Thursday, October 15, 2015

उसने कुछ नहीं खोया

आसुरी तपस्या में सिद्धियाँ का बाहुल्य होता है। आसुरी तपों का संसार में इसीलिए प्रचलन अधिक है कि उनके द्वारा तत्काल और चमत्कारिक परिणाम उपस्थित होते हैं। शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे उन्होंने अपनी उग्र तपस्या द्वारा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। इनमें सबसे बड़ी सिद्धि मृतक को जीवित कर देना था। ऋषि शुक्राचार्य किसी भी मृत पुरुष को जीवित कर देने की सामर्थ्य रखते थे। 

एक बार सुर-असुरों में घोर संग्राम हुआ। संसार में भौतिक सुख सामग्री परिमित है उसमें से सबको थोड़ा सा हिस्सा मिल सकता है। किंतु इतना संतोष है किसे? हर एक चाहता है कि मैं बड़ा वैभवशाली बनूँ दूसरे मुझसे छोटे रहें। बस सारी लड़ाइयों की यही एक जड़ है। देवता चाहते थे कि हम शासक रहें असुर चाहते थे कि हमारे हाथ में सत्ता हो। इसी बात पर घोर देवासुर संग्राम आरंभ हो गया। 

युद्ध में लड़ाके मरते ही हैं। दोनों दलों के असंख्य योद्धा हवाहत होने लगे। असुरों के जो योद्धा मरते शुक्राचार्य उन्हें मंत्र शक्ति से फिर जीवित कर देते, किन्तु देवताओं के पास इस प्रकार का कोई साधन न था। उनकी संख्या दिन-दिन घटती जा रही थी। निदान देवता घबरा गए और उन्होंने गंभीरतापूर्वक समस्या पर विचार किया-अब क्या करना चाहिए ? 

लंबे विचार विमर्श के पश्चात् निश्चय किया गया कि देव कुमार कच को शुक्राचार्य के पास वह मृत संजीवनी विद्या पड़ने भेजा जाय। शुक्राचार्य की पुत्री देव यानी कच को चाहती थी। कच वहाँ जायगा और विद्या सीखने की प्रार्थना करेगा तो देव यानी की उसे विशेष सहायता मिलेगी और काम सफल हो जाएगा। वह सुँदर षडयंत्र देवताओं के मस्तिष्क में उपज पड़ा। 

यही किया गया। कुमार ‘कच’ शुक्राचार्य के आश्रम में पहुँचा। देवयाणी जिस स्वप्न को वर्षों से देखा करती थी वह आज मूर्तिवत् सामने आ खड़ा हुआ। प्रसन्नता के मारे उसका रोम-रोम विह्वल हो गया। कुमारी ने युवक का स्वागत किया और उत्सुकता पूर्वक उसके आने का कारण पूछा। 

“तुम्हारे पिता से विद्या पढ़ने आया हूँ, देवयानी” कच ने उत्तर दिया। 

देवयानी अपने पिता के स्वभाव को समझती थी। विरोधियों के बालक को विद्या न सिखायेंगे। जिस विद्या के कारण वे असुरों के गुरु बने हुए हैं उसे विरोधी को कैसे बता देंगे ? कार्य बड़ा कठिन था। परन्तु देवयानी कच को बहुत प्रेम करती थी। उसने तय किया वह कच की पूरी मदद करेगी। कच ने भी जब देवयाणी के सम्मुख यही आशंका प्रकट की तो उसने दिलासा दी और वचन दिया कि पिता से विद्या दिलाने में शक्ति भर प्रयत्न करूंगी। 

कच आचार्य के सामने उपस्थित हुआ। उसने गुरु चरणों में शीश झुकाते हुए संजीवन विद्या सीखने की इच्छा प्रकट की। शुक्राचार्य बड़े असमंजस में पड़े। वे शत्रुओं के बालक को किस प्रकार विद्या पढ़ावें, इसमें तो उनकी हानि ही हानि थी। 

अवसर जानकर देवयानी चली आई। उसने पिता से कहा-पिता। विद्या देना ब्राह्मण का प्रथम मुख्य धर्म है। जिस प्रकार अन्य वर्ण भिक्षुक को अपने द्वारा पर से विमुख लौटा कर पाप के भागी बनते हैं उसी प्रकार अधिकारी को विद्या दान न देकर ब्राह्मण नरकगामी होता है। आप धर्म तत्व के मर्मज्ञ हैं। इसलिए स्वार्थ के कारण इस अधिकारी बालक को विद्या से विमुख मत कीजिए।

देवयानी के धर्म नीति युक्त वाक्यों से शुक्राचार्य बहुत प्रभावित हुए। वे उसका आदर करते थे। पुत्री की इच्छा देखकर वे कच को विद्या पढ़ाने के लिए सहमत हो गए। 

कच आचार्य के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करने लगा। देवयानी से उसकी घनिष्ठता बढ़ने लगी। दोनों साथ-साथ हंसते-बोलते-खेलते खाते-पीते। प्रेम दिन-दिन बढ़ने लगा दोनों एक दूसरे के बिना चैन से न रहते। 

आज मनुष्य का हर एक व्यवहार पाप दृष्टि से आरंभ होता है और उसका अन्त भी पाप में ही जाकर होता है। सभ्यता के इस आधुनिक विकास ने मनुष्य का मस्तिष्क दूषित कर दिया है। परन्तु सदा से ऐसी बात न थी। हम विनाश के जितने नजदीक पहुँचते जा रहे हैं उतने ही पाप पंक में फंस रहे हैं। यदि वह पापमयी सभ्यता पूर्व काल में ही आरंभ हो गई होती तो इंसान का आस्तित्व अब तक दुनिया से मिट गया होता। कच देवयानी में घना प्रेम था, दोनों वयस्क हो चले थे साथ-साथ रहते थे, परन्तु वह प्रेम साधारण बाल-प्रेम था। दूध जैसा शुभ्र, हिमि जैसा स्वच्छ। 

विद्या अभ्यास और आध्यात्मिक साधनाएं एक दिन में पूरी नहीं हो जाती। उसके लिए निष्ठा, एकाग्रता और बहुत काल तक निरंतर अभ्यास की जरूरत होती है। कच को शिक्षा प्राप्त करते हुए वर्षों बीत गए। 

किसी प्रकार वह समाचार असुरों को मिला। वे बड़े व्याकुल हुए, ‘शत्रु कच को भी यह विद्या मिल जाएगी तो हम उन्हें जीत न सकेंगे। यह प्रश्न उनके जीवन मरण का प्रश्न था। उन्होंने कच को मार डालना तय किया। गुप्त रूप से दूसरे ही दिन असुरों ने उसे मार डाला। कच की मृत्यु का समाचार जब गुरु के आश्रम में पहुँचा तो सब लोग बड़े दुखी हुए। आचार्य ने उन्हें धैर्य बंधाया और कच की लाश मंगाकर मंत्र से उसे जीवित कर दिया। 

