यह एक सचाई है कि मनुष्य जीवन की रीढ़ धर्म है। धर्म के बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं रह सकता। धर्म तत्व को यदि अपने जीवन में से निकाल डालें तो हम इतने भयंकर प्राणी हो जावें जितने सिंह, व्याघ्र, सर्पादि सहस्रों वर्षों में भी नहीं हो सकते। क्योंकि संसार के हिंसक जीवों की बुद्धि का विकास इतना नहीं हुआ है। मानवी बुद्धि के सामने यदि अधर्म ही एक वस्तु रह जाय तो भूतल अग्नि की सी दाहकता ग्रहण करले और सुख शान्ति नामक वस्तु इसे स्वप्न में भी उपलब्ध न हो सकें।
संसार में असंख्य मजहब दिखाई पड़ते हैं यह सब सच्चे धर्म की धुँधली तस्वीरें हैं। सब की धुरी सत्य के किसी अंश पर टिकी हुई है, परन्तु फिर भी उनमें से कोई पूर्ण सत्य तक नहीं पहुँच सका है। सभी अधूरे और अपूर्ण हैं। यदि ऐसा न होता तो एक धर्म को ग्रहण करके लोग पूर्ण संतुष्ट हो सकते थे। वर्तमान मजहबों में से किसी से भी लोग सन्तुष्ट नहीं है और उसके अनुयायी दिन प्रतिदिन विद्रोही होते जाते हैं। सच तो यह है मनुष्य का दिन प्रतिदिन विकास होता जा रहा है और साथ ही साथ सत्य, हित, सौंदर्य एवं आनन्द की इच्छा तीव्र होती जाती है। इस युग में पुराने जमाने की बैलगाड़ी भद्दी मालूम होती है और उसके स्थान पर साइकल, मोटर, रेल, जहाज आदि यन्त्रों का उपयोग बढ़ता जाता है। इसी प्रकार धर्म के नाम पर प्रसारित हुए मजहबों की स्थिति में भी परिवर्तन हो रहा है। इतने मजहबों के बढ़ जाने का कारण यह है कि जैसे जैसे बुद्धि और विचारों में परिवर्तन पैदा हुआ वैसे ही वैसे सामाजिक व्यवस्था एवं परिस्थितियों में लौट फेर हुआ, तदनुसार पुराने मजहब अनुपयुक्त जँचने लगे और आवश्यकता ने नये मजहबों को जन्म दिया। हेर फेर का यह क्रम आज भी जारी है। यह शताब्दी विज्ञान का युग है। वैज्ञानिक अन्वेषणों ने हमारी जीवन धारा को ही बदल दिया है। तब क्या मजहब उससे अछूते रह सकते हैं। साइंस ने प्राचीन किम्वदंतियों का तिरस्कार और बहिष्कार कर दिया है। मजहबों के विरुद्ध हर एक दिल में एक हलका सा प्रतिद्वन्दी खड़ा हो गया है। रूस-पृथ्वी के पाँचवें भाग से तो उसे देश निकाला ही दे दिया गया है। अगणित संगठित आन्दोलन मजहबों के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। समाज भय के कारण खुले रूप में किसी को कुछ कहने का साहस भले ही न हो पर सन्देह और अविश्वास का कोई अंश मन में अवश्य छुपा होगा। समाज शास्त्र और मानस शास्त्र के वर्तमान आचार्यों का मत है कि मजहबों पर जितनी अश्रद्धा इस समय फैली हुई है उतनी पहले कभी नहीं थी।
यहाँ एक प्रश्न आता है कि ‘फिर साम्प्रदायिक दंगे क्यों होते हैं? इस संबंध में एक लाट पादरी का मत है कि विशुद्ध साम्प्रदायिक दंगों का अस्तित्व मिट गया है। भारत वर्ष में मन्दिर मस्जिद और राम रहीम के नाम पर दंगों को भी साम्प्रदायिक नहीं मानना चाहिए। इसके पीछे राजनैतिक स्वार्थ छिपे होते हैं। महात्मा गान्धी का मत है कि भारतवर्ष का राजनैतिक आकाश साफ होते ही साम्प्रदायिक दंगों का अस्तित्व मिट जायगा।
मजहबों पर अविश्वास बढ़ते जाने के कारण संसार के समस्त पुजारी और मठाधीश चिन्तित हो रहे हैं। विचारक लोग समस्या की गम्भीरता को स्वीकार करते हैं। योरोप का प्रसिद्ध श्वेतांग चतुर्वेदी ब्राह्मण प्रो. मैक्समूलर अपनी पुस्तक में लिखता है कि संसार के सबसे बड़े मजहब बौद्ध, ईसाई, हिन्दू और मुसलमान है। साइंस की तरक्की से इन चारों की आन्तरिक दीवार बड़ी कमजोर हो गई हैं और इनके भीतर एक तरह की खलबली मच गई है।।
