ भरी हुई, गन्दी वायु में साँस लेना बीमारी को निमंत्रण देना है। इसलिए हमारे रहने के घर और काम करने के स्थान ऐसे होने चाहिए जहाँ शुद्ध वायु मिल सके। पौधों की हरियाली के पास रहने का यही तात्पर्य है कि उनके द्वारा छोड़ी हुई प्राणप्रद वायु को ग्रहण करें। यह बात निर्विवाद हो चुकी है कि पौधे गंदी हवा को खींचते और शुद्ध वायु को छोड़ते हैं।
धूम्रपान फेफड़ों के लिए विष का काम करता है। सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू, सुलफा, गाँजा, अफीम आदि का धुआँ फेफड़ों में जाकर विष उत्पन्न करता है, जिससे वे कमजोर होकर निकम्मे हो जाते हैं और रोगों के प्रवेश करने का मार्ग आसान हो जाता है।
गहरी साँस लेना फेफड़ों का अच्छा व्यायाम है। दिन भर कठोर काम करने वाले जिनकी साँस कुछ तेज चलती है, अपने फेफड़ों को स्वस्थ और सबल बनाये रहते हैं। किन्तु जिनका कार्यक्रम कुर्सी, मेज या गद्दी तकियों पर काम करने का है उनकी साँस उथली चलती है। शरीर को कष्ट न देने वाले ऐसे लोग जिन्हें आराम से पड़े रहना पसंद है, उनकी साँस गहरी कैसे हो सकती है? हलकी साँस लेने से फेफड़े का थोड़ा सा भाग ही काम में आता है शेष भाग निकम्मा और बेकार पड़ा रहता है। उस निकम्मे भाग में पानी बढ़ जाना, सूजन हो जाना, गाठें पड़ जाना, फैल जाना, जख्म हो जाना, अकड़ जाना आदि कई प्रकार के रोग हो जाते हैं। क्षय और दमा के कीटाणु इन बेकार जगहों में ही घुस बैठते है और धीरे- धीरे पनप कर अपना कब्जा जमा देते हैं। अधूरे फेफड़ों में होकर छनी हुई हवा पूरी तरह शुद्ध नहीं हो पाती और यह सब जानते हैं कि अशुद्ध वायु के संसर्ग से रक्त भी अशुद्ध हो जाता है। गहरी सांस लेना इन सब रोगों की जड़ को न जमने देना और फेफड़ों को बलवान बनाना है।
गहरी सांस लेने का अभ्यास डालना बहुत हितकर है। प्रातः काल स्वच्छ और हरियाली युक्त स्थानों में वायु सेवन के लिए जाना फेफड़ों का अच्छा व्यायाम है। सूर्योदय से पूर्व टहलने के लिए चल पड़ना चाहिए और कम से कम दो मील जाकर लौटना चाहिए। कमर झुकाकर मुर्दे की तरह पांव रखते हुए किसी प्रकार इस बेगार को भुगते देने से कुछ लाभ नहीं होगा। कमर को सीधी करके, छाती को सीधी तनी हुई रखकर घंटे में कम से कम चार, पाँच मील की चाल से चलना चाहिए। दोनों हाथों को चलाने के साथ आगे पीछे खूब झुलाते जाना चाहिए जिससे छाती, फेफड़े और स्नायु जाल की कसरत होती चले। चलने की गति एक सी रखना उचित है। दो फर्लांग तेज चले, दो फर्लांग बिलकुल धीमें पड़् गये यह ठीक नहीं। समय या स्थानाभाव के कारण अधिक दूर टहलना न हो सके, तो कुछ अधिक तेज चाल से सरपट चलना चाहिए। इसे दौड़ना कह सकते हैं पर बेतहाशा इस प्रकार दौड़ना जिससे दम फूल जाय लाभप्रद न होगा। आठ मिनट प्रति मील की गति से तेज सरपट चाल का दौड़ना ही पर्याप्त है। जब साँस तेज चलने लगे और शरीर पर पसीना आ जाय तो दौड़ना बन्द कर देना चाहिए। दौड़ते समय मुट्ठी बाँधकर हाथों को छाती के सामने रखा जाता है।
हमेशा साँस नाक से लेनी चाहिये , नाक के बाल द्वारा हवा छनती है और गर्द गुबार नाक के बालों में लग जाता है जब वह आगे चलती है। श्वासनली में होकर फेफड़ों तक जाते- जाते हवा का तापमान ठीक हो जाता है, किन्तु मुँह से साँस लेने पर वह सीधी और बिना छनी हुई फेफड़ों में पहुँचती है और जैसी भी वह सर्द गर्म होती है वैसी ही जा घुसती है। इस सदी गर्मी के असर से फेफड़ों को हानि पहुँचती हैं। टहलने या दौड़ने के समय तो मुँह से साँस लेना और भी बुरा है, क्योंकि साँस की तेजी के कारण वायु फेफड़े में बहुत जल्द आती जाती है, ऐसी दशा में तो तापमान ठीक रखने के लिये बिलकुल ही थोड़ा समय मिलता है। मुँह से साँस लेने वालों को अक्सर जुकाम, छाती का दर्द, खाँसी आदि रोग आ घेरते हैं। जल्दी- जल्दी टहलते समय बातचीत करना भी वर्जित है।
अब एक साधारण प्राणायाम बताते हैं। प्रातःकाल समतल भूमि पर कुछ बिछाकर पालती मारकर बैठ जाइये, हाथों को गोद में रख लीजिये और कमर, छाती, गर्दन तथा शिर को लाठी की तरह एक सीध में कर लीजिये, कोई भाग आगे पीछे की ओर झुका हुआ न रहे। अब नाक द्वारा जोर- जोर से और जल्दी- जल्दी साँस लेना आरम्भ कीजिए। यह श्वाँस- क्रिया उथली न हो, वरन् इतनी गहरी हो कि सारे फेफड़े में पहुँच जाय। इस बात को ध्यान में रख कर तब जल्दी करने का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। आरम्भ में अधिक जल्दी न कर सके तो कोई हर्ज नहीं, पर साँस पूरी लेनी चाहिये। अधिक जल्दी की धुन में उथली साँसें लेना ठीक नहीं। यह श्वाँस क्रिया तब तक करनी चाहिये, जब तक साँस की गति खुद तेज न हो जाय। पहले दिन गिन लेना चाहिये कि कितनी साँसों में दम फूलता है। इसके बाद प्रतिदिन पाँच- पाँच साँसें बढ़ाते जाना चाहिये। साधारणतः एक सौ साँसें लेना काफी है। अभ्यास बढ़ने पर अधिक भी बढ़ा सकते हैं। बैठने की ठीक- ठीक सुविधा न हो तो सीधे खड़े होकर भी इस क्रिया को कर सकते हैं। कर चुकने के बाद कुछ मिनट धीरे- धीरे टहलना चाहिये। किसी दूसरे कार्य को तब आरम्भ किया जाय जब साँस की गति स्वाभाविक हो जाय। अनुभव करने पर फेफड़ों के लिये यह सरल प्राणायाम बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ है।

मानसिक शक्तियाँ बढ़ाने के 15 नियम

मैं क्षुद्र हूँ, मेरी शक्ति नगण्य है, मुझे दुःख घेरे हुए हैं, मेरे भाग्य में दुःख ही बदा है। ईश्वर ने मुझे अभागा पैदा किया है, जो होना होगा हो जायेगा, मुझसे कुछ नहीं होगा, असफलता हुई तो कहीं का नहीं रहूँगा आदि विचार करते- करते मनुष्य की इच्छा शक्ति अर्द्ध मूर्च्छित हो जाती है और संशय उस पर ऐसा काबू कर लेते हैं कि साधारण काम करते हुए भी मन संकल्प विकल्पों से भरा रहता है और असफलता की आशंका मूर्तिवत सामने खड़ी रहती है। निरुद्योगी, परमुखाक्षेपी और आसान जिन्दगी बसर करने वाले लोगों की इच्छा शक्ति एक प्रकार से निकम्मी हो जाती है। अज्ञान वश जो व्यक्ति कुछ दिनों तक ऐसे विचारों के पंजे में फँस जाता है फिर उनसे छूटना बहुत मुश्किल मालूम देता है। वास्तविकता का पता लगने पर वह सोचता है। व्यर्थ ही इन बुरे विचारों में मैंने अपना समय गँवाया और अपने को अवनति के गड्ढे में धकेला। वह इन बुरे विचारों से छूटना चाहता है, पर ऐसी आदत पड़ गई है कि गाड़ी आगे बढ़ती नहीं। जरा हिम्मत बाँधी, उत्साह आया किन्तु थोड़ी ही देर बाद विचार न जाने कहाँ चले गये। और पुनः निराशा ने आ दबोचा। ऐसे व्यक्ति किसी काम को पूरा नहीं कर पाते। या तो वे किसी काम को करते ही नहीं, करते हैं तो अधूरा छोड़ देते हैं। अनेक अधूरे और असफल कार्य उनके जीवन में यों ही पड़े रहते हैं।

ऐसे लोगों की इच्छा शक्ति बहुत निर्बल होती है। लगन और दृढ़ता के अभाव में किसी कार्य पर चित्त नहीं लगता। मस्तिष्क की कमजोरी के कारण निराशा और उदासीनता छा जाती है। विचार शक्ति, तुलनात्मक शक्ति, कल्पना शक्ति, इच्छाशक्ति, प्रमृति शक्तियों की कमजोरी या निश्चित परिणाम असफलता है। एक ही समय में एक ही प्रकार का व्यापार करने वाले दो व्यक्तियों में से एक को लाभ होता है एक को हानि। एक के पास नित्य सैकड़ों ग्राहक आते हैं किन्तु उसका पड़ौसी दुकानदार मक्खियाँ मारता रहता है। ऐसा क्यों होता है? दोनों के पास जाने से आपको पता चलेगा कि एक का चेहरा सदा हँसता हुँआ रहता है, आत्मशक्ति का दृढ़ विश्वास उसके चेहरे पर झलकता रहता है। दूसरा निराशा और उदासी से भरे हुए मुँह को लटकाये हुए रहता है। यह मानसिक शक्तियों के सबल और निर्बल होने का परिणाम है।

सब लोग इच्छित रहते हैं कि हमारी मानसिक शक्तियाँ बलवान हों किन्तु वे मानसिक शक्तियों को बढ़ाने के नियमों से परिचित न होने के कारण मन के लड्डू खाया करते हैं। सफलता लाभ नहीं कर पाते। यदि वे उन साधारण नियमों को जान पावे और विश्वास पूर्वक लाभ उठावें तो वे भी अपनी इच्छाशक्ति को दृढ़ बना सकते हैं और उसके आधार पर सफलता लाभ कर सकते हैं। नीचे कुछ ऐसे ही नियम बताये जाते हैं।