असुर, गुरु को रुष्ट करने का साहस नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने प्रत्यक्ष में तो उनसे कुछ न कहा पर गुप्त रूप से अपने प्रयत्न बराबर जारी रखे। जहाँ वे मौका पाते कच का वध कर देते, गुरु उसे फिर जीवित कर देते। कई बार यह क्रम चला। अन्त में असुरों ने एक दूसरा उपाय निकाला। उन्होंने कचा को मार कर भोज्य पदार्थों में मिलाया और गुरु को निमंत्रित करके उसका भोजन करा दिया। असुर प्रसन्न थे कि अब कच का मृत शरीर बाहर तो है नहीं। पेट में से उसे निकालेंगे तो स्वयं मर जायेंगे। इसलिए अब उसका अंत हो गया। 

आश्रम में कच न पहुँचा तो फिर तलाश हुई। बहुत ढूंढ़ने पर उसकी लाश तक का कुछ पता न चला। देवयानी कच के बिना अन्न जल तक ग्रहण न कर रही थी। विद्वान गुरु को अपनी दिव्य दृष्टि से उसे ढूंढ़ना पड़ा। उन्होंने देखा कि कच का शरीर उन्हीं के पेट में परिपाक होकर रक्त माँस में मिल गया है। अब उसे जीवित किस प्रकार किया जाय ? आचार्य को अपना प्राण जाने का भय था। अब की बार मामला बहुत पेचीदा था। 

इसका हल भी देवयानी ने ही निकाला। उसने कहा पिता ! अपने पेट के अन्दर कच को जीवित करके उसे संजीवनी विद्या का अन्तिम पाठ पढ़ा दीजिए। वह आपका पेट फाड़कर निकल आवेगा तब आपको पुनः जीवित कर देगा। 

शुक्राचार्य को बात माननी पड़ी। पेट में कच को अन्तिम पाठ पढ़ाया गया। वह पेट फाड़कर बाहर निकला और गुरु को पुनः जीवित कर दिया। 

जिस कार्य के लिए कच आया हुआ था वह पूरा हो गया। जब उसने गुरु से वापिस जाने की आज्ञा चाही। देवयानी को यह पता चला तो उसका हृदय धड़कने लगा। वह अपना सर्वस्व कच पर निछावर कर चुकी थी। उसे दृष्टि से दूर नहीं होने देना चाहती थी। सच तो यह है कि देवयाणी कच के साथ विवाह बंधन में बंधना चाहती थी। वह उस पर प्राण निछावर कर चुकी थी। 

देवयानी की आंखें झलक आईं। उसने आँसू पोंछते हुए कच से कहा-अब मेरा प्रेम तुम्हें आत्म समर्पण किया चाहता है। क्या तुम मुझे स्वीकार न करोगे ?

तन्त्र विद्या की उपयोगिता

प्रकृति अनन्त शक्तियों का भंडार है। वैज्ञानिकों ने वायुयान, रेडियो, विद्युत, वाष्प आदि के अनेक आश्चर्यजनक आविष्कार किये हैं और नित्यप्रति होते जा रहे हैं। पर प्रकृति का शक्ति भंडार इतना अनन्त और अपार है कि धुरंधर वैज्ञानिक अब तक यही कह रहे हैं कि हमने उस महासागर में से अभी कुछ सीपें और घोंघे ही ढूंढ़ पाये हैं। उस अनन्त तत्व के शक्ति परमाणुओं की महान् शक्ति का उल्लेख करते हुए सर्व-मान्य वैज्ञानिक डॉक्टर टामसन कहते हैं कि एक ‘शक्ति-परमाणु’ की ताकत से लंदन जैसे तीन नगरों को भस्म किया जा सकता है। ऐसे अरबों-खरबों परमाणु एक-एक इंच जगह में घूम रहे हैं फिर समस्त ब्रह्माण्ड की शक्ति की तुलना ही क्या हो सकती है। हमारी आत्मा भी इसी चैतन्य तत्व का अंश है हमारे शरीर में भी असंख्य इलेक्ट्रस व्याप्त हैं इसलिए मानवीय शरीर और आत्मा भी अपनी अनन्त शक्ति सम्पन्न है उसे हाड़-माँस का पुतला मात्र न समझना चाहिए।

