Thursday, October 15, 2015

उषाःपान की सरल विधि

उषाःपान अजीर्ण दूर करने के लिये कितना उपयोगी है। लेकिन उसका प्रयोग किस तरह किस- किस रोग में करना अथवा नहीं करना चाहिये- इन पंक्तियों में उस पर थोड़ा प्रकाश डालने की कोशिश करूंगा। पानी जीवन के लिये कितना आवश्यक पदार्थ है इसके विषय में कुछ भी कहना व्यर्थ है। संसार में इसके बिना कोई भी जीव, जड़ अथवा चेतन अपने जीवन को स्थिर नहीं रख सकता।

उषाःपान में कैसा जल प्रयोग हो? यों तो सदा ही शुद्ध एवं स्वच्छ जल काम में लाना चाहिये, किन्तु उषाःपान में खास तौर से जल की शुद्धता एवं निर्मलता की आवश्यकता है। इसमें किसी प्रकार की लापरवाही न होनी चाहिये। चाहे जल स्वच्छ ही हो, लेकिन फिर भी उसे किसी स्वच्छ वस्त्र से साफ बर्तन में छान लेना चाहिये। इसके लिये हमेशा शीतल एवं बासी जल की व्यवस्था होनी चाहिये। इसके मानी यह नहीं कि जल को बरफ से शीतल किया जाय अथवा कई दिन का बासी पानी प्रयोग में लाया जाय। एक शुद्ध घड़े में इस कार्य के लिये सुव्यवस्थित, यानी ढँक- छान कर खुली हवा में जल रख लेना चाहिये। प्रभात में सूर्योदय से कम से कम आधा घण्टे और अधिक से अधिक दो घण्टे पूर्व इस क्रिया को करना चाहिये। बिस्तर छोड़ने के उपरान्त फौरन ही इस क्रिया को करना ठीक नहीं। बिस्तर से उठने के बाद कुछ देर घूमकर दो, तीन बार गहरी श्वास लेकर हाथ, मुँह धोकर खूब गरारे करने चाहिये। इसके बाद नासिका द्वारा धीरे- धीरे जल पीना चाहिये और दो बार उसे जोर के साथ बाहर निकाल देना चाहिये, पर विश्वास हो जाने पर कि अब नासिका में किसी प्रकार की अशुद्धता नहीं रही, पुनः नासिका द्वारा जल पीना चाहिये, पहले पहल पाव छँटांक जल से अधिक नहीं पीना चाहिये बाद में अभ्यास द्वारा पाव भर तक जल पिया जा सकता है। सर्व प्रथम नासिका द्वारा जल पीने में कुछ कष्ट होता है, मस्तिष्क एवं नासिका की नलिकाओं में कुछ चींटी काटने जैसी पीड़ा होती है, किन्तु तीन चार दिन के अभ्यास के बाद वह शनैः शनैः दूर होने लगती हैं, फिर तो तनिक भी कष्ट नहीं होता।

नासिका से उषाःपान करने के उपरान्त मुख द्वारा जल पीना चाहिये, जिसकी मात्रा आध सेर से किसी भी हालत में अधिक न होनी चाहिये। हाँ यदि अजीर्ण हो तो एक सेर तक भी पीया जा सकता है। नासिका से पानी पीते समय श्वांस द्वारा खींचना नहीं चाहिये वरन् धीरे- धीरे पीना चाहिये। सर्व प्रथम नाक से पानी पीते समय दो तीन बार नाक से पीकर मुँह से कुल्ला कर देना चाहिये ताकि किसी प्रकार की गन्दगी मुँह द्वारा पेट में पहुँच कर विकार न पैदा कर दे। मुँह से पानी पीते समय जितनी कम श्वांस ली जावें उतनी ही लाभप्रद होती हैं। उषाःपान सदैव शैचादि से निवृत्त होने के पूर्व करना चाहिये। यदि नासिका द्वारा जल पीने में कष्ट मालूम हो, तो मुख द्वारा ही पिया जाय। मुख द्वारा पीने के उपरान्त यदि हो सके तो पुनः नासिका द्वारा पीने का प्रयत्न करना अच्छा है।

उषाःपान से लाभ-
अजीर्ण दूर होकर शौच बिल्कुल साफ होता है। पेट की गुड़ गुड़ाहट एवं फूलना बन्द हो जाता है। रक्त शुद्ध बनता है, मस्तिष्क शक्तिशाली तथा दृष्टि तीव्र होती है। शरीर में एक प्रकार की अद्भुत शक्ति पैदा होती है शरीर का रंग निखर जाता है। उषाःपान करने के दूसरे दिन ही भूख खूब लगने लगती है। स्वप्र दोष तथा अन्य वीर्य दोषों में आश्चर्यजनक लाभ होता है, कितने ही प्रमेह एवं स्वप्र दोष ग्रस्त रोगी नियमित रूप से उषाःपान करने से रोगमुक्त होते देखे गये हैं। रक्त विकार में भी आशातीत लाभ होता है। बाल सफेद होना रूक जाता है।

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