ईसाई मत के अनुयायी आजकल अधिक उन्नतिशील समझे जाते हैं। वे अपने पंथ को अधिक वैज्ञानिक, उदार और सत्य प्रमाणित करते है तथापि मजहबों पर अविश्वास की समस्या उनके सामने भी उग्र रूप से खड़ी हुई है। उस वर्ष पादरी कान्फ्रेंस में लंदन के राज पुरोहित ने कहा था- समस्त योरोप में नवीन सभ्यता और ईसाई मत में घोर युद्ध चल रहा है। लोगों का विश्वास पूजा विधान तथा कथा वार्ता पर से उठता जाता है और इंग्लैण्ड की अधिकांश जनता अपने मजहब की कुछ भी परवाह नहीं करती। पादरी ह्यूज सीसल का कथन है कि चारों ओर ईमान पर से विश्वास उठ रहा है और लोगों की शंकाएँ बढ़ती जाती हैं। फादर गिरनारल्ड कहते हैं- संसार के इतिहास में धर्म पर इतनी अश्रद्धा किसी समय नहीं हुई। विज्ञान ने इस अविश्वास को और भी बढ़ा दिया है। पादरी विलसन कहते हैं- लोग भय और लापरवाही के कारण अपने मनोगत भावों को प्रकट नहीं करते किन्तु वे भीतर यह मानते हैं कि धार्मिक विधान ढ़कोसला मात्र हैं। राबर्ट विलिचफोर्ड ने लिखा है- धर्म पुस्तकों के अन्दर अन्य जातियों के साथ भ्रातृ भाव रखने की नहीं वरन् घृणा करने की शिक्षा है। किसी खास जाति को ही ईश्वर की प्यारी कहना और उसी के साथ पक्षपात करने पर विश्वास करना परमात्मा के नाम पर कलंग पोतना और उसकी बेइज्जती करना है। डाक्टर वेल्स का कथन है- लोग अब किसी मजहब को स्वार्थ के कारण ग्रहण किये रहते हैं न कि धर्म की इच्छा से। शिक्षित पुरुष धर्म पुस्तकों को ईश्वर की वाणी नहीं मानते वरन् सिद्ध करते हैं कि ये किताबें मनुष्यों की लिखी हुई हैं, और उनके वे सब दोष मौजूद हैं जो आदमी में हो सकते हैं।।
उपरोक्त सम्मतियाँ केवल ईसाई मन पर ही लागू नहीं होती वरन् सभी मतों पर घटित होती हैं। सर्वत्र एक ही विचार धारा बह रही है। मौलवी मुहम्मद जरीफ अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि- आश्चर्य की बात है कि संसार में अब तक ऐसे लोग हैं जो खुदा, फिरश्तों, जिलात्, कयामत, हिसाब, मीजान और हूरों को मानते हैं। स्वामी दयानन्द ने एक स्थान पर लिखा है भारतवर्ष में धर्म स्त्रियों की कृपा से ही टिका हुआ है। हिन्दू धर्म के लिए सम्मतियाँ इकट्ठी करने की जरूरत नहीं। किसी भी धर्म स्थान और पुरोहित से जाकर पूछिये वह शपथ पूर्वक यह साक्षी देगा कि धर्म का दिन दिन ह्रास होता जा रहा है और लोगों की आस्था पूजा पत्री, धर्म विधान एवं कर्मकाण्ड पर से उठती जा रही है। पुजारियों को दूसरे पेशे अख्तियार करना और मन्दिरों का खण्डहर होते जाना इसी सच्चाई की गम्भीर और विश्वस्त गवाहियाँ हैं।
इस प्रश्न पर आधी शताब्दी से विचार हो रहा है और एक ऐसे सार्वभौम धर्म की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। जिसकी छाया में हर देश ओर हर जाति का मनुष्य बिना भेदभाव के बैठ सके और शान्ति एवं सन्तोष उपलब्ध कर सके। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध पत्र इंगलिश मैन के विचार मनन करने योग्य हैं वह लिखता है- यह सिद्ध करना तो आसान है कि अमुक मजहब झूठा है। लेकिन इससे काम नहीं चलेगा। मनुष्य जीवन के लिए धर्म की नितान्त आवश्यकता है बिना उसके किसी भी प्रकार काम नहीं चल सकता। इसलिए हमें एक सार्वभौम धर्म को प्रकाश में लाना होगा जिससे विश्व बन्धुत्व फैलाया जा सके और उद्विग्न मनुष्यों के हृदयों को शान्ति प्राप्त हो सके। अब आगे का रचनात्मक कार्य होना चाहिए। मरे हुए मजहबों को कोड़े लगाना ठीक नहीं क्योंकि मरते को मारना शूरता नहीं निर्दयता है। उन्हें अपनी अन्तिम साँसे लेने देने में कोई बाधा नहीं देनी चाहिए, वरन् सहानुभूति और आदर पूर्वक उनसे कहना चाहिए- आज आप बेकार हैं, फिर भी एक समय आपकी आवश्यकता थी और अपने समय में आपके द्वारा हमारे समाज की बड़ी सेवा हुई थी।