काल चक्र सदैव घूमता रहता है। उसी के अनुसार संसार की अनन्त विधाओं में से समय पाकर कोई लुप्त हो जाती है तो कोई प्रकाश में आती है। अब तक कितनी ही विधायें लुप्त और प्रकट हो चुकी हैं और आगे कितनी लुप्त और प्रकट होनी वाली हैं इसे हम नहीं जानते। आज जिस प्रकार भौतिक तत्वों के अन्वेषण से योरोप में नित्य नये वैज्ञानिक यन्त्रों का आविष्कार हो रहा है उसी प्रकार अब से कुछ सहस्राब्दियों पूर्व भारत वर्ष में आध्यात्म विद्या और ब्रह्मविद्या का बोलबाला था। उस समय योग के ऐसे साधनों का आविष्कार हुआ था जिनके द्वारा नाना प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करके साधक लोग ईश्वर का साक्षात्कार करते थे और जीवन मुक्त हो जाते थे। आज लोग अपने अज्ञान के आधार पर उन बातों की सचाई में भले ही संदेह करें पर सत्य सत्य ही रहेगा।
अब भी उस महान अध्यात्म विद्या का पूर्ण लोप नहीं हुआ है। भारतवर्ष की पुण्य भूमि में अभी असंख्य सिद्ध योगी भरे पड़े हैं और उनका विश्वास है कि भौतिक आविष्कारों की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्तियाँ करोड़ों गुनी बलवान और स्थायी हैं वे मनुष्य और समाज का कल्याण आध्यात्म उन्नति में ही समझते है, अप्रत्यक्ष उदाहरणों में धुरंधर विद्वान और महान नेता एवं विचारक योगी अरविंद की योग साधना हमारे सामने है। इस शक्ति भंडार में से एक सीप यूरोप के पण्डितों के हाथ भी लगी है। मैस्मरेजम और हिप्नोटिज्म नामक उनके दो छोटे आध्यात्मिक आविष्कार है। जिनके द्वारा, सिद्ध की आत्मशक्ति साधक में प्रवेश करके उस पर अपना पूर्ण आधिपत्य जमा लेती हैं। तब मोह निद्रा में डूबा हुआ साधक अनेक आश्चर्यजनक और गुप्त बातें बताता है। आँखों से पट्टी बाँधकर पूरी तरह से संदूक या कोठरी में बन्द कर लेने पर भी वह लोगों के मन की बात, उनके पास छिपी हुई चीजें, गुप्त बातें आदि बताता है। मोह निद्रित साधक, सिद्ध की इच्छा का पूर्ण अनुचर बन जाता है। उससे कहा जाय कि यह नीम का पत्ता पेड़े के समान मीठा है तो सचमुच उसकी बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ इस कड़ुए पत्ते को मीठा अनुभव करती हैं और वह बड़े प्रेम से उन्हें खाता है। इस विधि से वे सिद्ध, रोगियों की चिकित्सा भी करते हैं। अब से दो शताब्दी पूर्व जब सुँघा कर बेहोश करने की ‘क्लोरोफार्म’ नामक दवा का आविष्कार नहीं हुआ था तब पश्चिमोय डॉक्टर मैस्मरेजम की विधि से ही रोगी के पीड़ित स्थान को संज्ञा शून्य करके तब आपरेशन करते थे। कलकत्ता के बड़े अस्पताल में एक प्रसिद्ध डॉक्टर ने मैस्मरेजम के तरीके से ही कई सो रोगियों को या उनके पीड़ित स्थान को बेहोश करके बड़े-बड़े आपरेशन किये थे। यह यह ध्यान रखना चाहिए कि मैस्मरेजम योग महासागर की एक बिन्दु मात्र है।
प्राचीन काल में योग को शक्तियों द्वारा संसार की बड़ी सेवा की गई थी। अनेक योगी, दुखियों के दुख निवारण में ही अपना जीवन लगा देते थे। महाप्रभु ईसा मसीह ने जीवन भर अपनी आत्मशक्ति के बल से दुखियों के दुख दूर किये। उन्होंने बीमारी को रोग मुक्त किया। अन्धों की आँखें दी, कोढ़ियों के शरीर शुद्ध कर दिये, लोगों की आत्मा से चिपटे हुए दुष्वृत्तियों के भूतों को छुड़ाया, जो अशांति और नाना प्रकार के दुखों से चिल्ला रहे थे उनको सुख और शाँति प्रदान की। अन्त में उस महात्मा ने दूसरों के दुख और पापों को अपने ऊपर ओढ़ कर उनको भार मुक्त कर दिया। भारतवर्ष में शंकर, अश्विनी कुमार, धन्वंतरि, गोरखनाथ, सत्येन्द्रनाथ, नागार्जुन, चरक आदि के बारे में ऐसी कथाएं मिलती हैं जिनसे प्रतीत होता है कि जीवन भर वे लोगों के दुख दूर करने में ही लगे रहे। दुर्भाग्य वश उस समय के महात्माओं में भी दो दल हो गये। एक दल ईश्वर प्राप्ति के कार्य को ही अपना लक्ष्य मानता था दूसरा जन-दुख निवारक का भी समर्थक था। यह मतभेद बहुत बढ़ा और जन-दुख निवारकों की शक्ति पूजक, शक्ति, तान्त्रिक संज्ञा बनाकर उनको अपनी श्रेणी से अलग कर दिया गया। तान्त्रिक या शक्ति अपने आरंभ काल में परमत्व की आराधना से शक्ति प्राप्त करने और उसके द्वारा सिद्धि प्राप्त करके जनता के शारीरिक एवं मानसिक दुखों को दूर करते थे। समय के परिवर्तन के साथ इस महान विज्ञान का भी दुर्दिन आया। महासिद्ध नागार्जुन के अवसान के बाद तंत्र विद्या कुपात्रों के हाथ में चली गई और उन्होंने उसका रावण की भाँति दुरुपयोग प्रारंभ कर दिया। मारण, मोहन, उद्घाटन, वशीकरण आदि का प्रयोग अपनी इन्द्रियों के सुख या धन लालसा के लिए किया जाने लगा। जिस तलवार से दस्युओं और हिंसक पशुओं का मुकाबला किया जाता है उसी से अबोध शिशुओं, ब्राह्मणों और गायों की गर्दनें भी काटी जा सकती हैं। परन्तु ईश्वर के यहाँ सुव्यवस्था है। उसने जालिम की उम्र थोड़ी रख छोड़ी है। अवश्यंभावी परिणाम के अनुसार तान्त्रिक नष्ट हो गये। जनता में उनके कार्य के विरुद्ध तीव्र घृणा फैल गई। वाममार्गी और तान्त्रिक, हिंसक पशु समझे जाने लगे। अन्त में तंत्र विद्या का वैज्ञानिक और उच्च कोटि का स्वरूप लुप्त हो गया। यवन राज्य में तन्त्र शास्त्र के हजार महान प्रबन्धों को जला डाला गया। इस प्रकार इस महाविद्या का दुखद अन्त हुआ।
चूँकि तन्त्र विद्या की उपयोगिता और उसके आश्चर्य-जनक लोभों की जनता कायल थी इसलिए उनकी वैज्ञानिकता और उच्च साधन का अभाव हो जाने पर भी अधूरे तान्त्रिक बने रहे और अपनी सामर्थ्य के अनुसार लोगों का हित करते रहे। इतना समय बीत जाने के बाद जो लंगड़ी, लूली तंत्र विद्या बच रही है वह भी अच्छे से अच्छे वैज्ञानिक को अचम्भे में डालने के लिए पर्याप्त है। अभी भी ताँत्रिक लोग, जहरीले साँपों के काटे हुए आदमी को मन्त्र द्वारा अच्छा कर देते हैं। उस साँप को मन्त्रबल से बुलाकर काटे हुए स्थान से जहर चुसवाते हैं, बिच्छू आदि का जहर उतारते हैं, वृक्षों की टहनी या मोरपंख की झाडू लगाकर फोड़ों को अच्छा करते हैं, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण अब भी होते हैं। भूत, प्रेतों के ऐसे आक्रमण जिन्हें देखकर डॉक्टर लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते है, ताँत्रिक ही ठीक करते हैं। वैज्ञानिक लोग तन्त्र विद्या द्वारा दिया हुआ मन्त्र (सजेशन) साधक के अन्तरमन (सब कॉन्शसनेस) में गहरा चला जाता है और वहाँ जाकर ऐसी विद्युत शक्ति उत्पन्न करता है जिससे साधक या रोगी का मन एवं शरीर उसी के अनुसार कार्य करने लगता है। फलस्वरूप इच्छित लाभ प्राप्त हो जाता है। एक और वैज्ञानिक डॉक्टर जिन्होंने मनुष्य शरीर की बिजली का अनुसंधान किया है, इस विषय पर और अधिक प्रकाश डाला है उनका कथन है कि मनुष्य शरीर से एक प्रकार का तेज निकल कर आकाश में प्रवाहित होता है। यह तज अपनी इच्छानुसार ऐसा बनाया जा सकता है जिससे निश्चित व्यक्तियों को हानि या लाभ पहुँचाया जा सके। एक अन्य वैज्ञानिक डॉक्टर फ्रेडन का कहना है कि मनुष्य के सुदृढ़ संकल्प संयुक्त विचार ईथर तत्व में मिलकर क्षण भर में निश्चित व्यक्ति तक पहुँचते है और उसका हित अनहित करते है। सामूहिक प्रार्थना इसलिए की जाती है कि वह अधिक शक्तिशाली होकर अधिक असर दिखा सके। विद्वानों का कहना है कि तान्त्रिकों के मंत्र से उत्पन्न हुए कम्पन तथा तत्सम्बन्धी उपचार क्रियाओं की लहरें मिलकर बहुत शक्तिशाली हो जाती हैं और जो लोग उन्हें ग्रहण करते हैं उन पर आश्चर्यजनक चमत्कार दिखाती है। विद्वानों की बात छोड़िये हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं कि अपने दूरस्थ प्रियजनों में से किसी की मृत्यु या हानि होने पर हमें दुःस्वप्न आते है और अनिष्ट की आशंका से मन काँप उठता हैं। कई बार तो अचानक जागृत और स्वप्न की अवस्था में ऐसी आशंकाएं उठ खड़ी होती हैं कि अमुक व्यक्ति का अमुक अनिष्ट हो गया और कुछ देर बाद सचमुच वह बात सत्य होने का समाचार मिलता है। दूरस्थ पुत्र पर दुख आने पर माता के स्तन से दूध उमड़ने लगता है। पति का अनिष्ट होने पर स्त्री के अंग टूटने लगते हैं। प्रेमी जब अपनी प्रेमिका के लिए विरह में तड़पता है तब उसी समय दूरस्थ प्रेमिका भी व्याकुल हो उठती है। यह सब उस महान सत्य की अनुभूतियाँ मात्र हैं। जिसके आधार पर तन्त्र शास्त्र स्थित है और रेडियो या टेलीविजन का आविष्कार हुआ है। शक्तिशाली और एकाग्र मन द्वारा निश्चित रूप से दूसरों के लिए-सुख दुख की लहरें भेज सकते हैं। हाँ उनसे लाभ उठाना साधक की इच्छा पर निर्भर है। जब शक्ति के साथ ब्रॉडकास्ट की हुई आकाशवाणी को तब तक ठीक तरह नहीं सुना जा सकता जब तक आपका रेडियो दोष रहित न हो।
इस महाविज्ञान से लाभ उठाने की एक शर्त है वह है-साधन में अटूट श्रद्धा और विश्वास का होना। बिना इसके लाभ नहीं मिल सकता। मोती लेने के लिए समुद्र में गहरा घुसना पड़ेगा, शकर का मधुर स्वाद चखने के लिए ईख बोनी पड़ेगी, पेट भरने के लिए मुँह चलाना पड़ेगा। जो सज्जन श्रद्धा और विश्वास स्थिर नहीं रख सकते वे इधर कदम बढ़ाने का व्यर्थ प्रयत्न न करें। अपने टूटे हुए रेडियो सैट पर आप विशुद्ध ब्रॉडकास्ट को नहीं सुन पायेंगे। जो लोग तन्त्र विज्ञान पर विश्वास नहीं करते वे इसकी परीक्षा कर देखें। हमारे अनुभव में ऐसे बीसियों कट्टर अविश्वासी आये हैं जो इसे ढोंग, अन्धविश्वास और मूर्खता कहकर मजाक उड़ाते थे। पर जब उन्होंने कुछ दिन अभ्यास किया तो तन्त्र विद्या के प्रत्यक्ष लाभों को देखकर उसके अनन्य भक्त बन गये। हमारा कहना इतना ही है कि आज भी सज्जन अविश्वास करते हों, वे इसकी परीक्षा करें।

