Thursday, October 1, 2015

मरने के बाद हमारा क्या होता है?

मरने के बाद हमारा क्या होता है? इस प्रश्र का उत्तर विभिन्न धर्मों की पुस्तकें विभिन्न उत्तर देती हैं। स्वर्ग नरक का वर्णन अपने- अपने मतानुसार सब धर्माचार्यों ने किया है। इस लेख में किसी धर्म के अनुसार मृत्यु के उपरान्त होने वाली दशा का वर्णन करके उन वैज्ञानिकों के अनुभवों का उल्लेख करेंगे जिन्होंने इस सम्बन्ध में गहरी खोज की है और इसी अन्वेषण में जीवन खपा दिये हैं।

इस बात में सब वैज्ञानिक एक मत हैं कि दुनियाँ के किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता। समय चक्र उनका रूपान्तर करता रहता है। किसी वस्तु को नष्ट कर दिया जाय तो उसके पूर्व रूप की ही टूट- फूट होती है, वे मूल तत्व जिनके इकट्ठे होने के कारण उसका निर्माण हुआ था, केवल अपनी शकल बदल लेते हैं। जब शरीर में से प्राण निकल जाता है तो शरीर के सारे अंग अपना काम छोड़ देते हैं, भीतर की मशीन बन्द हो जाती है। अब इस मृत शरीर का रूपान्तर होना आरम्भ होता है। लोग मुर्दें को जला देते हैं, जल में प्रवाहित कर देते हैं या गाड़ देते हैं। जला देने पर शरीर के रासायनिक पदार्थ कुछ तो वायु में मिल जाते हैं, कुछ भस्म में रह जाते हैं। गाड़ देने या जला देने पर वह जीव जन्तुओं का भोजन बन जाता है और उनके शरीर में शामिल हो जाता है। पड़ा रहा तो सड़- गल कर भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाता हुआ घास पात के रूप में प्रकट होता है। निदान शरीर के तत्त्व इस एक संरचना को तोड़कर अलग- अलग बिखर जाते हैं और फिर किसी शृंखला में जुड़कर नई शक्ल बनाता है। पुरानी शृंखला टूटने और नई बनने का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा, पर उस बेचारे पंछी का क्या होता है?

कुछ वैज्ञानिकों का मन है कि जीवात्मा कोई चीज नहीं। पंचतत्व के बने हुए शरीर की जो क्रिया है उसका एकत्रीकरण ही जीव के रूप में दिखाई देता है। वह वास्तव में कुछ नहीं। पंच भूतों के विशृंखलित होते ही प्राण भी नष्ट हो जाते हैं। वे कहते हैं कि जब हमारे यन्त्रों से जीवित और मृत मनुष्य के प्राण का अनुभव नहीं होता तो वह हो ही नहीं सकता। इन वैज्ञानिकों का मत उपहासास्पद है।

अभी वैज्ञानिकों के यन्त्रों ने प्रकृति का सम्पूर्ण रहस्य नहीं खोज डाला है। जिन विद्वानों ने उस महातत्व की झांकी की है उन्होंने यह कहा है कि हम लोगों का सम्पूर्ण ज्ञान अभी रज कण के बराबर भी नहीं है। ऐसे अधूरे ज्ञान के आधार पर बने हुए सिद्धान्त और यन्त्र यदि उस अखण्ड ज्योति को नहीं जानते तो इससे उसकी असिद्धि नहीं होती। वह जीव जो इतनी आशाऐं करता है, आत्म चिन्तन में इतना लीन रहता है, सोते समय न जाने कहाँ कहाँ घूम आता है, गहन समस्याओं के हल करने में शरीर की सुध- बुध भूल जाता है, अभ्यास द्वारा शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं में आश्चर्य जनक घट- बढ़ कर लेता है क्या वह शारीरिक क्रियाओं की स्फुरण मात्र है? मैस्मरेजम, योगशास्त्र, तन्त्र विज्ञान द्वारा जो अद्भुत चमत्कार देखने में आते हैं, भूत प्रेतों के कभी- कभी दर्शन होते हैं, कुछ लोग अपने पूर्व जन्म की कथा सप्रमाण बताते हैं, किन्हीं- किन्हीं बालकों में जन्म जात अद्भुत प्रतिभा होती है यह बातें क्या जीव के अभाव में भी हो सकती हैं? हमारा अन्तःकरण इसे स्वीकार नहीं करता। पूर्वजों के स्मारक बनाने, उनकी कीर्ति को अमर रखने, मृतक के साथ सहानुभूति प्रकट करने की प्रथा बुद्धि विरुद्ध नहीं है। अनादि काल से मनुष्य जीव का अस्तित्व मानता आ रहा है, उसका खण्डन केवल यह कहकर नहीं किया जा सकता है कि वैज्ञानिक यन्त्र से अभी सिद्ध नहीं कर पाये हैं।