  1. सूर्योदय से डेढ़ दो घंटे पूर्व उठो और शौचादि से निवृत्त होकर शुद्ध वायु में टहलने जाओ।
  2. पेट में कब्ज न होने दो। हलका और सादा भोजन खूब चबा- चबा कर खाओ।
  3. प्रातः शौच जाने से आधा घंटा पूर्व आधा सेर पानी पीओ
  4. नित्य गहरी साँस लेने की क्रिया या प्राणायाम करों
  5. मन को एकाग्र रखो। व्यर्थ बातों का सोच विचार मत करो। एक समय में एक ही विषय के ऊपर विचार करो। उसी में पूरी शक्ति लगाओ। यदि मन उचट कर कहीं दूसरी जगह जाना चाहे तो उसे रोक कर उसी काम में लगाओ
  6. किसी काम को करने से पूर्व खूब सोच विचार लो। जब किसी काम को आरम्भ कर दो तो फिर उसमें किसी प्रकार का भय न करो। उस काम को पूरा करने का दृढ़ निश्चय कर लो और उसी के सम्बन्ध में सोच विचार करो।
  7. अपनी शक्ति पर विश्वास रखो, अपने को नाचीज मत समझो। बुरे कामों से घृणा करो। सच्चाई, ईमानदारी और दूसरे के साथ सहानुभूति की भावना कभी मत छोड़ो।
  8. नित्य एकान्त में बैठकर ऐसी कल्पना करो कि मेरा मनोबल दिन प्रतिदिन दृढ़ होता जा रहा है।
  9. निराश कभी मत होओ। ऐसा विश्वास रखो कि ईश्वर मेरे लिए हितकारक परिस्थिति अवश्य पैदा करेगा।
  10. किसी के लिए बुरा मत सोचो। ईर्ष्या, द्वेष को पास मत फटकने दो।
  11. हर समय उद्योग में लगे रहो। समय बेकार मत जाने दो।
  12. व्यर्थ काम मत करो। कुछ लोगों को चारपाई पर बैठकर पैर हिलाने की, जमीन खोदने की या शरीर को व्यर्थ हिलाने चलाने की आदत होती है यह ठीक नहीं। सदैव शान्त रहो। एक ही काम में शरीर की शक्ति लगाओ।
  13. नित्य ऐसी कल्पना करते रहो कि मेरे मस्तिष्क के परिमाण सूक्ष्मतर होते जा रहे हैं और मानसिक शक्तियाँ बढ़ रही है।
  14. विचारवान सज्जनों के साथ रहो और सुविचार युक्त पुस्तकें पढ़ो। अपने दुर्गुणों को तलाश करो और उनका परित्याग करो।
  15. सदा मुँह पर मुस्कराहट बनाये रखो, दिन में एक बार खूब जी खोलकर हँसो।
देखने में यह नियम साधारण प्रतीत होते हैं। पर इनकी महत्ता बहुत अधिक है। चित्त जगह- जगह भटकने की अपेक्षा जब एक जगह स्थिर होता है, तो उसकी शक्ति सैकड़ों गुनी बढ़ जाती है और उसके बल से सारी मानसिक शक्तियाँ जग पड़ती हैं। आतिशी शीशे को साधारणतः धूप में रख दो तो कोई खास असर न होगा, किन्तु उसके द्वारा यदि सूर्य की किरणों को किसी एक बिन्दु पर एकत्रित करो तो आग पैदा हो जायेगी। बारूद को खुली जगह में रखकर आग लगा दो तो भक से जल जायेगी। कोई खास कार्य उसके द्वारा न होगा, किन्तु उसी को बन्दूक में भरकर एक ही दिशा में उसका प्रवाह जारी कर दिया जाय तो गोली को बहुत दूर तक फेंकने की शक्ति उसमें हो जाती है। मन जब तक संयमित नहीं है तब तक वह इधर- उधर उछलता रहता। ताँगे का घोड़ा जब इधर- उधर उछल कूदता है, तब तक रास्ता तय करने में बड़ी कठिनाई पड़ती है किन्तु जब वह चुपचाप ठीक प्रकार सरपट दौड़ने लगता है तो जरा सी देर में निश्चित स्थान पर पहुँचा देता है। मन की स्थिरता, प्रसन्नता, दृढ़ता और ईमानदारी यह सद्गुणों की खान, विकास के साधन और सफलता की सीढ़ियाँ हैं। इन चारों के आते ही सब प्रकार की मानसिक शक्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं। गूँगे, वाचाल और पंगे पहाड़ पर चढ़ने वाले हो जाते हैं। पर यह भी ध्यान रखना चाहिए अच्छे विचार अच्छे शरीर में ही रहते हैं, इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना भी आवश्यक है। इन्हीं पाँच नियमों के आधार पर उक्त पन्द्रह नियम बने हैं। पाठक चाहे जब आजमा कर देख लें लाभ उन्हें अवश्य होगा।

जीवित मनुष्य की प्रेतात्मा

भूतों की आश्चर्यजनक कहानियाँ तो सम्भवतः बहुतों ने सुनी होगी, परन्तु किसी जीवित मनुष्य की प्रेतात्मा के करिश्मे शायद ही किसी ने सुने हो। केप टाउन नगर के एक्स्टन सड़क पर एक छोटे से घर में अभी हाल में एक ऐसी ही घटना घटी। श्रीमती स्मट्स जो विधवा है और इस घर में रहती है, उनका कहना है कि उस घर में भूतों का वास है। अनेक उत्पात उस घर में नित्य होते हैं। लगभग २० आदमियों से उनके अनुभव के विषय में पूछा गया पर सबके कथन से भूतों की लीला पर विश्वास करने का ही मसाला मिलता है।
एक रिपोर्टर के भेंट करने पर पड़ोस में रहने वाली मिसेज स्ट्राँग ने कहा- मैंने सुना है कि सामने के कमरे के कपड़े इधर उधर फेंक दिये जाते है। मैं इस पर विश्वास कैसे करती? अतएव मैं स्वयं कमरे में गई और सब सामान ठीक से रख कर जैसे ही भोजन के कमरे में पहुँची वैसे ही मुझे कुछ खड़बड़ाहट सुनाई दी। मैं फिर कमरे की ओर आई। कमरा खाली था, पर तकिये का गिलाफ फटा था, बिस्तरा लपेट कर एक तरफ फेंक दिया गया था। मैंने कमरे को खूब अच्छी तरह देखा और सब सामान फिर ठीक करके कमरे को बन्द कर दिया और खिड़की से देखने लगी। मैंने देखा कि बिस्तरा हिला। बिस्तरे का एक बंडल बन कर छत की ओर उठा और फिर गिर पड़ा। तकिया गिलाफ से बाहर निकल आया। और गिलाफ को कोई चीर- चीर कर फेंक रहा था। शांत होने पर मैं फिर कमरे में गई पर कमरा खाली था। मैंने कई बार ऐसा करके परीक्षा ली। शाम को रसोई घर में कुछ खड़बड़ सुनाई दी। हम लोग वहाँ गये। कई सामान इधर- उधर फेंके दिखलाई पड़े। और हमारे सामने भी एक चायदानी आलमारी से अपने आप उठी और नीचे गिर कर टूट गई। एक बार तो बीस आदमियों के देखते हुए सोने के कमरे में उसी प्रकार की घटना घटी।
डमस्टर स्ट्रांग ने बताया कि आठ बजे मैं श्रीमती स्मट्स की लड़की जरट्रूड के पास बैठा था। सहसा जरट्रूड चिल्लाई 'भूत' 'भूत'। दरवाजे की ओर दृष्टि पड़ी तो मैंने देखा कि एक यूरोपियन स्त्री खड़ी है पर मुझे उसका मुख न दिखाई दिया। जैसे मैं उठ कर जाने लगा, वह अदृश्य हो गई।
दूसरे पड़ौसी मि. वान रेन्सवार्ड का कहना है कि ''मैंने सोने के कमरे की बिजली जला कर चारों ओर देखा। मुझे सफेद बालों वाली एक स्त्री सफेद कपड़े पहने दिखाई दी। मैं उसकी ओर चला पर वह गायब हो गई।''
इस कुटुम्ब के एक घनिष्ट मित्र मि. वेजरथ ने सब से आश्चर्य पूर्ण कहानी बताई। उसका कहना है कि- रविवार को एक और दो बजे के बीच मेरी बहन सोने वाले कमरे में श्रीमती स्मट्स की एक लड़की के साथ लेटी हुई थी। सहसा मैंने उसके चिल्लाने की आवाज सुनी और उधर ही दौड़ गया। मुझे देख कर मेरी बहन ने कहा- वह है भूत। मैंने खिड़की की ओर देखा। वह चमकीली प्रतीत होती थी। परन्तु सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि मैं उसे पहचानता था। वह अभी जीवित है।
मि. बेजरथ का अनुमान है कि इन सब उत्पातों की जड़ वे ही है। क्योंकि वह प्रेतात्मा उनके सम्बन्धी स्त्री की है, जिसने उन्हें एक बार शाप दिया था। उसका सब कुछ नष्ट हो गया, इससे श्रीमती स्मट्स ने उन्हें अपने यहाँ रख लिया। उनके जाने के पहले ऐसी घटना कभी नहीं घटी थी। जब मि. बेजरथ ने अपना बचा खुचा समान भी बेच डाला तब से ऐसी कोई घटना भी नहीं घटी।

चिता पर से - श्री दरबारीलाल जी सत्यभक्त

ज्वालाओं का जाल बिछा है, है पर शान्ति निकेतन।
जलती हैं चिन्तायें सारी, शान्त यहाँ है तन, मन।।

अब न मित्र का मोह यहाँ है, है न शत्रु का भी भय।
हूँ न किसी पर सदय हृदय, अब हूँ न किसी पर निर्दय।।

जीवन में क्षण भर भी ऐसी, नींद नहीं ले पाया।
सोता था मैं नचता था मन, माया में भर पाया।।

इसका लेना उसका देना, यह मेरा वह तेरा।
करता था पर रहा न कुछ अब, लगा चिता पर डेरा।।

फूलों की शय्या पर साया, धन जाड़ा दिल तोड़ा।
भूला रहा काठ की शय्या, चार जनां का घोड़ा।।

इस हराया, उस हराया, बना रहा अभिमानी।
पर यह जीवन हार रहा था, साधी बात न जानी।।

इसका लूटा, उसका खाया, अति लालच के मार।
लेकिन हाथ न कुछ भी आया, जाता हाथ पसार।।

मानव का कर्त्तव्य भुलाया यों ही दिवस बिताये।
बहती थी गंगा पर मैन, हाथ नहीं धो पाये।।

खला भद्द खेल, खेलका, मजा न कुछ भी आया।
सूत्रधार यमराज अचानक, आया खल मिटाया।।

चला साथ पर चला न कुछ भी, साथ न था कुछ लाया।
उस मिट्टी में ही जाता हूँ, जिस मिट्टी से आया।।