शक्ति-वर्द्धक धनुरासन

इस आसन में पहिले उलटे हो जाओ। फिर फेफड़े में यथेच्छ श्वाँस भर लो फिर दोनों पाँव के पीछे के भाग को पकड़ कर साथल का भाग तथा नाभी के ऊपर का भाग जमीन से ऊपर उठाओ। सिर और पैर जितने ऊपर उठें उतना उत्तम, जमीन पर सिर्फ पेट का ही भाग रहना चाहिए।

जितने समय श्वास रोक सको उतने समय तक सिर व पैर ऊपर अधर रखें और जब श्वांस रोके रखना असंभव प्रतीत मालूम पड़े तब सिर और पैर जमीन पर रखने के बाद दोनों नथुनों से श्वांस धीरे-धीरे बाहर निकालो। शुरू में अभ्यास करने वाले को फेफड़े में आधा श्वांस भरना चाहिए और चार पाँच दिन तक आजमाने के बाद पूरा श्वांस भरने में हर्ज नहीं। फेफड़ा कमजोर हो तो पहिले पूरा श्वांस भरने में जरा दर्द होता है।
आसन का परिमाण पहिले-दस दिन तक सुबह शाम चार बार। दस से अठारह दिन तक छह बार। अठारह से पच्चीस दिन तक आठ बार। और बाद में शक्ति अनुसार आठ से बारह बार यह आसन करना चाहिए।
इस आसन से फायदा
  1. फेफड़ा मजबूत और चौड़ा होता है। कब्जियत मिटती है। गला, छाती तथा हाथ, पाँव मजबूत होते हैं। स्त्रियों का कमर का दुखना इस आसन से खास तौर से मिट जाता है। अपान वायु छूटता है नाभी खिसक गई हो तो यह आसन दो तीन बार करने से बैठ जाती है। भूख लगती है। हाथ पाँव के स्नायुओं में शक्ति आती है। कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत करने की तैयारी करती है छोटी और बड़ी आंतें रोगों से निर्मल होती हैं। खून शुद्ध बनता है। मन प्रफुल्लित रहता है। वृक्क तथा मूत्राशय के रोग नाबूद होते हैं। माँस पेशियाँ सशक्त बनती हैं। मूलाधार चक्र , स्वाधिष्ठानचक्र, मनीपूर चक्र, अनाहत चक्र तथा विशुद्ध चक्र शुद्ध होता है।
  2. गर्भवती, मासिक धर्म, तथा प्रसूति होने के बाद चालीस दिन तक स्त्रियों के गुप्त रोग जैसे शिश्नेन्द्रिय के साथ सम्बन्ध रखने वाले, बुखार वाले को यह आसन शुरू करने के पहिले किसी शरीर रचना के अभ्यासी से शरीर की जाँच करा लें अथवा इन दशाओं में उक्त आसन से हानि की संभावना हो सकती है। आहार सात्विक और जल्दी पच जाए ऐसा लेना चाहिए। 10 वर्ष की उम्र वाले स्त्री पुरुष से 100 वर्ष की उम्र वाले स्त्री-पुरुष यह आसन कर सकते हैं और इसका यथेच्छ लाभ ले सकते हैं।