सब देशों के अधिकांश आध्यात्म विद्या के अन्वेषक जीव के अस्तित्व को मानते हैं। और वे सूक्ष्म शरीर की सत्ता को भी स्वीकार करते हैं। जिस प्रकार हमारा यह स्थूल शरीर है उसी प्रकार का एक सूक्ष्म शरीर का अनुभव किया जा सकता है। स्वप्र की अवस्था में हमें यही भान होता है कि शरीर सहित काम कर रहे हैं, मरने से कुछ समय पूर्व कुछ लोग यह बता देते हैं कि अब मैं मर जाऊँगा। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व शक्ति निकल जाती है। असल में सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर का सम्बन्ध अधिकांश टूट चुका होता है तब जीव स्वयं अनुभव करता है कि सब बातें मुझमें बदस्तूर हैं, कोई भारी कष्ट भी नहीं है पर एक महत्वपूर्ण चीज से मैं रहित हो गया हूँ। जिस चीज के बिना शरीर छूँछ जैसा लगता है वही सूक्ष्म शरीर है। योगी महात्मा अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर यह बता देते हैं कि अमुक व्यक्ति इतने समय बाद मर जायेगा। वे यही जान लेते हैं कि स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का सम्बन्ध कितना कमजोर है और उसके पूर्ण रूप से टूटने में कितना समय लगेगा। शरीर के पुर्जों के निकम्मे हो जाने पर भयंकर व्याधि से पिस जाने पर या दुर्घटना द्वारा असामयिक मृत्यु होने पर जीवात्मा स्थूल शरीर से अलग हो जाता है, फिर भी वह स्थूल शरीर की ही भाँति सूक्ष्म शरीर धारण किये रहता है। यद्यपि इस शरीर पर भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी तथा मल मूत्र त्याग आदि का असर नहीं होता पर मोटी मोटी शारीरिक आदतों को छोड़कर शेष मनोविकार प्रायः ज्यों के त्यों बने रहते हैं।

कठिन काम करने के बाद जिस प्रकार हम थक कर सो जाते हैं उसी प्रकार जीव अपनी थकान उतारने और नवीन विकास की तैयारी के लिए अर्ध चेतनावस्था में पड़ जाते हैं और बहुत काल तक अपना क्रमिक विकास करने के लिए उसी दशा में पड़े रहते हैं। नीच श्रेणी के अल्प बुद्धि वाले अविकसित जीव नीचे लोकों में छोटी भूमिकाओं में रहते हैं। यह लोक ऐसे ही जीवों से भरा रहता है। विकसित जीव ऊँची कक्षाओं में चले जाते हैं। जिनके आत्मा अत्यन्त उच्च और उज्ज्वल हो गए होते हैं वे सर्वोच्च कक्षाओं में पहुंचकर विश्राम करते हैं।

जीवों की योग्यता के अनुसार उन्हें कई लोकों में जाना पड़ता है। ऐसे लोकों में कई- कई विभाग होते हैं। यहाँ यह समझना भूल होगी के जीवों के रहने के लिए स्थूल चीजों के बने हुए इसी प्रकार के मकान, बैठक, पेड़ ऋतु, जंगल आदि होंगे जैसे इस पृथ्वी पर हैं। उन लोकों में सुख दुख की सूक्ष्म सामग्री रहती है। जिसका वे उपयोग करते है। हैजे के स्थान में सूक्ष्म रोग कीट वायु घूमते रहते हैं और गन्दगी के वातावरण में फलते फूलते एवं फिनायल आदि की तीक्ष्ण गन्ध से मर जाते हैं। रोग कीटों की यह पोषक और मारक क्रिया सूक्ष्म हैं। उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि मनुष्य को मारने के लिये जैसी लम्बी छुरी की जरूरत होती है वैसी ही रोग कीटों को मारने के लिए फिनायल की गन्ध के पास भी हों। वहाँ भी भरण पोषण या सुख दुख की एक सूक्ष्म प्रक्रिया चलती है। नीचे के लोकों की अपेक्षा ऊँचे लोगों में ऐसा वातावरण अधिक होता है, जिनमें जीव पूर्ण विश्राम कर सके, और उत्तम आनन्द का अनुभव कर सके। ऊँचे लोकों के जीव स्वेच्छानुसार नीचे की कक्षाओं में तथा पृथ्वी पर आ सकते हैं, पर नीची कक्षाओं के ऊपर के लोकों की ओर उड़ने की शक्ति नहीं रखते।

मरने के बाद कुछ समय तक सूक्ष्म शरीर ज्यों का त्यों बना रहता है। आरम्भ के दिनों में तो साधारण श्रेणी के जीवों को यह भी पता नहीं चलता कि वे मर गये हैं और उनका क्या हो गया है। वे बहुत दिनों तब अपने घर के सगे सम्बन्धियों के आस पास मंडराते रहते हैं। उच्च जीवों का शीघ्र और नीच जीवों का देर में यह सूक्ष्म शरीर भी मर जाता है। जिस प्रकार साँप केंचुली को छोड़ देता है उसी प्रकार जीव कालान्तर में सूक्ष्म शरीर को भी छोड़ देता है।

सांसारिक लोगों से भी जीव प्रभावित होते है। जिन्होंने अपने जीवन काल में अपने आत्मा को महान बना लिया है वे अपना कर्तव्य समझकर ही सांसारिक लोगों की कुछ सात्विक मदद करने को कभी कभी आते हैं किन्तु छोटी श्रेणी के लोग सांसारिक लोगों पर अपना राग द्वेष प्रकट करने के लिये अधिक उत्सुक रहते हैं। अपने जीवन काल के मित्र शत्रुओं के सुख दुख में वे दुखी भी होते हैं और उनके कार्य में सहायता या शक्ति देते के लिये प्रयत्न करते हैं। ऐसे जीव अपनी विश्रामदायी अर्धनिद्रा में से बार बार जाग पड़ते हैं और अतिशीघ्र ही अपने इच्छित लोगों के समीप किसी के मोह बन्धन में बंधकर जन्म धारण कर लेत हैं या अपने ही शरीर को अधिक दृढ़ बनाकर पृथ्वी के ही किसी विशेष स्थान में आ ठहरते हैं। यह बात प्रत्यक्ष हो चुकी है कि कुछ जीव अपने सूक्ष्म शरीर को लिए हुए शताधिक दिनों अपने इष्ट मित्रों के आस पास के स्थानों में डेरा डाले पड़े रहते हैं और अपनी उपस्थिति का परिचय किसी न किसी रूप में अपने सम्बन्धियों को देते रहते हैं।