सत्य सन्देश से

शंका डायन मनसा भूत

इस छोटे से लेख में मैं यह सिद्ध करने नहीं चला कि मरने के बाद कोई प्रेत योनि नहीं होती। इस बारे में विस्तृत विवेचन किसी अगले अंक में करूँगा। इस लेख में मुझे यह कहना है कि वास्तविक भूतों के अतिरिक्त मानसिक भूत भी होते हैं। यदि यह कहा जाय तो अनुचित न होगा कि वास्तविक भूतों की अपेक्षा मानसिक भूत अधिक दुष्ट एवं भयानक होते हैं। उनसे पीछा छुड़ाना कठिन है क्योंकि यह कोई बाहर की चीज तो होती नहीं। मन के साथ आशंका रहती है इसलिये छाया की भाँति भय का भूत भी हर समय पीछे ही पीछे फिरता है।
यह एक पुरानी कहावत है कि शंका डायन, मनसा भूत सचमुच ही जब मन में किसी बात के ऊपर शंका, सन्देह, चिन्ता, भय उत्पन्न हो जाता है तो एक प्रकार की डायन साथ हो लेती है। सब जानते हैं कि चिन्ता, चिता की छोटी बहिन है किन्तु शंका चिन्ता की बड़ी बहिन है। जिसे यह डर लग जाता है कि मेरे पीछे भूत पड़ा हुआ है, उसके लिए घड़ा भी भूत बन जाता है। भूतों के उत्पन्न होने का स्थान मन है। मन में भूतों की कल्पना उठी कि पेट में चूहे लोटे। शाम को भूतों की कहानी सुनी कि रात को स्वप्न में मसान छाती पर चढ़ा। भ्रमवश रस्सी को सर्प समझने का उदाहरण वेदान्ती बार- बार दोहराते हैं। अशिक्षित जातियों में भूत प्रेतों पर अधिक विश्वास होता है, उन पर आये दिन जिन्न सवार रहते हैं। जो उन्हें नहीं मानते उनसे वे भी डरते हैं। डरपोक आदमियों के मन में यह विश्वास जमा रहता है कि अमुक घर, पेड़, मरघट, तालाब पर भूतों का डेरा है। वे उन स्थानों में रात बिरात अकेले नहीं जा सकते। यदि जावें तो समझते है कि सचमुच भूत उन्हें दिखाई दें और वे बीमार पड़ जाय। किन्तु ऐसे भी किसान आदि होते हैं जो उन्हीं कठिन भुतही जगहों में अँधेरी रातों में रहते हैं उनका कोई कुछ नहीं बिगड़ता।
मेरे एक मित्र अपनी आँखों देखी घटना सुनाते थे, वे कहते थे अमुक गाँव में दो आदमियों ने आपस में शर्त बदी। एक ने कहा यदि तू अमुक मरघट में रात को बारह बजे एक कील गाड़ आवे तो तुझे अपनी भैंस दे दूं। उस स्थान के बारे में प्रसिद्ध था कि वहाँ बड़े भूत रहते हैं। दूसरा आदमी तैयार हो गया। वह नियत समय पर कील गाड़ने गया। रास्ते में उसके मन में डर पैदा होने लगा। जैसे तैसे वहाँ पहुँचा और कील गाड़ने लगा। रात अंधेरी थी। जल्दी में उसने अपनी धोती के एक कोने सहित मसान में कील गाड़ दी। जब उठने लगा तो धोती खिंचने लगी। बिना कुछ देखे भाले उसने विश्वास कर लिया कि मुझे भूत ने पकड़ लिया। वह भागा तो धोती और खिंची। आखिर धोती खुल गई और वह चीखता, चिल्लाता, नंग- धड़ंग घर भागा। घर तक पहुँचते- पहुँचते डर के मारे वह मर गया। बाद को लोगों ने जाकर देखा तो पता चला कि धोती में कील गड़ जाने से उसे भ्रम हुआ। वह भय का भूत बन गया और उसकी जान ले ली। इससे मिलती जुलती छोटी- बड़ी घटनायें सब जगह होती रहती हैं और उससे लोग दुख उठाते हैं।
मैं यह नहीं कहता कि भूत होते ही नहीं। वे होते हैं अवश्य और लोगों को समयानुसार हानि लाभ भी पहुँचाते हैं परन्तु भूतों के आक्रमण की जितनी घटनायें होती हैं। उनमें से अधिकांश में शंका डायन और मनसा भूत का हाथ होता है। यदि लोग निर्भय बनें और मिथ्या भ्रम को मन में से निकाल दें तो एक भारी मानसिक कष्ट दूर हो जाय।
मनुष्य समाज में उपस्थित इस समस्या की उपेक्षा करना भूल होगी, क्योंकि भय का भूत इतना भयंकर होता है कि अनेक व्यक्तियों की जिन्दगी खराब हो गई और अनेक पागल बन गये तथा मृत्यु के मुख में चले गये। कभी- कभी सचमुच ही कुछ दुष्ट प्रेतात्मायें मनुष्य के पीछे पड़ जाती हैं और ऐसी आश्चर्यजनक करतूतें दिखाती हैं कि रोगी के पास रहने वालों को भी भय लगता है और वे भी बीमार पड़ जाते हैं। शंका डायन मनसा भूत तथा सचमुच की दुष्ट प्रेतात्माओं से हम किस प्रकार बच सकते हैं और यदि पीड़ित हैं तो किस प्रकार छुटकारा पा सकते हैं इसके सम्बन्ध में यदि जानकार लोग कुछ प्रकाश डालें तो जनता का बड़ा उपकार हो सकता है।
श्री शिवरतन लाल जी ओझा

विचारों का स्वास्थ्य पर प्रभाव

ईश्वर ने मनुष्य के मस्तिष्क का निर्माण इस प्रकार किया है कि उसमें उत्तम विचार रहें। बुरे विचार विजातीय हैं। वे मनुष्य के ऊपर सवार हो जाते हैं तो एक प्रकार के उसके स्वाभाविक तत्व का हरण कर लेते हैं। सती स्त्रियाँ दुराचारियों के बंधनों में पड़कर जिस प्रकार कष्ट पाती हैं और दिन दिन दुर्बल होती जाती हैं, वही दशा हमारे शरीर की होती है। बुरे विचार अपने साथ चिन्ता, भय, क्रोध, कलह आदि लाते हैं और यह ऐसी अग्नियाँ हैं जो थोड़े ही दिनों में सार भाग जलाकर आदमी को खोखला कर देती हैं। इस सम्बन्ध में कुछ प्रसिद्ध शरीर शास्त्रियों की सम्पत्तियाँ नीचे दी जाती हैं।
  • डॉ. आल्स्टन लिखते हैं- भय, उदासी, ईर्ष्या, घृणा, निराशा, अविश्वास आदि मानसिक विकार शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं को मंद करके खून को सुखा देते हैं।
  • डॉ. वेन लिखते हैं- संताप और मनोव्यथा के कारण कई लोगों की मृत्यु हो गई और अनेकों का मस्तिष्क खराब हो गया। इस प्रकार का परिणाम स्वाभाविक ही है।
  • डारबिन साहब कहते हैं- चिरकालीन चिन्ता से रक्त की गति धीमी हो जाती है और चेहरे पर पीलापन, मांस पेशियों में शुष्कता आ जाती है। पलकें झूल पड़ती है, छाती बैठ जाती है, गरदन झुक जाती है एवं होट, शिर, जबड़ा आदि गिर जाते हैं। हँसते आदमी पर घोर उदासी छा जाती है।
  • मनोविज्ञान शास्त्री अलफम मेरियन कहते हैं- क्षोभ के कारण कई व्यक्ति अचानक मर गये। मानसिक क्षुब्धता शरीर पर ऐसे अनिष्ट कर परिणाम उपस्थित कर सकती है, जिससे वह मुर्दा कहा जा सके।
  • सर रिचार्डसन का अनुभव है कि- मानसिक कष्ट से होने वाला प्रमेह ठीक शारीरिक कारणों से होने वाले प्रमेह के समान होता है।
  • सर जार्ज पैगोट बताते हैं कि- असंख्य रोगियों को देखने के बाद मुझे यह पक्का विश्वास हो गया है कि फोड़े होने का प्रमुख कारण चिरकालीन चिन्ता होती है।
  • डॉ. मुर्चीसन का एक कथन है कि- कई रोगियों की जाँच करने पर यह स्पष्ट हो गया है कि जिगर के फोड़े का कारण पुरानी चिन्ता या मानसिक दुख होता है।
  • डॉ. मैडरले बताते हैं- निश्चय ही मानसिक क्षोभ के कारण शरीर की वृद्धि में रुकावट पड़ती है और धमनियाँ अपना काम ठीक प्रकार करने से इन्कार कर देती हैं।
  • डॉ. पमर गेट्स का दावा है कि- क्रोध, निराशा और क्षोभ शरीर में भयंकर विष उत्पन्न करते हैं, जिनसे भारी हानि होती है।
  • डॉ. तकेने का कथन है कि- लकवा, हैजा, यकृत रोग, बालों का जल्दी सफेद होना, गंजापन, रक्त की कमी, गर्भपात, मूत्ररोग, चर्मरोग, फोड़े, पसीने की अधिकता, दंत जल्दी गिरना आदि रोगों की जड़ में भय या सन्ताप छिपा होता है। हैजा या प्लेग से मरने वालों में बीमारी से मरने की अपेक्षा भय से मरने वालों की संख्या अधिक होती है।
इन महत्त्वपूर्ण सम्मतियों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मन में बुरे विचार लाने से शरीर का बड़ा अनिष्ट होता है। स्वस्थ रहने की इच्छा करने वालों को चाहिये कि सदैव प्रसन्न रहें। और बुरे विचारों को अपने पास भी न फटकने दें।

श्री दत्तात्रेयए रमाशंकर पराजपे

मैस्मरेजम क्या है?