मैं परलोकवादी कैसे बना

अंग्रेजी में एक कहावत है, कि बुराई से कभी-कभी भलाई हो जाती है। इस कहावत का अनुभव अनेक प्रकार से हुआ करता है। कुछ वर्ष पहिले मेरे जीवन में एक ऐसी अद्भुत घटना घटी, जिससे मेरे विचारों में एक विलक्षण परिवर्तन हो गया। 

यदि इस संसार में देखा जाय तो प्रति क्षण यहाँ अनेक देहधारी मरा करते हैं। कवि कालीदास के कथनानुसार ‘मृत्यु शरीर धारियों के लिए प्रकृति है और जीवन विकृति है।” इस कथन की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट होना चाहिए किन्तु उनका ध्यान आकृष्ट नहीं होता, यही शोचनीय बात है। 

कई वर्ष हुए कि मेरी पूर्व पत्नी सुभद्रा बाई के पेट में एक भयंकर रोग उत्पन्न हुआ। इस रोग को दूर करने के लिए सारे उपाय कर लिये गये, किन्तु कोई फल नहीं हुआ। अन्त में यह रोग प्राणघातक सिद्ध हुआ। उसकी मृत्यु के समय जो डॉक्टर आया था, उससे मैंने पूछा- ‘क्यों, डॉक्टर साहब! क्या यह जा रही है ? मुझे पूछना तो वह था क्या यह मर रही है, किन्तु मैंने यह न पूछ कर केवल यही पूछा कि क्या यह जा रही है। ऐसे अवसरों पर लोग पूछा करते है-क्या यह मर रहा है या मर रही है ? उस समय मुझे यह आशा अथवा विश्वास नहीं था, कि मेरे यह शब्द इतने महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे। परंतु इस घटना के बाद जो अनुभव प्राप्त हुए, उनसे यह सिद्ध हो गया कि मेरी प्रिय पत्नी मरने के समय यह सब बातें सुन रही थी और उन्हें समझ भी रही थी। उसने मुझ से कहा-आप मरने के बाद भी मेरा पीछा नहीं छोड़ेंगे और मैं जहाँ जाऊंगी, वहाँ मुझे सुख से नहीं रहने दोगे।’ वास्तव में उसके यह वाक्य सत्य निकले। उसकी मृत्यु इतनी जल्दी हो जायेगी, इसकी मुझे स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी। किन्तु ईश्वर के नियम गहन है। मेरी प्रिय पत्नी ईश्वरीय नियम के अनुसार आपरेशन करने के बाद परलोकगत हुई। 

इस दर्शन को पढ़कर संभव है, कुछ पाठक कहें कि क्या केवल आपकी ही पत्नी ऐसे मरी है ? दूसरे लोग जिनके कि पत्नियाँ आज इस संसार में नहीं है, क्या उन्हें अपनी पत्नी से प्रेम न था ? प्रिय पाठक वृन्द ! आपका यह कहना बिल्कुल ठीक है। मेरी भाँति अन्य कितने ही लोगों को भी अपनी पत्नी के मरने का दारुण दुख सहना करना पड़ा होगा। इस अनन्त ब्रह्माण्ड में न मालूम कितनी स्त्रियाँ मर गई होंगी और उनके पति का उनके प्रति अवश्य ही प्रेम रहा होगा। परन्तु मैंने ऊपर जिस घटना का वर्णन किया है। उसमें एक विशेषता है, यह बात आगे के लेखों में स्पष्ट हो जाएगी। परलोक जाने के बाद शायद ही किसी स्त्री ने अपनी स्थिति का परलोक का तथा अन्य उपयोगी बातों का वर्णन किया हो। मृत्यु के बाद शायद ही किसी स्त्री ने अपना अस्तित्व सिद्ध कर अपने पति को सान्त्वना दी हो। जो बात पहले कल्पनातीत समझी जाती थी और जो उस स्त्री की मृत्यु से सिद्ध हो गई है, उसके जीवन की अन्तिम घटना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जिसकी मृत्यु के बाद मानवी जीवन की अविच्छिन्न शृंखला स्थापित हो गई है और जिसके कारण से मृत्यु के बाद भी जीवन है, यह आँदोलन दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है, जिसे परलोक गमन से मानवी विचारधारा में एक युगान्तर उपस्थित हो गया है, उसके परलोक गमन के पूर्व का वृत्तांत जान लेना आवश्यक है। इसलिए यह ऊपर बताया गया है। 

परलोक द्वारा वार्तालाप करने वाले तथा नास्तिकों के विचार में परिवर्तन करने वाले सर ओलीवर लाज के पुत्र रेमण्ड एक सामान्य इंजीनियर थे, उसी भाँति मेरी पत्नी भी अंग्रेजी पढ़ी-लिखी न थी। किंतु उसने एक अपूर्व ज्ञान का परिचय दिया, इसलिए उसका परिचय देना अत्यंत आवश्यक है। उसकी गुण राशि और धर्मपरायणता आदर्श थी। किन्तु उसके गुणों का यहाँ वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। केवल यहाँ इतना ही लिख देना पर्याप्त है कि उसकी मृत्यु अल्पावस्था में ही हो गई थी। यह बात एक अंग्रेजी कहावत को सिद्ध करती है-’ईश्वर जिस पर अधिक प्रेम करता है, उसे अपने पास शीघ्र बुला लेता है।’ 