आत्मघात या दुर्घटनाओं से मरा हुआ जीव यदि साधारण श्रेणी का है तो उसकी बड़ी विचित्र दशा होती है। अचानक शरीर छूट जाने के कारण और मृत्यु समय में भारी कष्ट होने के कारण उसकी दशा बहुत अस्वाभाविक होती है वह आधे कटे हुए बकरे की तरह चारों ओर फड़फड़ाता फिरता है और जीव लोक में एक कुहराम खड़ा कर देता है। अपने पूर्व सम्बन्धियों के पास दौड़ा जाता है और फिर उलट कर इधर उधर भटकता है। पृथ्वी और जीव लोक में इनके द्वारा कोई भयंकर उत्पात भी किए जाते रहते हैं।

कई मतों के अनुसार मरने के बाद हम चौरासी लाख योनियों में घूमते हैं। उन सब में एक चक्र घूम आने के बाद फिर मनुष्य शरीर पाते हैं। योनियाँ कितनी है इस पर बहस नहीं, आमतौर से भारतवर्ष में मोटा सिद्धान्त यह माना जाता है कि कई बार नीच योनियाँ प्राप्त करके तब नरदेह मिलती है। जिन आचार्यों ने इस मत का प्रतिपादन किया है, उन्होंने लोगों को मनुष्य शरीर की श्रेष्ठता और बहुमूल्यता का अनुभव करने के लिए ही यह उपदेश दिया प्रतीत होता है। क्योंकि तर्क, अनुभव और प्रमाण इसके विपरीत जाते हैं। मोक्ष न मिलने तक नाना जन्म धारण करना तो ठीक है परन्तु मनुष्य का नीच अविकसित जीवों में जन्म लेना ठीक नहीं। मनुष्य का जीव उस चेतना में जग गया होता है कि वह ज्ञान रहित योनियों में नहीं गिरता। उसने अपनी सूक्ष्म इन्द्रियाँ, बुद्धि, मन और अंतःप्रेरणा इतनी जाग्रत कर ली होती है कि पशु शरीर में वे समा नहीं सकती। निश्चय ही किसी बैल को उस ङ्क्षपजड़े में कैद नहीं किया जा सकता जिसमें बुलबुल पाली जाती है।

यह तर्क करना निरर्थक है कि मनुष्य ने जो पाप कर्म किये हैं उनका शारीरिक दण्ड नीच योनियों में जाये बिना कैसे मिलेगा? विचार पूर्वक देखा जाय तो पशु योनि दुख या दण्ड योनि नहीं है। जिस प्रकार का हमें सुख- दुख होता है वैसी अनुभूति नीच जीवों को नहीं होती। केवल तात्कालिक शारीरिक कष्ट उन्हें होता है परन्तु मानसिक व्यथा तो पास नहीं फटकती। सूक्ष्म परीक्षण करने पर पशु दण्ड योनि नहीं ठहरती। दया का पात्र दुखी जीवन भी मनुष्य जैसा क्लेश और कष्ट अनुभव नहीं करता। यदि दुख ही अनुभव न हो तो दण्ड कैसा? सच पूछा जाय तो मनुष्य शरीर ही दण्ड योनि है। जरा सा फोड़ा हो जाने या किसी के द्वारा अपमानित होने पर कितनी व्यथा वह अनुभव करता है? फिर शारीरिक कष्ट भी इसी योनि में अधिक है। रोगी, अपाहिज, पागल, अंग- भंग जितनी संख्या में मनुष्य होते हैं उतने पशु नहीं।

जिन मनुष्यों की भावनाऐं नीच है। स्वार्थ, हिंसा, कपट, दुराचार से जिनकी वृत्तियाँ भरी हुई हैं। वे अपनी इच्छाओं से आकर्षित होकर ऐसे समाज में जन्म धारण करते हैं जहाँ उनकी पूर्व सम्पत्ति से मिलती जुलती चीजें प्राप्त हो सकें। पुरानी इच्छाओं का अर्थ यह नहीं है कि जन्म भर जो कार्य किसे हैं वही निश्चित आकांक्षाऐं है। नहीं, इच्छाऐं भौतिक वस्तुऐं हैं उन्हें काट डालना और नई बना लेना मनुष्य के वश से बाहर की बात नहीं है। अजामिल और गणिका की कथाऐं इसकी पुष्टि करती है। अकेले वाल्मीक ही नहीं असंख्य कुकर्मी कुछ ही क्षणों के पश्चात् धर्मात्मा हो गये हैं। रामायण की ‘‘अन्त राम कहि आवत नाही’’ वाली चौपाई इसकी यथार्थता सिद्ध करती है कि अन्तिम क्षणों में भी यदि भावना प्रबलतम, उच्च हो जाय तो भव सागर से निस्तार हो सकता है। पुराने कल्मष कट सकते हैं। नया जन्म धारण करने के लिए वे इच्छाऐं अधिक महत्त्व रखती हैं जिन्हें मृत्यु से पूर्व पाने के कारण जीव अपनी स्वतन्त्रतावस्था में धारण किये रहता है। इनका एकदम पलट जाना तो एक अपवाद हुआ। साधारणतः यह जीवन भर के कामों और विचारों के कारण बनी होती है और प्रबलतम परिवर्तन के बिना काटी नहीं जा सकती। यदि ऐसा न होता तो लोग जन्म भर साधन करने की अपेक्षा केवल बुढ़ापे के लिए आत्म चिन्तन छोड़ रखते।