सार्वभौम धर्म वही हो सकता है जिसका उल्लेख भगवान मनु ने धर्म के दश लक्षण बताते हुए किया ह और यम नियमों में जिसका निचोड़ योगाचार्य महर्षि पातंजलि ने रख दिया हैं। अगले अंक में उन पर विस्तृत प्रकाश डाला जायेगा।
संसार के कोने कोने में मजहबों के जो जाल बिछे हुए हैं वह वास्तव में धर्म नहीं हैं। मजहबों को धर्म के नाम से पुकारना भूल है। यद्यपि उनकी आधार शिला धर्म के ही किसी टुकड़े पर रखी हुई होती है। परन्तु वे धर्म स्वरूप नहीं हैं। मजहबों की आलोचना द्वारा धर्म की बुराई करना नहीं है। चाहे कोई नास्तिक से नास्तिक हो, प्रकृतिवादी हो, ईश्वर को न मानता हो, पूजा पाठ न करता हो, धर्म-आडंबरों को कोसता हो फिर भी वह अधार्मिक नहीं हो सकता। मनुष्य धार्मिक है। वह धर्म का पालन करता है। उसकी स्वाभाविक रुचि धर्म की ओर होती है। समाज की सारी व्यवस्था धर्म के ऊपर टिकी हुई है उसके भंग होने से तत्क्षण उपद्रव मंच हो जाता है। धर्म द्रोही को कठोर राजदंड देने की व्यवस्था भी सर्वत्र प्रचलित है।
धर्म से हमारा अभिप्राय सदाचार, शुद्ध आचरण और उच्च निस्वार्थ एवं प्रेममयी याचनाओं से है। खुद कष्ट सहकर भी दूसरों को सुख देना हमारी दृष्टि में धर्म है। दूसरे शब्दों में किसी के अधिकारों में बाधा न पहुँचाना धर्म है। जिनके मन में दूसरों की भलाई और सहानुभूति के विचार आते रहते हैं वह पूरा और पक्का धार्मिक है। भले ही वह तिलक न लगाता है। भले ही उसने दाढ़ी न बढ़ाई जो शिक्षा ग्रहण करने वाले और सबमें भलाई तलाश करने वालों के लिए हर एक मजहब में अच्छाई मिल सकती है। बुरी बात को भी अच्छी नजर से देखा जाय तो उससे अच्छाई ही प्रतीत होगी। परन्तु न्याय, दृष्टि और परीक्षण के तौर से देखने पर उनमें कुछ ऐसे दोष दिखाई देते हैं जो मनुष्य से अलग करते हैं। कोई दबी जबान से कहता है तो कोई कड़ुवे शब्दों में कहते सब मजहब यही हैं कि दूर से मजहब वालों को नीच समझो, घृणा करो और उन्हें सताओ। कम से कम उनके प्रचारक तो अवश्य ही ऐसा कहते हैं।
मजहबों के नाम पर अब तक कितना रक्तपात संसार में हुआ है। कितने जुल्म और अत्याचार हुए हैं वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। सर गवर्नर फोर्ट का कथन है कि ‘मजहबों ने मनुष्य को सिखाया है कि वे दूसरों से घृणा करें, विरोधियों पर जुल्म और अपने परिपंथी का पक्षपात करने से ईश्वर खुश होता है और स्वर्ग की नियामतें दे देता है। इस अंध विश्वास पर यकीन करने से दुनिया में फूट फैली और लोग एक दूसरे का सिर तोड़ने की हैवानी आदत पर लौट आये। इस प्रकार मजहब मनुष्य को आगे नहीं बढ़ा सके वरन् पीछे लौटा लाये।” अमेरिका के एक स्वतन्त्र विचारक पादरी एम॰ रेनाल्ड कहते हैं कि—’मजहबों की यह आवाज कि हमें ग्रहण कर लोगे तो तुम्हारे सारे गुनाह माफ कर दिये जायेंगे, बहुत खतरनाक है। इसने अफीम का सा नशा पैदा किया है और लोगों को समझने सोचने की शक्ति को छीन लिया है। वह एक प्रकार का झूठा लालच है जिसे दिखाकर आदमी को पथभ्रष्ट करने की कोशिश की जाती है।”