इस लेख माला के लेख पढ़ने के बाद पाठक बंधु शायद यह प्रश्न करेंगे, कि क्या हमें भी इस सत्य का अनुसंधान करने में लग जाए। ऐसे प्रश्न करने वालों से मेरा केवल इतना ही कथन है, कि मेरा यह मतलब नहीं है, कि आप अपना काम-धाम छोड़कर केवल इसी की खोज में लग जायें। परन्तु इतना तो मैं अवश्य ही कहूँगा कि जिस प्रकार आप अन्य वैज्ञानिक बातों पर विश्वास करते हैं, उस भाँति मरने के बाद भी जीवन है इस सिद्धाँत को भी सत्य मानें। विज्ञान के सब सिद्धाँतों के प्रयोग कोई स्वयं करके विश्वास नहीं करता अथवा आकाश के जितने नक्षत्र हैं, उन्हें सब लोग दूरबीन से देखकर ही विश्वास नहीं करते। अन्य लोगों ने इनका अनुभव किया है, उन्हीं के अनुभव पर आस्था रखकर हम विश्वास करते हैं। इसी प्रकार इस विषय में भी लोगों को पूर्ण विश्वास करना चाहिए। भारतवर्ष के लिए परलोक का विचार कोई नई बात नहीं है। किन्तु यह कहा जा सकता है कि भारतवर्ष ही इस सिद्धाँत का जन्म देने वाला है। 

पत्नी के परलोक बास के बाद जिस भाँति अन्य लोगों को दूसरे लोग आकर आश्वासन दिया करते हैं, उसी भाँति मुझे भी लोगों ने आकर आश्वासन देना आरंभ किया। ऐसे अवसरों पर यह कहा जाता है। ‘यह संसार अनित्य है, इसमें कोई अमर होकर नहीं आया है समय व्यतीत हो जाने पर मृत्यु अवश्य आती है, इसलिए मरे हुए व्यक्ति के लिए शोक करना अथवा उसे बारबार स्मरण करना अनावश्यक है। संसार की गति को देखकर अब अपना काम करना चाहिए और जो मर गये वह अब क्या वापिस तो नहीं आ जायेंगे।’ रघुवंश में इन्दुमती की मृत्यु हो जाने के बाद कवि कालीदास लिखते हैं- ‘राजन्! भवतानानु मृर्तोपि सा सभ्यते’ अर्थात् यदि कोई आदमी स्वयं भी कर जाय तो मरे हुए आदमी से उसकी भेंट नहीं हो सकती। पुंडरीक की अकस्मात मृत्यु के बाद महाश्वेता ने देह त्याग करने का निश्चय किया था, उस समय कवि बाणभट्ट ने लिखा है, यह मार्ग अज्ञानता का द्योतक तथा मूर्खतापूर्ण है। कारण कि प्राणी अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न लोगों में भ्रमण करता है, उसके साथ फिर मिल सकना असंभव है। वेदान्तियों का कथन है कि जिस भाँति सागर का जल बिन्दु सागर में पुनः मिल जाता है, और बाद में उसका पता नहीं लगता, उसी भाँति मनुष्य के विशिष्ट गुण अस्तित्व में नहीं रहते, अर्थात् वह ब्रह्मांड सागर में जल बिन्दु के समान लीन हो जाता है। उसका पुनः दर्शन नहीं होता। 

साराँश यह है कि इस प्रकार के उपदेशों से मेरा मन शाँत न हो सका। मेरे हृदय में यह उत्कट इच्छा उत्पन्न हुई, कि जिसके साथ जीवन के इतने दिन सुख-दुख में व्यतीत किये, जो मेरे सुख-दुख की साथी थी, जिसने कितने ही वर्षों तक शरीर व्याधि सहा। जिसने आपरेशन कराने का स्वयं आग्रह किया था जिसे परलोक जाने की अत्यन्त अभिलाषा थी उस व्यक्ति के पास क्या पुनः वार्तालाप कर सकना असंभव है ? आरंभ में इतना ही जानने की मेरी इच्छा थी, कि वह सुख में है या दुख में ? कारण कि उसका जीवन अत्यंत कष्ट में व्यतीत हुआ था। उसके गुण का विकास होने का अवसर ही नहीं मिला। इसलिए वह लुप्त हो गये। यह समझ लिया गया था कि उसमें कोई गुण ही नहीं थे, किन्तु यह बड़ी भूल थी। इस गुण के विकास की स्वल्प इच्छा की पूर्ति का भी कोई साधन नहीं था। किन्तु जिन लोगों ने इसे सुना वह हंसने लगे। और मेरी इच्छा को मूर्खतापूर्ण बताने लगे।

उषाःपान की सरल विधि

उषाःपान अजीर्ण दूर करने के लिये कितना उपयोगी है। लेकिन उसका प्रयोग किस तरह किस- किस रोग में करना अथवा नहीं करना चाहिये- इन पंक्तियों में उस पर थोड़ा प्रकाश डालने की कोशिश करूंगा। पानी जीवन के लिये कितना आवश्यक पदार्थ है इसके विषय में कुछ भी कहना व्यर्थ है। संसार में इसके बिना कोई भी जीव, जड़ अथवा चेतन अपने जीवन को स्थिर नहीं रख सकता।

उषाःपान में कैसा जल प्रयोग हो? यों तो सदा ही शुद्ध एवं स्वच्छ जल काम में लाना चाहिये, किन्तु उषाःपान में खास तौर से जल की शुद्धता एवं निर्मलता की आवश्यकता है। इसमें किसी प्रकार की लापरवाही न होनी चाहिये। चाहे जल स्वच्छ ही हो, लेकिन फिर भी उसे किसी स्वच्छ वस्त्र से साफ बर्तन में छान लेना चाहिये। इसके लिये हमेशा शीतल एवं बासी जल की व्यवस्था होनी चाहिये। इसके मानी यह नहीं कि जल को बरफ से शीतल किया जाय अथवा कई दिन का बासी पानी प्रयोग में लाया जाय। एक शुद्ध घड़े में इस कार्य के लिये सुव्यवस्थित, यानी ढँक- छान कर खुली हवा में जल रख लेना चाहिये। प्रभात में सूर्योदय से कम से कम आधा घण्टे और अधिक से अधिक दो घण्टे पूर्व इस क्रिया को करना चाहिये। बिस्तर छोड़ने के उपरान्त फौरन ही इस क्रिया को करना ठीक नहीं। बिस्तर से उठने के बाद कुछ देर घूमकर दो, तीन बार गहरी श्वास लेकर हाथ, मुँह धोकर खूब गरारे करने चाहिये। इसके बाद नासिका द्वारा धीरे- धीरे जल पीना चाहिये और दो बार उसे जोर के साथ बाहर निकाल देना चाहिये, पर विश्वास हो जाने पर कि अब नासिका में किसी प्रकार की अशुद्धता नहीं रही, पुनः नासिका द्वारा जल पीना चाहिये, पहले पहल पाव छँटांक जल से अधिक नहीं पीना चाहिये बाद में अभ्यास द्वारा पाव भर तक जल पिया जा सकता है। सर्व प्रथम नासिका द्वारा जल पीने में कुछ कष्ट होता है, मस्तिष्क एवं नासिका की नलिकाओं में कुछ चींटी काटने जैसी पीड़ा होती है, किन्तु तीन चार दिन के अभ्यास के बाद वह शनैः शनैः दूर होने लगती हैं, फिर तो तनिक भी कष्ट नहीं होता।