अपनी भावना के अनुकूल जन्म धारण करने में एक और सन्देह हो सकता है कि इससे तो जीव सब प्रकार स्वतन्त्र हो गया, उस पर कर्मफल प्राप्त करने के लिए कोई नियन्त्रण नहीं रखा गया? इसका पूरा समाधान तो ‘‘जीव का अस्तित्व और उसकी क्रिया’’ विषय को पूरी तरह समझे बिना नहीं हो सकता। पाठक इस तत्व को भी अखण्ड ज्योति के किसी आगामी अंक में पढ़ेंगे। यहाँ पर तो इतना ही कहा जा सकता है कि नियन्त्रण हैं अवश्य, पर जेलखाने की तरह नहीं। उसकी छूट रिहाई, सजा, मजदूरी किसी दफ्तर में नहीं रखी जाती। वरन् प्रकृति के ऐसे नियमों के साथ उसे जकड़ दिया जाता है जो गुप्तचर के समान हर क्षण पीछा करते हैं और दण्ड पुरस्कार चुकाने की व्यवस्था करते रहते हैं। जीव का परतन्त्र कहना ईश्वर का अपमान करना है वह कर्म करने और अपने योग्य साधन प्राप्त कर लेने में सर्वथा स्वतन्त्र है। यहाँ ईश्वर की लीला देखिए वे ही कर्म और साधन उसकी इच्छा के अनुरुप फल देने वाले बन जाते हैं। जो सुस्वादु भोजन एक के लिए पुष्टिकर हैं दूसरे के वे ही प्राण ले सकते हैं। प्रकृति का खजाना सबके लिये खुला है। वस्तुऐं वे ही है और सबको मिल सकती हैं परन्तु पीतल के बर्तन में पड़ते ही खटाई कड़ुवी हो जाती है। मनुष्य की नीच और उच्च आकांक्षाऐं साधारण पदार्थों को ही अपने दुख सुख का कारण बना लेती हैं। यही स्वर्ग नरक है। पाप से नरक और पुण्य के स्वर्ग इसी प्रकार मिलता है। हरे भरे वन पर्वतों में जहाँ तपस्वी स्वर्ग सुख भोगते हैं, वही एक कायर पुरुष रह जाय तो दो ही दिन में अधमरा हो जायेगा। चाहे कुछ भय वहाँ न हो, पर दिन को शेर और रात को राक्षस उसके मस्तिष्क के चारों ओर नाचेंगे।

आचार्यों का अनुभव है कि मनुष्य मरने के बाद मनुष्य योनि में ही जन्म धारण करता है। यह बात अनुभव में आई हुई भी है। प्रति वर्ष ऐसी अनेक घटनायें समाचार पत्रों में छपा करती है कि अमुक बच्चे ने अपने पूर्व जन्म का हाल बताया, पुराने सम्बन्धियों को पहचाना, कम्पनी गुप्त बातों को बताया आदि। ऐसी घटनाओं पर दृष्टि डालने और अनेक पूर्व जन्म और वर्तमान की स्थिति पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों की दशा प्रायः सब दृष्टियों से मिलती जुलती है। यदि अत्यन्त पुण्य कर्मों से मनुष्य जन्म मिलना माना जाय तो पिछले जन्म के उनके कोई कर्म बहुत ऊँचे नहीं मालूूम पड़ते। इस प्रकार यह मानना पड़ता है कि जिस कक्षा तक मनुष्य पहुँच गया है उससे नीचे नहीं उतर सकता। जीव का धर्म विकास करना है वह पूर्णता के प्राप्त होने के लिए भीतर ही भीतर प्रबल प्रयत्न कर रहा है। और विकास की ओर अग्रसर हो रहा है। नीचे उतरना नहीं हो सकता, वह पीछे नहीं हट सकता। भले बुरे कर्मों का इस समय पाप पुण्य की दृष्टि से विचार न करके जड़ता और चेतना की दृष्टि से सन्तुलन कीजिए। आपको मालूम पड़ेगा कि चालाकी चोरी, ठगी के मूल में भी जड़ता से उठ कर चेतना और विकास में जाने का प्रयत्न है। भले ही उस भीतरी प्रेरणा की दुष्वृत्तियों ने गड़बड़ा कर अपने सांचे में ढाल लिया है, परन्तु उसके पीछे विकास का तत्व अवश्य है। ऐसा विकाशोन्मुखी मनुष्य प्राणी निश्चय ही अगले जन्म में अपने तुल्य देह पर आकर्षित होगा और उसे ही ग्रहण कर लेगा।

किन्हीं पशुओं में बहुत अधिक ज्ञान होता है। यहाँ यह न समझना चाहिए कि इसमें मनुष्य की आत्मा ने प्रवेश कर लिया है। असल में वे नीच जीव ही बहुत दिनों से मनुष्य के संसर्ग में रहते और क्रमिक विकास में बढ़ते- बढ़ते इस योग्य हो गये होते हैं कि अपनी वर्तमान श्रेणी से उठकर ज्ञान योगियों की ओर बढे।