सब मजहबों में ऐसा विश्वास है कि अमुक धार्मिक उपादान को पूरा करने से इच्छित फल, सुख, स्वर्ग या मुक्ति मिल जायगी। हिन्दू लोग गंगा स्नान करने, तीर्थ यात्रा करने से अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाने और बहुत सा पुण्य मिलने की बात पर विश्वास करते हैं। क्रूस को हाथ लेकर बपस्मा पढ़ता हुआ ईसाई विश्वास करता है कि मेरे पापों की गठरी प्रभु ईश के सिर पर गिर पड़ी। इसी प्रकार की बातें बौद्ध, जैन, इस्लाम आदि मजहबों में हैं। इन बातों की दो ही प्रतिक्रिया होती हैं या तो इस नशीले प्रचार से मोहित होकर अर्द्ध-निद्रित अवस्था में मनुष्य गिर पड़ता है और तर्क बुद्धि को दूर रखकर विश्वास कर लेता है या फिर इसके विरुद्ध बगावत करने को खड़ा हो जाता है। कुछ चालाक आदमी अपना स्वार्थ साधन करने के लिए एक तीसरी ही तरकीब निकाल लेते हैं वे भीतर ही भीतर तो मजहबी धर्म के घोर अविश्वासी होते हैं किन्तु बाहर से पक्के धार्मिक होने का ढोंग बनाकर अपना मतलब गाँठते हैं। ऐसे धूर्त धर्माचार्य आपको चाहे जहाँ पर्याप्त संख्या में मिल सकते हैं जो खुद तो बुरे से बुरे काम करते हैं पर दूसरों को उपदेश देते हैं। यदि वह धार्मिक विधान इतने ही उपयोगी हैं तो वे स्वयं उनका पूरी तरह पालन क्यों नहीं करते?
दार्शनिक आस्टन का मत है कि “इस शताब्दी में मजहबों का खोखलापन दुनिया के सामने अच्छी तरह प्रकट हो गया है। अब हर आदमी इस बात पर अविश्वास करने लगा है कि किसी मजहब को ग्रहण करने मात्र से कोई आध्यात्मिक लाभ हो सकता है। मजहबी बुराइयों को लोग समझने लगे हैं विश्व बंधुत्व की भावना फैलाये बिना संसार में शान्ति नहीं हो सकती और विश्व प्रेम का प्रसार मजहबी गुलामी से छुये बिना नहीं हो सकता।” प्रसिद्ध तत्वेत्ता वेल्स कहते हैं कि निकट भविष्य में एक महान धार्मिक क्रान्ति होने वाली है जिसमें लोग उन बहकाने वालों से लड़ेंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर अपना मतलब गाँठने और जनता को गुमराह करने का पेशा अख़्तियार कर रखा है। सराये अब एक ऐसे मजहब की तलाश कर रहा है जिसके नीचे बिना किसी भेदभाव के लोग आपस में भाई की तरह मिलजुल सकें और आध्यात्मिक शान्ति उपलब्ध कर सकें।
प्रो. चार्ल्स इजयट का विश्वास है कि ज्यों ज्यों ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जायगा त्यों त्यों अन्ध विश्वास उठता जायेगा। संसार का आगामी धर्म देवताओं के सामने नाक रगड़ने, पत्थरों के पूजने में शक्ति व्यर्थ करने, पशुओं की कुरबानी करने, थोड़े से पैसे खर्च करके स्वर्ग खरीदने का नहीं होगा। दुनिया एक ऐसे धर्म के नीचे संगठित होगी जिसमें सदाचार और त्याग तपस्या को प्रथम स्थान दिया जायगा और देश भक्त, त्यागी, पवित्र सिद्धान्तों के प्रचारक सत्य मार्ग के शिक्षक ही धर्माचारी का पद ग्रहण कर सकेंगे। धार्मिक व्यक्ति चंद मिनट पूजा पत्री करके ही अपना कर्तव्य समाप्त नहीं कर चुकेंगे वरन् प्रेम और सत्य का प्रचार करना जीवन का एक मात्र लक्ष्य बनायेंगे। सच्चा धर्मानुष्ठान वह समझा जायेगा जिसमें अधिक से अधिक निस्वार्थ भावना के साथ लोक कल्याण के लिए उच्च से उच्च त्याग किया गया होगा।
ऐसा सार्वभौम धर्म शास्त्रों में मौजूद है। भगवान मनु ने आज से हजारों वर्ष पूर्व उसकी आवश्यकता अनुभव की थी और दश लक्षणों के साथ उसे दुनिया के सामने प्रकट किया था तब उसे इस कान से सुनकर उस कान निकाल दिया गया था, पर अब दुनिया मजहबों के जाल से सहस्रों वर्षों तड़पने के बाद अपनी भूल समझी है। आज वह फिर उसी आदि धर्म की महत्ता को समझने और उसी की छाया में सुख शान्ति प्राप्त करने के लिए आतुर हो रही है।
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