नासिका से उषाःपान करने के उपरान्त मुख द्वारा जल पीना चाहिये, जिसकी मात्रा आध सेर से किसी भी हालत में अधिक न होनी चाहिये। हाँ यदि अजीर्ण हो तो एक सेर तक भी पीया जा सकता है। नासिका से पानी पीते समय श्वांस द्वारा खींचना नहीं चाहिये वरन् धीरे- धीरे पीना चाहिये। सर्व प्रथम नाक से पानी पीते समय दो तीन बार नाक से पीकर मुँह से कुल्ला कर देना चाहिये ताकि किसी प्रकार की गन्दगी मुँह द्वारा पेट में पहुँच कर विकार न पैदा कर दे। मुँह से पानी पीते समय जितनी कम श्वांस ली जावें उतनी ही लाभप्रद होती हैं। उषाःपान सदैव शैचादि से निवृत्त होने के पूर्व करना चाहिये। यदि नासिका द्वारा जल पीने में कष्ट मालूम हो, तो मुख द्वारा ही पिया जाय। मुख द्वारा पीने के उपरान्त यदि हो सके तो पुनः नासिका द्वारा पीने का प्रयत्न करना अच्छा है।

उषाःपान से लाभ-
अजीर्ण दूर होकर शौच बिल्कुल साफ होता है। पेट की गुड़ गुड़ाहट एवं फूलना बन्द हो जाता है। रक्त शुद्ध बनता है, मस्तिष्क शक्तिशाली तथा दृष्टि तीव्र होती है। शरीर में एक प्रकार की अद्भुत शक्ति पैदा होती है शरीर का रंग निखर जाता है। उषाःपान करने के दूसरे दिन ही भूख खूब लगने लगती है। स्वप्र दोष तथा अन्य वीर्य दोषों में आश्चर्यजनक लाभ होता है, कितने ही प्रमेह एवं स्वप्र दोष ग्रस्त रोगी नियमित रूप से उषाःपान करने से रोगमुक्त होते देखे गये हैं। रक्त विकार में भी आशातीत लाभ होता है। बाल सफेद होना रूक जाता है।

अतृप्त तृष्णा

संसार की उत्तम वस्तुऐं पाने के लिए निरन्तर कामना रहती है। पर इच्छानुसार वस्तु न मिलने पर विवश हो जाता पड़ता है। दुख से हृदय जलता है, द्वेष की चिनगारियाँ उठती हैं, चारों ओर विरह का धुआँ छा जाता है और अन्त में कष्टमय तृष्णा ही हाथ रहती है। आप भी इसका अनुमान लगाते होंगे। अतः इस स्थिति से मुक्त होने की उपाय करे। आइये, आज हम और आप मिलकर इस कामना का सदा के लिये त्याग करे और दुनियाँ की मन लुभाने वाली वस्तुओं के चक्कर में न आकर अपने पथ पर अटल रहें। संसार का कोई भी प्रलोभन हमें विचलित न कर सके। क्या आप ऐसा संकल्प करने के लिए तैयार हैं?
प्रेमियों के विपरीत हो जाने पर वियोग का कितना कष्ट होता है? इसे आप जानते ही होंगे। मिलन पर कितना हर्ष होता है? इसका भी आपको अनुभव होगा। इन दोनों परिस्थितियों में कौन सी परिस्थिति उत्तम है? इसका निर्णय आपका हृदय कर डाले तो अशान्ति दूर हो सकती है।
कोई धनवान होने की लालसा में मतवाले हैं। किसी को मान पाने की लगन है। कोई महलों तथा ऊँची- ऊँची अट्टालिकाओं के निर्माण और उनकी सजावट में व्यस्त हैं। कोई अपने चरित्र- चमत्कार से संसार को आश्चर्य चकित कर देना चाहते हैं। इनके अतिरिक्त और भी बहुत से अपनी- अपनी इच्छानुकूल वातावरण बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। इन सबसे पूछा जाय कि आपको अपनी इच्छित वस्तु मिल जाने पर क्या फिर किसी बात की आवश्यकता शेष रह जायेगी? तो क्या उत्तर मिलेगा? संतोष और आत्म तृप्ति को प्राप्त किये बिना क्या तृष्णा और कामना की दावानल किसी प्रकार बुझ सकती है?

विवाह का उद्देश्य

भारतवर्ष के प्राचीन ऋषियों ने इस अहंभाव का प्रसार बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के उत्कृष्ट उपाय दिखाये हैं। उन्हीं में से एक उपाय विवाह संस्कार है। विवाह का उद्देश्य वही अहं (मैं) का प्रसार है। पाठक एकाग्रचित्त से विचार करें कि विवाह विधान किस लिये हुआ है। अन्यान्य धर्मों में विवाह अवश्य कर्त्तव्य कर्मों में नहीं है। समाज शृंखला साधन के लिए सामाजिक युक्ति मात्र है। किन्तु गृहस्थ हिन्दु के पक्ष में विवाह एक अवश्य कर्तव्य कर्म और सर्व प्रधान संसार धर्म है। प्राचीन ऋषियों की जीवनी पढ़ने पर आप देखेंगे कि व्यास वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, याज्ञवल्क्य आदि महापुरुषों ने विवाह किये थे। वेद पढ़ने पर आप देखेंगे कि ऋषियों के पुत्र, पौत्रादि ने भी अपने पूर्व पुरुषों की भाँति आध्यात्मिक सामर्थ्य के प्रभाव से ऋषि पद पर अधिकार किया था। हिन्दू मात्र का विवाह एक विशेष धर्मानुष्ठान है।
 अविद्या के कारण मनुष्य अहंकार व ‘अहंभाव’ से परिपूर्ण है, मैं के सिवाय और कुछ विचारते ही नहीं। जिसमें ‘मैं’ देखते या जिसको ‘मैं’ जानते हैं, उसी में प्रीति करते हैं। ‘मैं’ के सिवाय और किसी में भी प्रीति नहीं है। शिक्षा अधिकार भेद से होती है। बिलकुल धनवान को एकदम अति उच्च ब्रह्म ज्ञान नहीं दिया जाता, ऐसा ज्ञान दिया जाए तो वह कुछ भी नहीं समझ सकता जिस स्थान में पहले था वहीं रह जाता है। अतएव इसको शनैः-शनि उस दिशा में ले आते हैं। अब विचारपूर्वक देखिए। विवाह करने से स्त्री मिलेगी, इन्द्रिय परिचर्या होगी, साँसारिक अनेक प्रकार की सुविधा होगी, पुत्र-पौत्र सहित आनन्द से समय व्यतीत करेंगे, इत्यादि अनेक आशायें विवाह के पूर्णकाल से ही मनुष्य के मन उठती हैं। विवाह हुआ कुछ दिन बाद पूर्व का वह सुख स्वप्न दूर हो गया। बड़ी आपदा ! जब अकेला था तब अच्छा था, आज मद्रास, कल बम्बई, परसों लाहौर, फिर काश्मीर, फिर तिब्बत, इत्यादि जगह- जगह मनमानी सैर करता था। अकेला पेट चाहे जैसे भर लेता था, कुछ श्रम करें या न करें दिन कट जाता था। अब वह विपद है कि सवेरे से रात के दोपहर तक खटते हैं विश्राम नहीं मिलता तब सुख कहाँ ? स्त्री बीमार रहती है, आप इतना श्रम करता हूँ फिर उसकी शुश्रूषा। क्रम से लड़के-लड़की हुये, उनका पढ़ाने-लिखाने और विवाह आदि का खर्च गले पड़ा। उनके सुख-दुख बीमारी आदि ने आच्छन्न कर डाला। अब देखिये कि विवाहित पुरुष अपने सुख की कुछ भी चिन्ता न करके, किस तरह पुत्र परिवार का पालन करूं किस तरह उनको सुख हो, कैसे वह सुशिक्षित हों किस तरह निरोग रहें, किस तरह कन्या का उत्तम सुयोग्य वर के साथ विवाह करूंगा, इत्यादि चिन्ताओं में अपना सुख भूल गया, विवाह का उद्देश्य भी सिद्ध हो गया।