कभी कभी कुछ उच्च आत्माऐं नीच वातावरण में जन्म ले लेती है। ऐसा वे स्वेच्छा से करती हैं। उनका उद्देश्य उस श्रेणी के लोगों के बीच में से दूषित विचार मण्डल बदलने आदि की इच्छा होती है।

कई मतों के अनुसार मरने के बाद हम चौरासी लाख योनियों में घूमते हैं। उन सब में एक चक्र घूम आने के बाद फिर मनुष्य शरीर पाते हैं। योनियाँ कितनी है इस पर बहस नहीं, आमतौर से भारतवर्ष में मोटा सिद्धान्त यह माना जाता है कि कई बार नीच योनियाँ प्राप्त करके तब नरदेह मिलती है। जिन आचार्यों ने इस मत का प्रतिपादन किया है, उन्होंने लोगों को मनुष्य शरीर की श्रेष्ठता और बहुमूल्यता का अनुभव करने के लिए ही यह उपदेश दिया प्रतीत होता है। क्योंकि तर्क, अनुभव और प्रमाण इसके विपरीत जाते हैं। मोक्ष न मिलने तक नाना जन्म धारण करना तो ठीक है परन्तु मनुष्य का नीच अविकसित जीवों में जन्म लेना ठीक नहीं। मनुष्य का जीव उस चेतना में जग गया होता है कि वह ज्ञान रहित योनियों में नहीं गिरता। उसने अपनी सूक्ष्म इन्द्रियाँ, बुद्धि, मन और अंतःप्रेरणा इतनी जाग्रत कर ली होती है कि पशु शरीर में वे समा नहीं सकती। निश्चय ही किसी बैल को उस ङ्क्षपजड़े में कैद नहीं किया जा सकता जिसमें बुलबुल पाली जाती है।

यह तर्क करना निरर्थक है कि मनुष्य ने जो पाप कर्म किये हैं उनका शारीरिक दण्ड नीच योनियों में जाये बिना कैसे मिलेगा? विचार पूर्वक देखा जाय तो पशु योनि दुख या दण्ड योनि नहीं है। जिस प्रकार का हमें सुख- दुख होता है वैसी अनुभूति नीच जीवों को नहीं होती। केवल तात्कालिक शारीरिक कष्ट उन्हें होता है परन्तु मानसिक व्यथा तो पास नहीं फटकती। सूक्ष्म परीक्षण करने पर पशु दण्ड योनि नहीं ठहरती। दया का पात्र दुखी जीवन भी मनुष्य जैसा क्लेश और कष्ट अनुभव नहीं करता। यदि दुख ही अनुभव न हो तो दण्ड कैसा? सच पूछा जाय तो मनुष्य शरीर ही दण्ड योनि है। जरा सा फोड़ा हो जाने या किसी के द्वारा अपमानित होने पर कितनी व्यथा वह अनुभव करता है? फिर शारीरिक कष्ट भी इसी योनि में अधिक है। रोगी, अपाहिज, पागल, अंग- भंग जितनी संख्या में मनुष्य होते हैं उतने पशु नहीं।

जिन मनुष्यों की भावनाऐं नीच है। स्वार्थ, हिंसा, कपट, दुराचार से जिनकी वृत्तियाँ भरी हुई हैं। वे अपनी इच्छाओं से आकर्षित होकर ऐसे समाज में जन्म धारण करते हैं जहाँ उनकी पूर्व सम्पत्ति से मिलती जुलती चीजें प्राप्त हो सकें। पुरानी इच्छाओं का अर्थ यह नहीं है कि जन्म भर जो कार्य किसे हैं वही निश्चित आकांक्षाऐं है। नहीं, इच्छाऐं भौतिक वस्तुऐं हैं उन्हें काट डालना और नई बना लेना मनुष्य के वश से बाहर की बात नहीं है। अजामिल और गणिका की कथाऐं इसकी पुष्टि करती है। अकेले वाल्मीक ही नहीं असंख्य कुकर्मी कुछ ही क्षणों के पश्चात् धर्मात्मा हो गये हैं। रामायण की ‘‘अन्त राम कहि आवत नाही’’ वाली चौपाई इसकी यथार्थता सिद्ध करती है कि अन्तिम क्षणों में भी यदि भावना प्रबलतम, उच्च हो जाय तो भव सागर से निस्तार हो सकता है। पुराने कल्मष कट सकते हैं। नया जन्म धारण करने के लिए वे इच्छाऐं अधिक महत्त्व रखती हैं जिन्हें मृत्यु से पूर्व पाने के कारण जीव अपनी स्वतन्त्रतावस्था में धारण किये रहता है। इनका एकदम पलट जाना तो एक अपवाद हुआ। साधारणतः यह जीवन भर के कामों और विचारों के कारण बनी होती है और प्रबलतम परिवर्तन के बिना काटी नहीं जा सकती। यदि ऐसा न होता तो लोग जन्म भर साधन करने की अपेक्षा केवल बुढ़ापे के लिए आत्म चिन्तन छोड़ रखते।