मनुष्य शरीर हाड़ मांस का चलता फिरत पुतला मात्र नहीं है। ऐसी सुन्दर और चैतन्य मशीन अपने आप नहीं चलती। जब साधारण यंत्रों को चलाने के लिए काफी शक्ति लगती है तो क्या चैतन्य यंत्र अपने आप चलता रहता होगा? वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि मनुष्य के शारीरिक और मानसिक कार्यों को चलाने में इतनी विद्युत शक्ति खर्च होती है जितनी से चार बड़े- बड़े मिल चल सकते हैं। मनुष्य की तमाम शक्तियों से सम्पन्न एक कृत्रिम मनुष्य बनाया जाय तो उसके संचालन में एक बिजली घर की पूरी ताकत लग जायेगी। हमारे शरीर में असंख्य कलपुर्जे ही नहीं वरन् उसमें अपना बिजली घर भी होता है। मृत्यु क्या है? उस बिजलीघर का फेल होना है। शरीर के तमाम कलपुर्जे बदस्तूर बने रहते हैं कोई कहीं से टूटता फूटता नहीं केवल विद्युत धारा बन्द हो जाती है।
हमारे शरीर की बिजली का क्षेत्र केवल अपने कल पुर्जे को चलाने तक ही सीमित नहीं है। वरन् वह बाहर की चीजों पर प्रभाव डालने और उनके असर को ग्रहण करने का कार्य भी करती है। एक वैज्ञानिक ने अपने गहरे अनुभव के बात बताया है कि हमारी बिजली का एक तिहाई भाग कल पुर्जों को चलाने में खर्च होता है। एक तिहाई से बाहरी चीजों के प्रभाव में से आवश्यकीय ग्रहण करने और अनावश्यक को धकेलने का कार्य होता है। शेष एक तिहाई बिजली संसार की दूसरी चीजों पर अपना असर डालती है। इन तीन भागों में से भी प्रत्येक तिहाई की शक्ति असंख्य मार्गों द्वारा खर्च होती रहती है। या यो कहना चाहिए कि उस पावर हाउस में असंख्य तार लगे हुए हैं और वे भिन्न भिन्न दिशा में विभिन्न कार्य करते रहते हैं। मानव शरीर की विद्युत का अन्वेषण करने वाले कहते हैं कि हाल के जन्में बालक की भी तमाम बिजली एकत्रित कर ली जाय तो उससे डाक गाड़ी का एक इंजन चल सकता है। बड़े होने पर यह शक्ति बढ़ती है। और जो व्यक्ति इसे बढ़ाने की कोशिश करते हैं उन्हें तो और भी अधिक मिल जाता है।
इस विद्युत शक्ति का अनुभव वैज्ञानिक ही करते हों सो बात नहीं है। अपने दैनिक जीवन में अनेक घटनाऐं हम देखते हैं। उसके द्वारा होने वाले हानि लाभों को भी जानते हैं। बचने के उपायों को भी जानते और उपयोग में लाते हैं। पर अभी तक उस पर वैज्ञानिक प्रकाश नहीं पड़ा है, इसलिए अपनी उन दैनिक कृतियों को या तो ढर्रे में पड़ जाने के कारण याद नहीं करते या अन्ध विश्वास समझ कर उपेक्षा कर देते हैं। परन्तु नियम और सिद्धान्त इस बात की प्रतीक्षा नहीं करते कि आप उन्हें जानते हैं या नहीं, आप उसके नफा नुकसान से परिचित हैं या नहीं। बिजली की शक्ति सम्पन्न तार को छूते ही आपकी मृत्यु हो जायेगी भले ही आपको पहले से उसका पता न हो। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का पता पहले पहल सर आइजक न्यूटन ने लगाया था, पर क्या वह शक्ति पहले से काम नहीं कर रही थी?
मनुष्य जब से कुछ समझदार हुआ तभी से उसकी प्राकृतिक बुद्धि ने उस अदृश्य शक्ति के अच्छे प्रभाव को ग्रहण करने और बुरे प्रभाव से बचने का उपाय ढूँढ़ निकाला। पृथ्वी द्वारा शरीर की बिजली खींची जाती है इसलिए प्रकृति ने गाय, भैंस, घोड़ों के पैरों में निर्जीव ठोस और रोकने वाले आवरण पैदा कर दिये। खुर एक खड़ाऊँ हैं जिनके द्वारा पशु शरीर और पृथ्वी की बिजलियों के बीच में दीवार खड़ी होती है। मनुष्य ने अपनी शक्ति खिंचती देखी तो खड़ाऊ और जूतों का आविष्कार किया। संसार व्यापी विद्युत के अन्य अनिष्ट कर प्रभावों से बचने के लिए पशुओं की खाल को उपयोग में लाना, रेशम के वस्त्र पहनना तथा कांसे के बर्तन में भोजन करना सीखा। हाथ में लकड़ी की लाठी या छड़ी हम क्यों धारण करते हैं? इसलिए कि बाह्य विद्युत के अनिष्ट कर प्रभाव से बचे रहें। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि मनुष्येत्तर प्राणियों ने ऐसा क्यों नहीं किया? प्रकृति को अपने उन मूक पुत्रों की पहले से ही चिन्ता थी। मनुष्य बुद्धिजीवी है अपनी रक्षा खुद कर लेगा यह सोचकर उसने उसके साथ कुछ कंजूसी की है, पर अन्य प्राणियों को इफरात के साथ मुक्त हस्त होकर दिया है। उनकी शक्ति मनुष्य के मुकाबले बहुत अधिक हैं, इसलिए वह स्वयमेव बाह्य प्रभावों से लाभ प्राप्त करते हैं और हानि से बचे रहते हैं।
भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी और वैज्ञानिक श्री हंसराज वायरलेस ने बेतार के तार का एक यंत्र बनाने में छिपकलियों के शरीर की बिजली से काफी काम लिया था। अन्य पशु पक्षी अपनी विद्युत शक्ति से नित्य आश्चर्य जनक काम लेते हैं। खद्योत अपनी बिजली को चमका कर कैसा सुन्दर प्रकाश करता रहता है। एक प्रकार की मछली छोटे जल जन्तुओं का शिकार करते समय अपनी बिजली का ऐसा झटका देती है कि वह बेहोश हो जाते हैं। बड़े अजगर सर्पों की विद्युत से छोटी चिड़िया और मेंढक मूर्तिवत अचल हो जाते हैं। भेड़िये को देखते ही भेड़ का भागना तो दूर मुँह से आवाज तक निकलना बन्द हो जाता है। बिल्ली, शेर, बाघ आदि भी अपनी इस शक्ति से काम लेते हैं।
मनुष्यों में यह शक्ति पर्याप्त मात्रा में होती है। उसमें आकर्षण और विकर्षण दोनों ही धारायें विद्यमान रहती हैं। क्रोधित और रोष में भरे हुए व्यक्ति को सामने देखकर हमारे पाँव कापने लगते हैं और एक सुन्दर स्त्री को देखने के लिए बरबस आकर्षित हो जाते हैं। यह क्या है? यह उन्हीं आकर्षण- विकर्षण शक्तियों का प्रभाव है। वेश्याओं के यहाँ बदनामी, धन व्यय और स्वास्थ्य नाश होते हुए भी क्यों जाते हैं। अपनी स्त्री मिलने को क्यों उद्विग्न रहती हैं? सुन्दर बच्चों को खिलाने को मन क्यों ललचाता है? विरोधी विचार रखते हुए भी किसी के सामने जाकर पानी पानी क्यों हो जाते हैं? मित्रों पर सर्वस्व निछावर क्यों कर देते हैं? स्त्रियाँ पति पर प्राण क्यों देती हैं? किसी के बहकावे में लोग क्यों आ जाते हैं? यह सब आकर्षण शक्ति धारा का खेल है। जालिमों को देखकर क्यों डर लगता है? किसी प्रभावशाली व्यक्ति के सामने जाकर ठीक प्रकार बात क्यों नहीं कही जाती? दीवान दरोगा से बात करने में दम क्यों फूलता है? क्रोधी लोगों के पास से जल्द चले जाने को जी क्यों चाहता है? यह विकर्षण शक्ति धारा का असर है।
यह तो हुआ दैनिक जीवन में स्वाभाविक शक्ति का स्वयमेव होने वाला प्रभाव। विशेष अवसरों पर विशेष शक्ति द्वारा जान बूझकर डाला गया असर इससे भिन्न और बहुत अधिक शक्तिशाली होता है। यह पहले कहा जा चुका है कि हमारे अपने बिजली घर की शक्ति असंख्य अलग अलग तारों में होकर बह रही है। यदि दो चार तारों में चलने वाला प्रवाह एक ही तार में चालू कर दिया जाय तो वह पहले की अपेक्षा कही अधिक शक्ति सम्पन्न हो जाता है। और यदि दस- बीस, पचास चालीस तारों की शक्ति एकत्रित कर ली जाय तो और अधिक बल होगा। तात्पर्य यह है मनुष्य की विशृंखलित शक्तियों का यदि एकत्रीकरण हो जाय तो वह अत्यधिक प्रभावशाली हो सकता है और उससे आश्चर्य जनक एवं अलौकिक कार्य किये जा सकते हैं। मैस्मरेजम विज्ञान का स्त्रोत यही आत्म विद्युत है। इस विद्युत के कुछ तारों को इकट्ठे करके एक काम पर लगा देते हैं तब उसके द्वारा होने वाला कार्य अधिक वेग से होने लगता है। पन्द्रह वोल्ट पावर की बत्ती जितना प्रकाश देती है। पचास वोल्ट की बत्ती उससे बहुत अधिक करती है। अधिक प्रवाह छोड़ते ही पंखा अधिक वेग से घूमने लगता है। मनुष्यों का एक दूसरे पर स्वाभाविक और साधारण शक्ति से जो असर पड़ता है, उसे ही विशेष कर देने पर कुछ अधिक कार्य होता है। रोजमर्रा जो बात नहीं देखी जाती वही बात यदि कभी अचानक दीखने लगे तो हमें आश्चर्य होता है। मैस्मरेजम के चमत्कार देखकर आश्चर्य करने का भी यही कारण है। - प्रो. धीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती

अनन्त शक्ति का मूल स्त्रोत

लोग सदैव किसी ऐसी शक्ति की तलाश में रहते हैं जिसके द्वारा सफलता प्राप्त कर सकें और अपनी कठिनाइयों को आसानी से हल कर सकें। इसकी ढ़ूँढ़ खोज में चाहे वर्षों लगा दीजिए, पर यह बात बाहर कहीं नहीं मिलेगी। यह हमारे अन्दर विद्यमान शक्ति को अपने अन्दर रखते हुए भी हम दुख और शोकों से खिन्न हो रहे हैं। दुख और विपत्ति मनुष्य के भाग्य में नहीं लिखी है।वास्तव में हमने इन चीजों को अपने आप पैदा किया है और मन की आकर्षण शक्ति द्वारा उन्हें खींच कर अपने से बाँध लिया है। मन के कषाय लाल मिर्चों के समान हैं, बुरी आदतों में ज्यों- ज्यों हम लीन होते जाते हैं, त्यों- त्यों दुखों की वृद्धि होती जाती है। लाल मिर्चों को शरीर पर जितना मलेंगे उतनी ही जलन बढ़ती जायेगी। भय और घबराहट के साथ काम करने और अपने को अभागा एवं दीन समझने वालों के सामने सदैव असफलता और दरिद्रता ही खड़ी रहेगी।
पहाड़ से गिरते हुए छोटे झरने को देखिये, अनन्त काल से वह इसी प्रकार बह रहा है। किसी को यह पता भी नहीं है कि इसकी जलधारा में कोई शक्ति भरी हुई है। कोई बुद्धिमान मनुष्य वहाँ आता है और लोगों की दृष्टि में व्यर्थ बहने वाले उस झरने की शक्ति के रहस्य को समझ कर उससे लाभ उठाने की सोचता है। वह प्रयत्न करके जल धारा से चलने वाले पहिये वहाँ लगवाता है और आवश्यकीय यंत्र वहाँ बिठाता है। अब यह व्यर्थ कहलाने वाला झरना एक बड़ी भारी शक्ति का केन्द्र दिखाई देने लगता है। उस शक्ति से बिजली पैदा होती है और फिर सैकड़ों यंत्र चलते हैं जिनके जरिये वह बुद्धिमान मनुष्य अपने पड़ौसियों को पर्याप्त लाभ पहुँचता हुआ खुद धन और यश उपार्जित करता है।
मनुष्य का शरीर भी उसी प्रकार का शक्ति केन्द्र है, पर वह जीवन रूपी पहाड़ी से गिरकर यों ही व्यर्थ बहता रहता है। वह झरना मानों अपने दुर्भाग्य पर रोता हुआ हमारी ओर संतृप्त नेत्रों से देखता हुआ यह कह रहा है कि मेरा यौवन नष्ट हुआ जा रहा है, मुझसे कुछ काम लेना है तो ले लो।
पारस पत्थर कोई बाहरी चीज नहीं है। वह हमारे हृदय में छिपी हुई आत्मशक्ति है। उसी को छूने से लोहा सुवर्ण और मनुष्य देवता हो जाता है। पर कितने मनुष्य हैं जो उसे छूते हैं? संत कबीर ने जीवन भर यही रोना रोया कि लोग हीरे को फेंककर काँच बटोरने को क्यों पागल हो रहे हैं? ईश्वर ने अपने परिपूर्ण और अक्षय खजाने की ताली हमारी जेब में रख दी है। हमी अज्ञानी बालक का उदाहरण बन रहे हैं, और दर- दर भीख मांगते फिर रहे हैं, किन्तु यह नहीं समझते कि अतुल सम्पत्ति के खजाने की ताली हमारी जेब में रखी हुई है। उसे खोलकर हम राजाओं जैसा ऐश्वर्य प्राप्त कर सकते हैं। मनुष्य की आत्मशक्ति की महत्ता अतुलनीय है। झरना बिजली और पारस पत्थर जड़ है। पर हम चैतन्य और आनन्द स्वरूप है। शक्ति का भण्डार, ईश्वर का अंश होने के कारण मनुष्य में वह सब महा शक्तियाँ और चमत्कार निहित हैं, जो प्रकृति में कहीं भी गुप्त और प्रकट रूप से विद्यमान है। उस शक्ति की उन्नति होने पर क्या हो सकता है? इसकी तो कल्पना भी करना कठिन है। मनुष्य ईश्वर का पुत्र वह अपने पिता की सारी सम्पत्ति को प्राप्त कर सकता है, खुद ईश्वर बन सकता है।
हमने आम शक्ति की स्वयं उपेक्षा की हैं, उसका जानबूझ कर कोई खस उपयोग नहीं करते हैं, फिर भी अनजान में उसके द्वारा जो कार्य होते हैं क्या वे कम आश्चर्य जनक हैं? दैनिक जीवन में दृढ़ इच्छा करते ही हमारी आकांक्षाऐं पूरी हो जाती हैं। इच्छा कर लीजिए कि आज रात को हमें सिनेमा जाना है। आपको उस लिए किसी न किसी प्रकार पैसा और फुरसत मिल जायेगी। दिल्ली जाना जरूरी समझ लीजिये कि आप अविलम्ब दिल्ली पहुँचेंगे। निश्चय कर लीजिये कि आज रात को हमें दो बजे उठ बैठना है ठीक समय पर आपकी आँख खुल जायेगी।
जितने सुन्दर पदार्थ हमें दृश्यमान होते हैं, पहले वे किसी के विचार में बीज रूप से आये होंगे। शाहजहाँ ने सोचा कि ऐसा बड़ा ताज महल बनाना चाहिए, कुछ ही दिनों में ताज महल बन कर सामने आ गया। स्टीफन्सन के दिमाग की पटरी पर चलने वाली रेल आज लोहे की पटरियों पर दौड़ रही है। दूर की बात जाने दीजिए अपने घर की चीजों पर नजर डालिए। कुर्सी, मेज, दवात, कागज, कपड़े चारपाई, लालटेन, सन्दूक, बर्तन यह सब किस प्रकार बन गये? इसके बनाने वालों ने इच्छा की होगी कि हम ऐसी चीज बनावे, फलस्वरूप वह बन गई। आपने चाहा कि यह हमें मिल जाय फलस्वरूप ऐसी सुविधाऐं मिल गई, जिनसे यह सब आपके सामने आ गई। बढ़ई यदि आपकी मेज़ वाली लकड़ी से अलमारी बनाना चाहता तो वह बना सकता था, और आप यदि छोटी सन्दूकची से काम चलाना चाहते हैं तो चला सकते थे। तब यह मेज़ आपके घर में न आई होती। हमारी आत्म शक्ति कल्पवृक्ष है। उससे मिट्टी के खिलौने और गुड़िया हम मांगते हैं, फलतः वह हमें नित्य मिल जाती है जिस दिन महल और खजाना माँगेंगे उस दिन वह भी मिल जायेगा।
जीवन की बुरी दशा, भय, दुख, निर्धनता तथा दुर्बलता हमारे लगातार विचारों के फल हैं। यदि कोई वास्तविक बाहरी दुख आ भी जाय तो उसे आसानी से हँसकर टाला जा सकता है। योगेश्वर शंकर ने कालकूट विष को हँस कर पी जिया और अपने गले से नीचे भी नहीं उतरने दिया। रोम- रोम बाणों से छिदा हुआ होने पर भी पितामह भीष्म बिना दुख माने बहुत दिनों तक शर- शय्या पर पड़े रहे और गहन धर्म शास्त्र की विवेचना करते रहे। हम तो झूठ भयों से डर- डर कर मरे जा रहें हैं। रात को चूहे भेड़िये दिखाई देते हैं, बिल्ली बाघ नजर आती है, हौवा यमराज का भाई बन जाता है। रस्सी साँप बन कर काट खाने को दौड़ पड़ती है।
ईश्वर के पुत्रों, अपने को भूलों मत। तुम सत् चित आनन्द स्वरूप हो। अनन्त ऐश्वर्य के तुम अधिकारी हो। सफलता तुम्हारे लिये बनाई गई है। अपनी जेब को ढ़ूँढ़ों और पारस पत्थर को निकालो। जरा निकालो तो सही, यह काला कलूटा लोहा तेजमय सुवर्ण हो जायेगा। अपने हाथों को उठाने की आज्ञा तो दो सामने की थाली में रखा हुआ षट् रस भोजन तुम्हारे मुँह में होगा। - ठाकुर रामसिंह जी चौहान