विवाह का उद्देश्य आत्म-सुख नहीं है बल्कि विवाह का उद्देश्य है ‘अहंभाव’ का व आत्म प्रसार विवाह का उद्देश्य अपनी संकुचित ‘मैं’ को प्रसारित करके धीरे-धीरे दूसरों की ‘मैं’ में मिला देना। अविद्या ग्रस्त मनुष्य क्या एकदम अपरिचित व्यक्ति में अपना ‘मैं’ त्याग कर सकता है ? कभी नहीं, इसलिए विवाह का विधान है। ज्यों ही विवाह हुआ त्यों ही आपका मैं, जो केवल तुम्हें था दूसरे एक मनुष्य में जाकर फैल गया। और एक जन के सुख-दुख के साथ आपका सुख-दुख मिल गया जो एक में सीमाबद्ध था वह दो में हो गया, क्रम से बहुत से परिवार में फैल गया। आप अपने ‘मैं’ को छोड़ अन्ततः और एक जन के ‘मैं’ को अपना ‘मैं’ मानने लगे। अहंभाव (मेरेपन) की सीमा खूब बढ़ चली। अब केवल आप ही अच्छे कपड़े पहनने से काम नहीं चलेगा, स्त्री को भी कपड़े लेने होंगे, केवल आप घड़ी की चैन लटकाने से अच्छे नहीं लगेंगे, बल्कि स्त्री को भी जेवर पहनाना होगा, केवल अपनी ही चिकित्सा कराने से निश्चित न होंगे बल्कि बीमार स्त्री की भी चिकित्सा और शुश्रूषा आवश्यक होगी। अब आपका असंयत ‘मैं’ विस्तृत हुआ। आपने अपनी देह के अतिरिक्त स्त्री की देह को भी अपना जानना आरंभ कर दिया। किस काल्पनिक सुख की आशा से आपने विवाह किया था, देखते हैं कि वह अब कुछ नहीं है। आपका चित्त सुखी और हृदय उदार होने लगा, आप स्वार्थ त्याग करना सीखें, आपका मेरापन दिन-दिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला की तरह बढ़ने लगा। जब विवाह नहीं हुआ था। तब तुम जो कमाते थे वह सब अपने सुख पर खर्च कर डालते थे। जब विवाह हो गया तब आपको भविष्य की चिन्ता आरंभ हुई और एक प्राणी का समस्त भार ग्रहण करके उसका दायित्व समझने लगे। विवाह का उद्देश्य सिद्ध हो गया। 

क्रम से पुत्र कन्यादि उत्पन्न हुए तब आपका यह दायित्व ज्ञान और भी बढ़ने लगा। पहले आपका एक मैं था, अब अनेक मैं हो गया। खुद नहीं खाते-पहनते पर बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में खर्च करने लगे। बहुत सा रुपया खर्च कर कन्या का सुपात्र के साथ विवाह किया अब आपके पुत्र, पौत्र, दौहित्र आदि अनेक मैं हो गये। अब आपको उस पुराने खास ‘मैं’ की कुछ चिन्ता नहीं रही-बल्कि और जो अनेक मैं अपने बना लिये है उनकी चिन्ता होने लगी, क्यों ऐसा ही हुआ न ? आपके विवाह से इस तरह आपके मैं का विस्तार हुआ।

परन्तु यदि आप शुकदेव या शंकराचार्य की भाँति विवेकी पुरुष हैं तब आपके विवाह की कुछ आवश्यकता नहीं क्योंकि जिस उद्देश्य से विवाह किया जाता है वह पहले ही आप प्राप्त कर चुके हैं। आपने यदि विवाह के पूर्व ही विश्व को ‘मैं’ रूप जानना सीख लिया है तो फिर विवाह आपको क्या सिखायेगा।

जब आपने जगत को मित्र भाव से देखना आरंभ किया है तब फिर विवाह आपको और क्या शिक्षा देगा? वेद को जानने वाला मनुष्य फिर वर्णमाला (क-ख) क्यों पड़ेगा? सनातन शास्त्र ने भी ऐसे लोगों के लिए विवाह अनावश्यक लिखा है। गुरुगृह में ब्रह्मचर्यावस्था में ही यदि आत्मज्ञान अथवा ‘मैं’ का पूर्ण विकास या प्रसार हो जाय तो फिर विवाह की आवश्यकता नहीं रहती तब फिर संबंध स्थापन पूर्वक मैं के प्रसार की आवश्यकता नहीं रही। यदि ब्रह्मचर्य अवस्था में ऐसा प्रसार न हो तो ब्रह्मचर्य पूरा होने पर विवाह करना आवश्यक है। सनातन शास्त्र का ऐसा ही विधान है। गृहस्थ का अवश्य विवाह करना चाहिए। आर्यशास्त्र में कहे हुए दस संस्कार और नित्य नैमित्तिक आचार-प्रणाली यह सब ही आत्म-प्रसार साधन के शिक्षक और सहाय स्वरूप हैं।