अपनी भावना के अनुकूल जन्म धारण करने में एक और सन्देह हो सकता है कि इससे तो जीव सब प्रकार स्वतन्त्र हो गया, उस पर कर्मफल प्राप्त करने के लिए कोई नियन्त्रण नहीं रखा गया? इसका पूरा समाधान तो ‘‘जीव का अस्तित्व और उसकी क्रिया’’ विषय को पूरी तरह समझे बिना नहीं हो सकता। पाठक इस तत्व को भी अखण्ड ज्योति के किसी आगामी अंक में पढ़ेंगे। यहाँ पर तो इतना ही कहा जा सकता है कि नियन्त्रण हैं अवश्य, पर जेलखाने की तरह नहीं। उसकी छूट रिहाई, सजा, मजदूरी किसी दफ्तर में नहीं रखी जाती। वरन् प्रकृति के ऐसे नियमों के साथ उसे जकड़ दिया जाता है जो गुप्तचर के समान हर क्षण पीछा करते हैं और दण्ड पुरस्कार चुकाने की व्यवस्था करते रहते हैं। जीव का परतन्त्र कहना ईश्वर का अपमान करना है वह कर्म करने और अपने योग्य साधन प्राप्त कर लेने में सर्वथा स्वतन्त्र है। यहाँ ईश्वर की लीला देखिए वे ही कर्म और साधन उसकी इच्छा के अनुरुप फल देने वाले बन जाते हैं। जो सुस्वादु भोजन एक के लिए पुष्टिकर हैं दूसरे के वे ही प्राण ले सकते हैं। प्रकृति का खजाना सबके लिये खुला है। वस्तुऐं वे ही है और सबको मिल सकती हैं परन्तु पीतल के बर्तन में पड़ते ही खटाई कड़ुवी हो जाती है। मनुष्य की नीच और उच्च आकांक्षाऐं साधारण पदार्थों को ही अपने दुख सुख का कारण बना लेती हैं। यही स्वर्ग नरक है। पाप से नरक और पुण्य के स्वर्ग इसी प्रकार मिलता है। हरे भरे वन पर्वतों में जहाँ तपस्वी स्वर्ग सुख भोगते हैं, वही एक कायर पुरुष रह जाय तो दो ही दिन में अधमरा हो जायेगा। चाहे कुछ भय वहाँ न हो, पर दिन को शेर और रात को राक्षस उसके मस्तिष्क के चारों ओर नाचेंगे।

आचार्यों का अनुभव है कि मनुष्य मरने के बाद मनुष्य योनि में ही जन्म धारण करता है। यह बात अनुभव में आई हुई भी है। प्रति वर्ष ऐसी अनेक घटनायें समाचार पत्रों में छपा करती है कि अमुक बच्चे ने अपने पूर्व जन्म का हाल बताया, पुराने सम्बन्धियों को पहचाना, कम्पनी गुप्त बातों को बताया आदि। ऐसी घटनाओं पर दृष्टि डालने और अनेक पूर्व जन्म और वर्तमान की स्थिति पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों की दशा प्रायः सब दृष्टियों से मिलती जुलती है। यदि अत्यन्त पुण्य कर्मों से मनुष्य जन्म मिलना माना जाय तो पिछले जन्म के उनके कोई कर्म बहुत ऊँचे नहीं मालूूम पड़ते। इस प्रकार यह मानना पड़ता है कि जिस कक्षा तक मनुष्य पहुँच गया है उससे नीचे नहीं उतर सकता। जीव का धर्म विकास करना है वह पूर्णता के प्राप्त होने के लिए भीतर ही भीतर प्रबल प्रयत्न कर रहा है। और विकास की ओर अग्रसर हो रहा है। नीचे उतरना नहीं हो सकता, वह पीछे नहीं हट सकता। भले बुरे कर्मों का इस समय पाप पुण्य की दृष्टि से विचार न करके जड़ता और चेतना की दृष्टि से सन्तुलन कीजिए। आपको मालूम पड़ेगा कि चालाकी चोरी, ठगी के मूल में भी जड़ता से उठ कर चेतना और विकास में जाने का प्रयत्न है। भले ही उस भीतरी प्रेरणा की दुष्वृत्तियों ने गड़बड़ा कर अपने सांचे में ढाल लिया है, परन्तु उसके पीछे विकास का तत्व अवश्य है। ऐसा विकाशोन्मुखी मनुष्य प्राणी निश्चय ही अगले जन्म में अपने तुल्य देह पर आकर्षित होगा और उसे ही ग्रहण कर लेगा।

किन्हीं पशुओं में बहुत अधिक ज्ञान होता है। यहाँ यह न समझना चाहिए कि इसमें मनुष्य की आत्मा ने प्रवेश कर लिया है। असल में वे नीच जीव ही बहुत दिनों से मनुष्य के संसर्ग में रहते और क्रमिक विकास में बढ़ते- बढ़ते इस योग्य हो गये होते हैं कि अपनी वर्तमान श्रेणी से उठकर ज्ञान योगियों की ओर बढे।

कभी कभी कुछ उच्च आत्माऐं नीच वातावरण में जन्म ले लेती है। ऐसा वे स्वेच्छा से करती हैं। उनका उद्देश्य उस श्रेणी के लोगों के बीच में से दूषित विचार मण्डल बदलने आदि की इच्छा होती है।




हिन्दू धर्म आरंभ से ही यह मानता आ रहा है कि मरने के बाद हमारा पुनर्जन्म होता है। आत्मा रूपी वृक्ष खड़ा रहता है और उसकी शरीर सदृश पत्तियाँ गिरती तथा नई आती रहती हैं। किन्तु सब धर्मावलंबी ऐसा नहीं मानते। ईसाई और मुसलमान धर्मों को ही लीजिए वे मानते हैं कि मरने के बाद प्रलय तक जीव एक नियत स्थान पर कैद रहता है। निष्पक्ष भाव से इस प्रश्न पर विचार करने से ऐसे ही प्रमाण अधिक मिलते हैं जिनसे पुनर्जन्म सिद्धान्त की पुष्टि होती है।