परिचय - श्री मैथली शरण गुप्त

बार बार तू आया,
पर मैंने पहचान न पाया।

हिम कम्पित कृश पाणि पसारे,
आया जब तू मेरे द्वारे,
लौट गया जो धक्का खाया। बार बार तू.।

दीन दृगों से निकल पड़ा तू,
बड़ा सरस था, बिकल बड़ा तू,
पर मैं कौतुक से मुसकाया। बार बार तू.

गलित अंग, दुर्गन्ध सना तू,
आया व्याकुल व्यथित बना तू,
हट कर मैंने तुझे हटाया। बार बार तू.

आर्त गिरा कानों में छाई,
वह थी तेरी आहट लाई,
पर मैं उस पर ध्यान न लाया। बार बार तू.

पीड़ित के निःश्वास अरे रे,
मैं क्या जानूं कर थे तेरे,
मुझ पर था कितना मद छाया। बार बार तू.

अब जो पहचानूं मैं तुमको,
तो तू भूल गया है मुझको,
मैं हूँ जिसने तुझे भुलाया,
बार बार तू आया। -(माधुरी से)      

मनुष्य का मनोबल

संसार के इतिहास का निरीक्षण करने से उसमें सब देश और जातियों में प्राप्त होने वाली आश्चर्य कारक बातें मिलेंगी। उन आश्चर्य कारक बातों पर सब देशों के श्रद्धालुओं का विश्वास रहा है। यहाँ सुनी हुई बातों की अपेक्षा मैं अपनी आँखों देखी हुई बातों का ही उल्लेख करूंगा!
एक बार मैंने सुना कि भारत के अमुक शहर में एक महात्मा आये हुए हैं जो मन की बात और भविष्य बताते हैं। मैं कुछ मित्रों सहित उनके पास गया। हम लोगों ने अपने प्रश्न अपनी डायरी में लिख रखे थे। वहाँ पहुँचते ही उन महात्मा ने सारे प्रश्नों को बता दिया और उनके संबन्ध में भविष्य वाणी भी की। इसके बाद उन्होंने कागज के छोटे छोटे टुकड़ों पर कुछ लिख कर हम लोगों को दिया और उन्हें जेबों में रख लेने का आदेश दिया। इधर उधर की बातें होने के कुछ देर बाद उन्होंने कहा आप लोग चाहे जिस भाषा का वाक्य मन में चिन्तन करें मैं उसको बतला दूँगा। हमें मालूम था कि वे संस्कृत अरबी जर्मन आदि भाषाएं नहीं जानते। इसलिए हम लोगों ने प्रथम संस्कृत अरबी और जर्मन भाषा के वाक्य मन में लिये। कुछ देर इधर उधर की बातें होने के बाद उन्होंने कहा कि घंटे भर पहले जो कागज के टुकड़े मैंने आप लोगों को दिये थे उन्हें जेबों से निकाल कर पढ़िये। हमने निकाल कर पढ़ा तो अक्षरशः वही वाक्य लिखे मिले जो हमने मन में सोचे थे। इस पर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। हमें संदेह हुआ कि शायद इनने कोई चालाकी की हो, इस पर हमने फिर जाँच की पर उनके चमत्कार सच्चे ही साबित हुए।
इसी प्रकार के एक चमत्कार करने वाले महात्मा से मिलने मैं हैदराबाद गया। भेंट के बाद एक दिन वे आकर हमारी कोठरी में बैठ गये। वे केवल एक धोती पहने हुए थे जिससे यह संदेह भी व्यर्थ था कि कोई चीज कहीं छिपी होगी। उन्होंने कहा कहिये कौन सी वस्तु ला दूँ? हम लोगों ने विभिन्न देशों में पैदा होने वाले फल माँगे। देखते ही देखते उसी तरह के फलों का उन्होंने ढेर लगा दिया। तोले जाते तो वे फल उन सज्जन के शरीर से चौगुने होते। इन सुस्वादु फलों को सबने खाया। अन्त में उन्होंने ओस की बूँदें पड़े हुए बहुत से गुलाब के फूल हमें दिये।
ऐसी चमत्कारिक बातें हमारे देश की तरह आपके यहाँ भी होती होंगी कुछ बातें नकली भी की जाती हैं पर नकल भी असल की ही होती हैं। यह बातें अविश्वसनीय नहीं होतीं केवल हम उन बातों के असली रहस्य से अनभिज्ञ होते हैं। प्राचीन काल में भारत में ऐसे चमत्कार हजारों होते थे पर अब उतने दिखाई नहीं देते। यह एक मानी हुई बात है कि जिस देश की जन संख्या बढ़ जाती है वहाँ का आध्यात्मिक बल घट जाता है। प्राचीन काल में जब भारत की जनसंख्या कम थी तब वहाँ के निवासियों ने आध्यात्मिक तत्त्व की महत्वपूर्ण खोज करके इस विषय का सर्वांग पूर्ण शास्त्र बनाया था। भारतीय जानते थे कि यह सब चमत्कार प्रकृति के नियमों के अनुकूल ही होते हैं। जो बात हमेशा नहीं दिखाई पड़ती उसे ही चमत्कार कहते हैं। आज जो बातें हमारे दैनिक जीवन में होती हैं एक समय वह भी चमत्कार ही मालूम पड़ती थीं। कुछ लोगों में जन्म से ही आत्म शक्ति विशेष रूप से होती है। अब भी भारत में असंख्य लोग इस शास्त्र का अभ्यास करते हैं।
प्रत्येक मनुष्य का मन, विश्वव्यापी एक ही महामन का अंश है। इसलिए एक मनुष्य के मन का दूसरे के मन से नित्य संबंध है। इसी कारण कहीं एक कोने पर बैठा हुआ आदमी सारे संसार के मनों से संबंध स्थापित कर सकता है। विभिन्न लोगों के मन, विश्वव्यापी महा मन समुद्र की तरंगें हैं उनका आपस में एक दूसरे से सम्बन्धित होना स्वाभाविक ही है।
एक समय एक स्थान पर बैठा हुआ मनुष्य जब विचार करता है, दूसरे समय दूसरे स्थान का दूसरा मनुष्य भी वही विचार करता पाया जाता है। इसका क्या कारण हैं? यह विचार संक्रमण का चमत्कार है। दूसरों के पास अपने विचारों को पहुँचाने और दूसरे के भेजे हुए विचार ग्रहण करने की क्रिया का अन्यास करने से यह सुलभ हो जाती है। जब साधक का अभ्यास बढ़ जाता है तब वह चाहे जितनी दूर अपने विचार पहुँचा सकता है क्योंकि मन की गति अत्यन्त सूक्ष्म है। उसके मार्ग में कोई रुकावट नहीं डाल सकता। मन का संयम योग क्रिया की जड़ है उसके द्वारा हर काम हो सकता है।
मैं व्याख्यान दे रहा हूँ आप सुन रहे हैं, यह भी विचार संक्रमण ही हो रहा है। मैं अपने जड़ विचारों को शब्द के रूप से प्रकट करता हूँ। शब्द आकाश में मिलकर कम्पनों के साथ ध्वनि के रूप में आपके कानों में घुस जाते हैं आप उन्हें कान के भीतरी पर्दे में ग्रहण करके अपने मस्तिष्क में भेजते हैं मस्तिष्क में पहुँच कर वे पुनः अपना पुराना रूप धारण करते हैं तब जाकर आपको उन शब्दों के अर्थ का ज्ञान होता है। मैं अपने विचारों को आप के पास पहुँचा रहा हूँ। इस कार्य में स्वयमेव दो क्रियाएं हो रही हैं। मेरे विचार सूक्ष्म कम्पन का रूप धारण करके फैल रहे हैं और आप लोगों के मस्तिष्कों में प्रवेश करके वे पुनः अपने असली रूप में प्रकट हो रहे हैं। यदि योग शास्त्र के अभ्यास से अपने विचारों को आपके पास पहुँचाना चाहूँ तो कोई बाहरी क्रिया करने की जरूरत न पड़ेगी। मैं अनायास ही अपने सब विचार आपके पास पहुँचा सकूँगा।
संसार का हर पदार्थ हमारे ऊपर अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न करता है। हम अपनी चालाक शक्ति के आधे भाग से अपनी रक्षा करते हैं और आधे से संसार के अन्य पदार्थों पर अधिकार करने की कोशिश करते हैं। हमारे स्वभाव, मन, शरीर, भावनाएं बाह्य जगत पर अधिकार जमा रहे हैं। मान लीजिए कोई विद्वान व्यक्ति आप से मिलने आता हैं वह घन्टे दो घन्टे आपसे बात करता हैं। उसकी वाणी मीठी और विचारावली सुन्दर है तो भी आप उसकी बातों से प्रभावित नहीं होते और उसके चले जाने के बाद पहली दशा में आ जाते हैं। फिर कोई व्यक्ति आता है जिसकी वाणी अशुद्ध है और बात चीत भी थोड़ी देर होती है पर आप पर उस विद्वान की अपेक्षा इस व्यक्ति का बहुत असर पड़ता है। इस प्रकार के अनुभव आपको प्रतिदिन होते हैं। इसका क्या कारण है? कारण यह है कि जिस व्यक्ति का अधिक प्रभाव पड़ता है उसमें कुछ विशेष तेज या चुम्बकत्व होता है जिसका प्रभाव दूसरों पर पड़े बिना नहीं रहता। भाषा और विचार तो साधारण उपकरण मात्र हैं। इनसे व्यक्ति की आकर्षणशक्ति को कुछ सहायता मिल जाती है। आदमी को यश अपयश प्राप्त होना भी इसी तेज पर निर्भर है। एक ही प्रकार के उद्योग में एक व्यक्ति को लाभ होता है और दूसरे को हानि। इसका कारण भी व्यक्ति का विशेष तेज है। योगशास्त्र कहता है कि इस आध्यात्म शक्ति के विशेष तेज को हर एक व्यक्ति सम्पादन कर सकता है।
प्राचीन महापुरुषों के चरित्रों पर विचार कीजिए उनको इतना यश अपनी कृतियों के कारण नहीं वरन् व्यक्तिगत तेज के कारण प्राप्त हुआ है। अनेक त्यागी और धुरंधर विद्वान जिनकी योग्यता के सामने आज हमें सिर झुकाना पड़ता है उनके जीवन काल में उन्हें बहुत कम आदर प्राप्त हुआ था। सर्व साधारण पर प्रभाव डालने में बुद्धि एक तिहाई और प्रतिभा दो तिहाई काम करती है। प्रतिभा मुख्य और कृति गौण होती हैं क्योंकि जहाँ प्रतिभा है वहाँ कार्य तो अपने आप होता रहेगा। अन्ततः संसार में कृति का महत्व नहीं किंतु व्यक्ति का है। प्रतिभावान् व्यक्तियों को जादूगर और चलते फिरते विद्युतोत्पादक यंत्र समझना चाहिए वे जहाँ जाएंगे विजय प्राप्त करेंगे। जिस कार्य में हाथ डालेंगे उसी में सफलता पायेंगे। क्यों कि अपनी विद्युत शक्ति से सब जगह चेतना उत्पन्न कर देना उनके लिये कुछ भी कठिन नहीं है।