कुदरत के नियमों के अनुसार माता पिता के सारे गुण पुत्र में आने चाहिये। किन्तु ऐसे प्रमाण अगणित मिल सकते हैं जिनमें संतान के विचार माता पिता से बिलकुल भिन्न होते हैं। क्यों इससे पुनर्जन्म का आभास नहीं मिलता? कुछ बालक बहुत छोटी उम्र में अद्भुत प्रतिभा प्रदर्शित करते हैं। ऐसे कई बच्चे आपने देखे या सुने होंगे जो जरा सी उम्र में मनोहर बाजे बजाना जानते हैं धार्मिक पुस्तकों को कंठाग्र सुना देते हैं या अन्य प्रकार के ऐसे दिव्य गुण रखते हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए बहुत समय लगाने की आवश्यकता होती है। एक उम्र के एक साथ पढ़ने खेलने, रहने, सहने वाले लड़कों में भी विचार विभिन्नता का होना इसी प्रकार का प्रमाण है। यदि पुनर्जन्म को न मानें तो एक सी परिस्थिति में रहने वाले एक ही माता पिता के बालकों के स्वभाव में अन्तर होने क्या कारण बताया जा सकेगा। जीवों का विकास हो रहा है यह सब मानते हैं। पर यदि मनुष्य को पुराने अनुभव को संग्रहीत रखने वाला न माना जाय तो विकासवाद किस प्रकार आगे बढ़ेगा? शास्त्र बतलाता है कि जीव पुराने अनुभवों को अपने में धारण किये रहता है और पुराने अनुभवों के आधार पर अपनी उन्नति करता जाता है।

अक्सर ऐसे उदाहरण भी मिलते रहते हैं कि अमुक बालक ने अपने पूर्व जन्म का सारा वृत्तान्त कह दिया। परीक्षा करने पर वह बातें बिलकुल सच निकली। कुछ समय पूर्व ऐसी कई घटनाओं का वर्णन लखनऊ की मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ में छपा था । उनसे सचाई पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ सकता है।

बरेली के प्रसिद्ध वकील कु0 केकयीनन्द सहाय जी के छोटे पुत्र चि0 जगदीश ने अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त बताते हुए कहा था कि मैं बनारस का हूँ मेरे पिता बबुआ पांडे है और उनके पास मोटर है। वकील साहब ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर प्रकाश डालने के लिये इस बात को वैज्ञानिक अन्वेषण के रूप में लेना उचित समझा और बालक बरेली के गन्यमान्य व्यक्तियों के सम्मुख उपस्थित करके वह सब बातें कहलवाई जो वह अपने पूर्व जन्म के बारे में जानता था। उसने कहा बबुआ पांडे के मकान में एक ऊंचा फाटक है, बैठक का कमरा है, एक तहखाना है जिसमें लोहे की अलमारी लगी हुई है। वे चौक में बैठकर भंग पीते हैं, शरीर पर मालिश कराते हैं, स्नान से पूर्व मिट्टी मुँह पर लगाते हैं। दो मोटर और एक फिटन है। उनकी स्त्री और दो पुत्र हैं जो मर गये। बबुआ अकेले रहते हैं मेरी स्त्री बनारस नहीं गई है।

यह सब बातें बनारस म्यु0 बो0 के चेयरमैन श्री0 महादेव प्रसाद एडवोकेट के पास लिखकर भेजी गई और उनसे जाँच करने की प्रार्थना की गई। उन्होंने जाँच की और बरेली को लिखा कि यह बातें सच हैं। बबुआ पाँडे का दूसरा नाम पं0 मथुरा प्रसाद पाण्डे है और वह बनारस में पाण्डे घाट पर रहते हैं। बनारस के और भी एक वकील पं0 उमाकान्त पाण्डे ने इसकी जाँच की और उसे सच पाया। बालक के मुँह से यह बातें सुनने के लिए बरेली में भीड़ लगने लगी। अन्त में बनारस के कलक्टर से घटना की जाँच में मदद देने की प्रार्थना की गई। स्वीकृति आ जाने पर श्री0 केकई नन्दन सहाय बच्चे सहित बनारस पहुँचे और कलक्टर, कोतवाल, सब जज, इनकम टैक्स अफसर आदि को साथ लेकर बबुआ पाण्डे के मकान पर पहुँचे। करीब एक हजार आदमियों की भीड़ साथ थी। लड़के ने अपना घर पहचाना और वह सब स्थान बताया जहाँ भंग आदि तैयार होती थी। अपनी चाची को भी उसने पहचाना और बताया कि बबुआ की स्त्री को लोग चाची कहते थे, वे बूढ़ी होने पर भी लम्बा घूँघट निकालती थीं। कलाई और कानों में सोने का जेवर पहनती थीं, उनके चेहरे पर चेचक के दाग थे। बबुआ को रबड़ी पसन्द थी, अफीम खाते थे और सोने की अंगूठी पहनते थे। उनके पुत्र जय मंगल की मृत्यु विष खिला दिये जाने के कारण हुई थी। बबुआ भगवतिया रंडी को नाचने गाने के लिए बुलाते थे उसका रंग साँवला और आवाज ऊँची थी।

बच्चे को दशाश्व मेद्य घाट पर ले जाया गया तो वह बरसात के कारण प्रबल वेग से चढ़ी हुई गंगा में घुसने से तनिक भी नहीं डरा और प्रसन्नतापूर्वक स्नान किया। एक पंडे को उसने देखते ही पहचान लिया। उस पंडे ने जब पान दिया तो बालक ने यह कह कर लेने से इनकार कर दिया कि मैं बड़ा पंडा हूँ अपने से छोटे पंडे के हाथ का पान नहीं ले सकता।

पं0 लक्ष्मी कान्त पाण्डे ने बताया कि बबुआ पाण्डे के पुत्र जय गोपाल की मृत्यु अक्टूबर मास में हुई थी। इस बालक का जन्म इसके पाँच मास बाद चार मार्च को हुआ था।

इसी प्रकार का वृत्तान्त बरेली के मुहरला में हुआ, वे विश्वनाथ नामक एक बालक का है। वह जब डेढ़ वर्ष का था तभी से उसने पीलीभीत के बारे में पूछ ताछ करना शुरू किया। वह बार बार पूछता रहा कि पीलीभीत यहाँ से कितनी दूर है और मुझे वहाँ कब ले जाया जायगा। जब वह तीन वर्ष का हुआ तो उसने अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त विस्तार पूर्वक बताया। माता पिता ने बच्चे की बातों को कुछ दिन तक इस लिए छिपा रखा कि ऐसी बातें बताने वाले अल्प जीवी होते हैं। इसलिए इन अमुक बातों के कारण यह बालक भी हाथ से न चला जाय। वे बराबर बच्चे को झिड़कते रहे और कोशिश करते रहे कि इन बातों को भूल जाय। अन्त में बात फैल ही गई। प्रथम घटना के अन्वेषक श्री0 केकई नन्दन सहाय जी लड़के के पिता बा0 रामगुलाम से मिले और उन्हें कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ बालक को पीलीभीत ले चलने के लिए तैयार कर लिया। सब लोग सीधे गवर्नमेंट हाईस्कूल पीलीभीत पहुँचे और हैडमास्टर साहब को जाँच के लिए साथ ले लिया गया। स्कूल में ही लड़के का सारा वृत्तान्त लिख लिया गया। 

उसने बताया कि मेरे चाचा हरनारायण कायस्थ जिन की उम्र 20 साल है, मुहल्ला गंज में रहते हैं। मेरा मकान दो मंजिला है और उसमें जनाने मर्दाने कमरे अलग अलग बने हुए हैं। मेरे मकान पर अक्सर दावतें पार्टियाँ और नाच रंग हुआ करते थे। मैंने अंग्रेजी के छटे दरजे तथा हिन्दी उर्दू की शिक्षा पाई थी। पिताजी मुझे रेशमी कपड़े पहनाते थे और जेब खर्च को रुपये देते थे। मुझे मछली खाने शराब पीने और रंडियों के यहाँ जाने का शौक था। मेरे पड़ोसी लाला सुन्दरलाल थे जिनका हरा फाटक है और एक तलवार तथा एक बन्दूक रखते हैं।

यह सब बातें लिख लेने के बाद हम सब लोग ताँगे में बैठकर बालक के कथित घर की ओर रवाना हुए। लाला सुन्दरलाल जी के मकान पर पहुँचते ही लड़का ताँगे में से उतर पड़ा कि यह लाला जी का हरा फाटक है। इसके बाद हम लोग लाला देवी प्रसाद जी रईस के मकान पर गये उसे पहचान कर लड़के ने कहा यही मेरा मकान है। लड़के ने वह सब स्थान बताये जहाँ शराब पीई जाती थी और नाच होता था। टूटी हुई ईंटों के बड़े ढेर के बीच में वह स्थान बताया जहाँ जीना था। एक पुराने फोटो को देखकर उसमें बताया कि यह मेरे चचा हर नारायण हैं यह बगल में बैठा हुआ लक्ष्मीनारायण मैं हूँ। इसके बाद उसे पुराने गवर्नमेंट स्कूल ले जाया गया जहाँ वह अपने पढ़ने की बात कहता था। लड़का परिचित स्थान की भाँति सारी इमारत में घूम आया और जीने द्वारा ऊपर छत पर चढ़ गया। वहाँ से दिखाई देते हुए अपने मकान और डिउहाडडडडडडड नदी की उंगली के इशारे से बताया। स्कूल के बारे में पूछने पर उसने छटे दर्जे का स्थान बताया सहपाठियों के नाम लिए और अध्यापकों की हुलिया बताई। पूर्व जन्म की संबंधित वेश्या का नाम उसने पद्मा बताया और तबले की जोड़ी दी गई तो उसे अच्छी तरह बजाने लगा। यद्यपि इस जन्म में तबला देखना तो दूर उसका इसके नाम भी नहीं सुना था। जिला सुपरेटेण्डेण्ट पुलिस और सिविल सर्जन को इसकी सूचना दी गई उनने स्वयं आकर इस सचाई को जाँचा। इन दोनों उदाहरणों से पुनर्जन्म की सचाई के बारे में पाठकों को बहुत कुछ जानकारी हो सकती है। अगले अंग में कुछ और वृत्तान्त दिये जायेंगे।
(ले. श्री प्रबोध चन्द्र गौतम, साहित्य रत्न, कुर्ग)

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