अभी तक कही हुई बातें अमुक नियम से होती हैं यद्यपि मैं यह नहीं बता सकता, तो भी यह बातें कपोल कल्पित नहीं हैं। क्योंकि व्यवहार में उनका अस्तित्व हम सदैव देखते रहते हैं। जड़ शास्त्रों के नियमों की भाँति इसका कोई नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता। मनुष्य में दिखाई देने वाला आत्म तेज, देहान्त होने के बाद भी जीवित रहता है। कृतियों को देख कर उनके तेज की हम एक धुँधली कल्पना कर सकते हैं बड़े बड़े ग्रंथ निर्माता और महात्माओं की तुलना करके देखिये। विद्वतापूर्ण ग्रन्थों से कोई गहरा असर नहीं पड़ता पर महात्माओं की कृति देख कर आप विह्वल हो जाते हैं। महात्माओं के जितना विद्वानों से हमें प्रेम नहीं होता। बुद्धि एक इन्द्रिय और मानवी हृदय की एक बनावट चीज हैं वह अनुकूल परिस्थिति में प्रकाश देती और प्रतिकूल परिस्थिति में नष्ट हो जाती है। महात्माओं का तो हृदय प्रकाशवान होता है एक जलती हुई मशाल से जैसे हजारों दीपक जलाये जा सकते हैं उसी प्रकार महात्माओं के प्रकाश-मय हृदय से सम्बन्ध करने पर करोड़ों लोगों का उद्धार हो जाता है। मनुष्य में विशेषता उत्पन्न करने वाले नियम योग शास्त्र ने ढूँढ़ निकाले हैं वे सब समय देश तथा पात्रों के अनुकूल हैं। धनी, दरिद्र, ग्रही, संन्यासी, परिश्रमी, आराम तलब, सब कोई अपनी विशेषता, अपने स्वरूप और अपने मनोबल को दृढ़ कर सकते हैं!
आत्म तेज बढ़ाने के लिए मन का संयम करना जरूरी है। अक्सर लोगों को यह शिकायत रहती है कि अपने विचार और कार्यों पर हमारा अधिकार नहीं चलता। यदि विचारों के उठते ही हम उनका नियमन कर सकें, स्थूल कार्यों की सूक्ष्म शक्ति को अपने आधीन बनाये रहें तो यह सम्भव नहीं कि मन काबू में न रहे। जब हम अपने मन पर पूरा अधिकार कर लेंगे तो दूसरों के मनों पर अधिकार जमाना भी कठिन न रह जायगा क्योंकि सब मन एक ही विश्व व्यापी मन के अंश हैं। मन का संयम सब से बड़ी विद्या है। संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं जो इसके द्वारा सिद्ध न हो। मनोनिग्रह से शरीर सम्बन्धी बड़े बड़े दुःख तिनके जैसे प्रतीत होंगे। मानसिक दुखों को मनोनिग्रही व्यक्ति के पास आने का साहस न होगा अपयश तो उसका नाम सुनकर भागता फिरेगा। सब धर्मों ने भीतरी बाहरी पवित्रता तथा नीति का उपदेश इसलिये दिया है कि पवित्रता और नीतिमत्ता से मनुष्य अपने मन को वश में कर सकता है और मनोनिग्रह ही सब सुखों का मूल है। यह बात निश्चित हो चुकी है कि संसार की हर एक वस्तु एक ही लक्ष की ओर जा रही है और वह लक्ष है-पूर्णता। सारा संसार एक दिन पूर्णता को प्राप्त होगा परन्तु उसे यदि कोई सहायक मिल जाय तो वह अपना रास्ता जल्द तय करेगा। साधु महात्मा और सद्गुरु हमें अपने लक्ष की ओर शीघ्र पहुँचाने वाले सहायक हैं। मन का अभ्यास कर उसमें गोचर होने वाली शक्ति का विचार करने से पूर्णता प्राप्त होती है, इस बात को त्रिकालदर्शी लोगों ने सिद्ध कर दिया है। उनका कथन है कि जो काम तुम स्वयं कर सकते हो उसे प्रकृति के भरोसे छोड़ कर लोगों के हाथ के खिलौने क्यों बन रहे हो? उठो अपना रास्ता सुधारो और एक ही छलाँग में संसार को पार कर दो।
निस्सन्देह मनुष्य जाति के सुख, ज्ञान और बल की वृद्धि हो रही है पर यह वृद्धि कितनी हुई है इसका अन्दाज लगाने का कोई पैमाना हमारे पास नहीं है। हमें अपनी आँखों के आस पास की वस्तुओं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दीख पड़ता। परन्तु मैंने एक ऐसा मनुष्य देखा है जो एक कोठरी में बैठकर दूसरी कोठरी का सब हाल बताता हैं। आप इस बात पर शायद विश्वास न करेंगे परन्तु वह मनुष्य केवल तीन सप्ताह में आप लोगों में से जो सीखना चाहें उन्हें उक्त विद्या सिखा सकता है। दूसरों के मन की बात जानने की कला पाँच मिनट में आ सकती है परन्तु दृढ़ चित्त से अभ्यास करना चाहिये। जो मनुष्य अपने मन पर अधिकार कर चुका है उसके लिये दूसरों के मन की बात जानना असम्भव नहीं है वह घर बैठे संसार भर की बातें जान सकता है। यदि आप इस विद्या को नहीं जानते तो इसे मिथ्या कहने का भी आपको अधिकार नहीं है सब शास्त्रों के आविष्कर्ता यदि आप जैसे मिथ्यावादी होते तो आज किसी शास्त्र का अस्तित्व सिद्ध न होता। हर रोज जिन बातों का अनुभव होता है उन्हें एकत्रित कर, उनका विभाग कर, उनमें से सत्य सिद्धान्त ढूँढ़ निकालना ही किसी खास शास्त्र का आविष्कार करना है, इसी तरह से आज तक सब शास्त्र बने हैं। अज्ञात वस्तु को झूठ कहने से उसका सत्य स्वरूप आपसे सदा ही छिपा रहेगा। हिन्दू लोग किसी वस्तु की झूठी नहीं कहते। हर वस्तु का सूक्ष्म निरीक्षण करने की उन्हें आदत है।
भारत का इतिहास देखने से आपको ज्ञात होगा कि भौतिक शास्त्रों का पता लगाने के पश्चात् आर्य लोग मानवी मनोबल का पता लगाने में इतने गढ़ गये थे कि उन्हें भौतिक शास्त्रों की आधुनिक रीति से उन्नति करने का ध्यान भी न रहा। उनको विश्वास हो गया था कि मानस शास्त्र सिद्ध हो जाने पर हमारी सब आकांक्षाएं पूर्ण होंगी। मनोबल से हम जो चाहेंगे कर सकेंगे। मंत्र, तंत्र, जादू, टोना आदि के भी सिद्धान्त बाँध कर उन्होंने एक शास्त्र बना डाला और भौतिक शास्त्रों की तरह मानस शास्त्र के नियम बना कर उसका वे अभ्यास करने लगे। योगी लोगों के अनेक पंथ निर्माण हुए। कोई खास रंग के कपड़े पहन उसी रंग से पुते हुए घर में रहकर ओर खास रंगों के पदार्थों को भक्षण कर भिन्न-भिन्न प्रकाश किरणों का अभ्यास करने लगे। कोई कानों को बन्द कर ध्वनि सुनने और पुनः कान खोलकर पहले सुनी हुई ध्वनि का अभ्यास करने लगे। कोई भिन्न-भिन्न गन्धों का अभ्यास करने लगे। इसी तरह नाना पंथों से ज्ञानेन्द्रियों द्वारा मानस शास्त्र का अभ्यास कर अन्त में उन्होंने उस शास्त्र को सर्वांगपूर्ण बना डाला। संसार की सब वस्तुओं के मूल रूप का पता लग जाने से उन्हें विलक्षण सामर्थ्य प्राप्त हुई। किसी ने मृत्यु को जीत लिया, कोई आकाश में उड़ने लगा और कोई मुर्दे जिलाने लगा। उस समय के हिन्दुओं ने जान लिया था कि सब प्रकार के सामर्थ्यों का अधिष्ठान जीवात्मा में है। अभी भी हिन्दुओं का आध्यात्म बल बिलकुल नष्ट नहीं हुआ है। कुछ कदन पूर्व एक पाश्चात्य विद्वान ने अपने मित्र की एक आँखों देखी घटना मुझसे कही थी। वे कुछ वर्ष पूर्व लंका के गवर्नर थे, वही उन्होंने यह घटना देखी। घटना यह थी कि कुछ हिन्दुओं ने बहुत सी लकड़ियों का एक टीला बना कर उस पर बारह वर्ष की एक कन्या को बिठाया। और लड़की के नीचे से एक- एक करके सब लकड़ियाँ निकाल ली। लड़की ऊपर टंगी रही। गवर्नर महोदय को सन्देह हुआ कि शायद कोई अदृश्य वस्तु लड़की को उठाए हुए है इसलिए उन्होंने अपनी तलवार लड़की के नीचे से घुमाई, पर कहीं कुछ न था। इस प्रकार की शक्ति बहुत से हिन्दुओं को प्राप्त हैं और इसी अभ्यास में सैकड़ों वर्ष बिता देने के कारण वहाँ भौतिक शास्त्रों का लोप हो गया। तब वे निकम्मे ठहराये गये। आज हिन्दुओं के पास बाहरी चमक न होने पर भी उनके हृदय सूर्य किरणों के समान चमक रहे हैं।
मुझे कुछ लोगों ने कहा कि आप मानस शास्त्र की केवल उत्पत्ति बताते हैं, पर अभ्यास के मार्ग की चर्चा नहीं करते। मेरा कथन हैं कि यह शस्त्र दाल रोटी का कौर तो है नहीं, जो उठाया मुँह में रख लिया। आप जड़ शास्त्रों का अभ्यास करते हैं, वह कठिन नहीं है क्योंकि जिन वस्तुओं की छानबीन करते हैं वे जड़ हैं। उदाहरणार्थ इस कुरसी को आपको चूर करना हो तो कुरसी आप से लड़ने नहीं आवेगी। यह बात मन की नहीं है मन पर अधिकार करना सहज नहीं हैं। उसका आकलन करने के लिए दिन रात परिश्रम करने होंगे। मैं बड़ा भारी योगी नहीं हूँ परन्तु उसकी रूपरेखा जानने में ही मुझे तीस वर्ष बिताने पड़े हैं।
(स्वामी विवेकानन्द की जीवनी और व्याख्यान से)

धर्म और विज्ञान

आज जब विज्ञान ने अपने पर सारी दुनिया के ऊपर फैला लिये हैं, और प्रत्येक बात को अपने नीचे छुपा लिया है, धर्म और विज्ञान की जद्दोजहद हकीकत नहीं मालूम होती है, क्योंकि कल तक जिसे ठोस भद्दा जड़ पदार्थ (मैटर) समझा जाता था, वह आज इतना सूक्ष्म है कि वायु से भी सूक्ष्म।
हो सकता है कि इस “ब्रह्माण्ड” में हम धूल के एक छोटे से कण ही हों। लेकिन इस धूलि कण में भी वह चीज है, जिसमें इंसान का दिमाग और रूह है। सदियों से यह बढ़ता रहा है, और इस पृथ्वी का मालिक बन बैठा है और इसने आकाश की बिजली तक से शक्ति पाई है। विज्ञान ने ब्रह्माण्ड के रहस्य को हमारे सामने खोलकर रख दिया और प्रकृति की चंचलता को भी अपने काम में लगाया है। पृथ्वी और आकाश से भी अधिक महत्वपूर्ण है आदमी का दिमाग और रूह, जो दिन दूनी और रात चौगुनी शक्तिशाली होता जाता है और नित नई दुनिया विजय करने की तलाश में रहता है।
सच्चा वैज्ञानिक वह ‘योगी’ है जिसे जीवन का मोह नहीं जो अपने कर्म का फल नहीं चाहता बल्कि सत्य की खोज में कहीं तक भी जाने को तैयार रहता है किसी एक जगह ऐसा लंगर डालकर बैठ रहता कि वहाँ से हिल ही न सके। 
-नवयुग से जवाहर लाल नेहरू

धर्म का सच्चा स्वरूप

मैं कोई नवीन बात कहने, किसी गूढ़ तथ्य पर प्रकाश डालने के लिए आपके सामने नहीं उपस्थित हुआ हूँ। मैं कवि हूँ, मुझे जगत और जीवन से अपार प्रेम है। प्रेम एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को न केवल अंतर्दृष्टि प्रदान करती है बल्कि मानव समाज की मूक भावनाओं के प्रति हमारे हृदय में अनुराग भी उत्पन्न करती हैं। सौभाग्य से मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो नाना प्रकार के आमोद प्रमोदों में फंसकर जीवन की स्वच्छन्दता और अनेक रूपता को बिल्कुल भूल जाते हैं। हमारी आध्यात्मिक उन्नति का अनुमान इसी बात से लग जाता है कि हमारी आन्तरिक भावनाएं कितनी उच्च अथवा उदार हैं। जीवन के सुखमय बनाने वाले उपादानों से घिरे रहने पर भी, शान्ति नहीं मिलती, हमें स्वातंत्र्य भावना के, मुक्ति के, दर्शन नहीं होते। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने की अपरिमित भूख अत्यन्त प्राचीन काल से मानव-मन की एक विशेषता रही है। अत्यन्त प्राचीन काल से मानव मन की जिज्ञासा शक्ति अज्ञात के प्रति, लीन रही हैं। इसी चिरन्तन सत्य की खोज में मनुष्य समाज युग-युगान्तरों से संलग्न है फिर भी उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई।
समस्त प्रकृति अनन्त की ओर तेजी से दौड़ रही है। पशु-पक्षियों तक में अनन्त के प्रति यही अनुराग की भावना व्याप्त है। चर जगत के प्राणी मात्र अपने विकसित रूप में, सन्तान के रूप में अनन्त काल तक संसार में अपनी सत्ता बनाए रखने के इच्छुक होते हैं। किंतु चूँकि मनुष्य विचार शक्ति सम्पन्न प्राणी है अतः वह येन केन प्रकारेण जीवन यापन से ही सन्तोष नहीं कर सकता, जीवन को अधिक से अधिक शान्त और विवेकपूर्ण बनाने में ही उसकी आकाँक्षाएं निहित हैं। इन्हीं आकाँक्षाओं को क्रियात्मक रूप प्रदान करने में कितने ही महात्माओं ने अपनी आहुतियाँ दे दी हैं। उन्होंने सत्य सिद्धान्तों की खोज की, जीवन का एक आदर्श बनाया और अपने अनुगामियों को बताया कि अमुक मार्ग का अनुकरण करने से ही हमें आन्तरिक शान्ति प्राप्त हो सकती है। विभिन्न महात्माओं के विभिन्न मार्ग ही संसार में विभिन्न धर्मों के नाम से प्रख्यात हैं। संसार के सभी सभ्य देशों में महात्माओं ने शान्ति, सौंदर्य और मानव चरित्रगत नैतिकता के महत्व को घोषित किया और इन्हीं तथ्यों की सम्यक् उपलब्धि में जीवन की सार्थकता सिद्ध की।
प्रत्येक धर्म अपनी प्रारम्भिक दशा में पूज्यतम भावनाओं से मण्डित होता है किन्तु आगे चलकर उसकी प्रगतिशील स्फूर्ति वैसी नहीं रह जाती, उसमें धर्मान्धता का समावेश होने लगता है। उस समय उसके आध्यात्मिक विवेक पर परदा पड़ जाता है, उसके सिद्धान्त खोखले हो जाते हैं और मनुष्य के बीच के ऐक्य सूत्र को खंडित करने में ही सहायता करते हैं। धार्मिक कट्टरता हमारी सर्वतोमुखी उन्नति को बिल्कुल रोक देती है और हम जीवन की होड़ में बिल्कुल पिछड़ जाते हैं। ऐसी दशा उपस्थित होने पर सभ्य जगत की उन्नति शील संस्थाएं देश और समाज को धर्म के इस गोरखधन्धे से बड़ी मुश्किल में मुक्ति कर पाती हैं।
किसी सम्प्रदाय में जन्म लेकर अथवा उसके अनुयायी होकर हम समझ लेते हैं कि हमने ईश्वर को प्राप्त कर लिया। हम यह सोचकर अपने मन को साँत्वना दे लेते हैं कि हमारे ईश्वर की निजी विशेषताएं हैं, हमें अब उसके विषय में विशेष चिन्तन की जरूरत ही क्या? ईश्वर के विषय में उक्त धारणाएं रख कर हम समय समय पर विरोधियों के सिर तोड़ने को तैयार हो जाते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वही धर्म जिसकी उद्भावना बड़े ही उदात्त विचारों के बीच हुई थी और जो मानव जाति की आध्यात्मिक मुक्ति के उच्च सिद्धान्त को लेकर अग्रसर हुआ था, मानव समाज की स्वातंत्र्य-मूलक भावनाओं के लिए कितना घातक सिद्ध होता है, उन्हें कैसे कड़े बन्धनों में जकड़ देता है। पण्डित, पाधाओं, मुल्लाओं और पादरियों के कठोर शासन के अंतर्गत धर्म की ऐसी छीछालेदर होती हैं, उसका स्वरूप इतना विकृत हो जाता है कि देश और समाज को स्वच्छन्द वायु का स्पर्श तक नहीं होने पाता, उसमें मंगलमयी और उदार भावनाओं का उदय हो भी तो कैसे?
यदि सचमुच आप सत्य के पुजारी हैं तो मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि आप पूर्ण-सत्य को खोजने की चेष्टा करिये, रूढ़ियों के मजबूत जालों में फँसे हुए गोल मोल किन्तु छूँछे धार्मिक प्रतीकों के फेर में पड़ कर अपनी बुद्धि के दिवालियेपन का परिचय आपको न देना चाहिये।
मेरा उद्देश्य समस्त मानव समाज के लिए पूजा के एक सामान्य आदर्श की प्रतिष्ठापना का नहीं है। अक्सर साम्प्रदायिकता के नाम पर मानव समाज के बीच छोटी छोटी बातों को लेकर जो बड़े बड़े उपद्रव उठ खड़े होते हैं उन्हें देख कर यही कहना पड़ता है कि जन समाज धर्म के स्वरूप को अब तक पहचान नहीं सका। “धर्म”, काव्य की तरह कोई भावना मात्र नहीं है, वह अभिव्यक्ति है।
जब कोई धर्म काफी उन्नतावस्था को प्राप्त हो जाता है और उसकी आकाँक्षाएं इतनी व्यापक हो जाती हैं कि समस्त मानव समाज पर अपनी धाक जमाना चाहता है, उस समय वह अपने उच्च आसन से गिर जाता है। उसमें अत्याचार की भावनाएं व्याप्त हो जाती हैं और उसका स्वरूप साम्राज्यवाद से मिलता जुलता हो जाता हैं।मानव समाज की मूल वृत्तियों में ही धर्म का सत्य-स्वरूप निहित है। मेरा मतलब इसी उपेक्षित सत्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित करने का है।
मैं श्री रामकृष्ण परमहंस को बड़ी श्रद्धा को दृष्टि से देखता हूँ क्योंकि उन्होंने एक ऐसे युग में सत्य के स्वरूप को पहचान कर हमारी आध्यात्मिक परम्परा पर प्रकाश डाला था जब देश में घोर अज्ञानान्धकार का एकान्त राज्य था। उनके विस्तृत विवेक ने साधना के विरोधी मार्गों का सम्मिलन कराया, और उनके सरल व्यक्तित्व ने पण्डित पाधाओं की अहंमन्यता पर सदा के लिए एक स्थायी प्रभाव डाला था।
विवेक बुद्धि से काम लेने पर आपको ज्ञात होगा कि समस्त चराचर प्रकृति ईश्वर की ही व्यक्त सत्ता का प्रकाश है। जगत के नाना दृश्यों और व्यापारों में हम उसी एक चिरंतित शक्ति के विभिन्न स्वरूपों के दर्शन करते हैं।अपने निजी धर्म को आवश्यकता से अधिक महत्व देने के उसे सर्व श्रेष्ठ धर्म समझने के हम आदी हो गये है। इसके मानी होते हैं कि परमात्मा की सर्व जन हितकारिता पर हमें विश्वास नहीं, दूसरे शब्दों में हम ईश्वर की न्यायशीलता पर अभियोग लगाते हैं और उसे पक्षपाती ठहराते है।
- रवीन्द्रनाथ टैगोर

कर्त्तव्य की पुकार

इस प्रकार के विचार मनुष्य को हिला डालते हैं और आश्चर्य में डाल देते हैं कि ‘‘मैं जवाबदार हूँ ’’ ‘‘यह मेरा कर्त्तव्य है’’ हमारे कामों में इस प्रकार की गुप्त आवाज सदा आती रहती है कि ‘‘हे मानव, यह कार्य तेरा है, तुझे स्वयं जय अथवा पराजय प्राप्त करना है, तेरे जैसा तू ही है, क्योंकि प्रकृति ने एक सरीखी दो वस्तुऐं कही नहीं बनाई। तेरा जो कर्तव्य है उसे तू ही नहीं करेगा तो संसार के हिसाब के आँकड़े में यह भूल सदा ही होती रहेगी।’’
आप सवाल करेंगे कि कौन सा कार्य मेरे करने के लिये है? कोई यह कह कर निश्चिन्त बैठा रहेगा कि मैं परमात्मा की ज्योति हूँ। दूसरा कहेगा, अपने पड़ोसी के साथ सहानुभूति रखनी चाहिए और उसके साथ भाई जैसा व्यवहार करना चाहिए। तीसरा कहेगा माता- पिता की सेवा करनी चाहिए, स्त्री, बाल- बच्चों की सँभाल रखनी चाहिए और भाई- बहिन तथा मित्रों के साथ बराबर का व्यवहार करना चाहिए, परन्तु इन सब गुणों में मेरे संपूर्ण गुणों का श्रेष्ठ भाग यह है कि मुझे स्वयं अपने लिए इसी प्रकार का आचरण करना चाहिए। जब तक मैं स्वयं अपने को न पहचान लूं, तब तक दूसरा कैसे पहचाना जा सकता है? और जिसे मैं पहचानता ही नहीं उसके लिए सम्मान कैसे व्यक्त किया जा सकता है? कुछ लोग यह कहते है कि मनुष्य को दूसरों के साथ व्यवहार करते समय ठीक तरह बर्ताव करना चाहिए। परन्तु जब तक हमें किसी के साथ काम नहीं पड़ता, तब तक हम अपनी इच्छा के अनुसार जैसा हमें अच्छा लगे वैसा बर्ताव कर सकते हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं, उनका यह कहना बिना समझे बुझे है। क्योंकि दुनियाँ में रह कर कोई भी मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाये बिना स्वच्छन्दता के साथ बर्ताव नहीं कर सकता।
अब हमें देखना चाहिए कि हमारा अपने आपके प्रति क्या कर्तव्य है? बात यह है कि हमारे एकान्त के बर्ताव की हमारे सिवा किसी दूसरे को खबर नहीं होती। उस बर्ताव का असर हम पर होता है, और इसलिए हम उसके जवाबदार हैं। इतना ही नहीं किन्तु उससे दूसरों के ऊपर भी असर होता है, उसके लिए भी हमीं जवाबदार हैं। अतएव प्रत्येक मनुष्य को अपने जोश के ऊपर दबाव रखना चाहिए और सदा अपने शरीर और मन को स्वच्छ रखना चाहिए। एक महापुरुष कहता है कि ‘प्रत्येक मनुष्य की निजी चाल ढाल मुझे बतलाई जाय, तो मैं देखकर तुरंत ही कह दूँगा कि वह मनुष्य कैसा है, और कैसा होगा।’ ऐसी ही और भी कई बातें हैं जिसके कारण हमें अपनी इच्छाओं पर अंकुश रखने की आवश्यकता है। हमें शराब न पीनी चाहिए, जुआ न खेलना चाहिए, व्यभिचार न करना चाहिए आदि। अन्यथा इन बातों का परिणाम यह होगा कि हम शक्ति हीन होकर अपनी इज्जत व आबरू खो बैठेंगे। जो मनुष्य विषयों से दूर रहकर अपने शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की रखवाली, देख- रेख नहीं करता वह बाहर के दूसरे कामों में शोभा नहीं पा सकता। सफलता लाभ नहीं कर सकता।
इस प्रकार विचार करता हुआ मनुष्य अपनी अन्तरंग की वृत्तियों को साफ, निर्मल, पवित्र रखकर विशेष विचार करता है कि इन वृत्तियों का उपयोग किस रूप में करना चाहिए? जीवन का कुछ ध्येय अवश्य होना चाहिए। यदि जीवन के कर्तव्य की शोध करके उस ओर हम प्रयत्न न करें तो बिना पतवार के जहाज की तरह हम अथाह समुद्र में गोते ही खाते रहेंगे। सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य यह है कि हम मनुष्य जाति की सेवा करें और उसकी स्थिति को सुधारने में भाग लें। इसमें ईश्वर की सच्ची भक्ति भी आ जाती है। जो मनुष्य ईश्वर के कामों को करता है वही सच्चा ईश्वरीय मनुष्य है। वैसे ईश्वर का नाम लेने वाले ढोंगी, धूर्त तो हजारों फिरा करते हैं। तोता ईश्वर का नाम लेना सीख लेता है, परन्तु इससे उसे कोई ईश्वरीय नहीं कहता। मनुष्य जाति को अच्छी स्थिति में लाने का नियम सब लोग पाल सकते हैं। व्यापारी लोग इस पद्धति पर व्यापार कर सकते हैं। वकील लोग ऐसी पद्धति रखकर अपनी वकालतें कर सकते हैं। इस प्रकार के नियम कायम करने वाला मनुष्य कभी नीति धर्म से च्युत नहीं होता, क्योंकि उससे च्युत होकर चलने पर मानव जाति को उन्नति के सोपान पर चढ़ने की धारणा पूरी नहीं पड़ सकती।
इन बातों का सार यह है कि जो मनुष्य स्वयं शुद्ध है, किसी से द्वेष नहीं करता, किसी के साथ खोटा लाभ नहीं उठाता और सदा मन को पवित्र रखकर आचरण करता है वही मनुष्य धर्मात्मा है, वही धनवान है। ऐसे ही लोगों से मनुष्य जाति की सेवा हो सकती है। जिस दिया सलाई में आग न हो, वह दूसरी लकड़ियों को कैसे सुलगा सकती है? जो मनुष्य स्वयं नीति का पालन नहीं करता, वह दूसरों को क्या सिखा सकता है? जो स्वयं डूब रहा है, वह दूसरे को कैसे निकाल सकता है? नीति का आचरण करने वाला मनुष्य यह सवाल कभी नहीं उठाता कि दुनियाँ की सेवा किस तरह करनी चाहिए? क्योंकि यह सवाल उसे पैदा ही नहीं होता। मेथ्यु आरनल्ड कहते है ‘‘एक समय था जब मैं अपने मित्र के लिए आरोग्य, विजय और कीर्ति की इच्छा करता था, परन्तु अब वैसी इच्छा नहीं करता। कारण यह है कि इन बातों के होने या न होने पर मेरे मित्र के सुख दुख का आधार नहीं है। इसलिए अब मैं सदा यह इच्छा करता रहता हूँ कि उसकी नीति हमेशा अचल रहे, वह अपने नीति पथ से कभी विचलित न हो’’ एमरसन कहते है ‘‘अच्छे मनुष्यों का दुख भी उनके लिए सुख है और बुरे मनुष्यों का धन और उनकी कीर्ति भी उनके लिए तथा संसार के लिए दुःख रूप है।’’
- महात्मा गाँधी

अमर- ज्योति

जल रही विश्व में अमर ज्योति,
छा रहा गगन तल में प्रकाश।
मेरे मानव। तू उज्ज्वल बन,
मत हो निराश, मत हो उदास।।

खिल रही कली, हँस रहे फूल,
जग में छाया भ्रमरित बसन्त।
विहँसो, विकसों, मानव के तरू,
उमड़ा नव जीवन दिग्दिगन्त।

प्राची के उज्ज्वल आँगन से,
छुट रहे ज्ञान के सतत् तीर।
आलस विमूढ़ता तज मानव,
पहिचान कर्म- पथ की लकीर।।


मैं चला कुचल कर काँटों को,
कब रोक सका है मुझे काल।
मैं विश्व भाल पर छोड़ चला,
अपने ज्योतित पद चिन्ह लाल।।

इस जीवन में सुख ही सुख है,
मानव। तुम भूलों रोग शोक।
जय जय उस अमर ज्योति की जय,
हम लावे भू पर अमर लोक।।

रचयिता- श्री पुरुषोत्तमदास विजय

Tuesday, September 29, 2015

Anmol Vachan Aur Suktiyan अनमोल वचन और सूक्तियां

  • ब्राह्मण कौन है? जो निष्पाप है, निर्मल है, निरभिमान है, संयमी है, विद्वान् है, ब्रह्मवादी है, धर्मप्राण है, वही ब्राह्मण है।
  • जो मनुष्य बदला लेना चाहता है वह अपने घाव को ताजा बनाये रखने की फिक्र करता है। जो बदला लेना नहीं चाहता, उसका घाव तुरन्त भर जाता है। 
  • दूसरों का सौभाग्य देखकर ईर्ष्या न करो। क्योंकि ऐसे अनेक व्यक्ति होंगे जो तुम्हारी श्रेणी में न पहुँचने के लिए भी दुःखी होंगे। 
  • जीवन तो वही है जो अनेकों को प्रकाश दे। प्रकाश उसी का नाम है, जिसकी चमक से अनेकों में आशा भर उठे। 
  • यदि तुम सफलता चाहते हो तो अध्यवसाय को अपना मित्र, अनुभव को अपना सलाहकार, सावधानी को भाई, और आशा को अपना अभिभावक बनाओ। 
  • अपने हृदय को आवाज की सुनी। वही परमात्मा की आवाज है और वही महामंगलकारिणी है। यह आवाज सबके हृदय में है, परन्तु सुन कर के भी उसके अनुसार चलना न चलना अपना काम है। ध्यान दो कोई बुरा काम करने को नीयत करने पर हमारा हृदय खुद बोल उठता है। यही ईश्वर का नक्कारा है। 
  • जो सुमार्ग से भटके हुए हैं, उन्हें प्यार से समझा कर राह पर लाओ। दुर्जनों के सुधार के लिए भी कोमल बात, कठोर लात से उपयोगी है।
  • क्षण भंगुर वस्तुऐं तुम्हें क्या सुख दे सकती हैं, जो स्वयं मरने जा रहा है वह तुम्हें क्या जिलावेगा। वास्तविक सुख देने वाली वस्तुऐं वह हैं जो स्वयं स्थायी और अमर हैं।
  • मनुष्य का महत्त्व उसकी ताकत, विद्या, बुद्धि या लक्ष्मी में नहीं वरन् उसका बड़प्पन ईमानदारी और परोपकार में निहित है।