Friday, October 9, 2015

किधर जा रहे हो?

पाठक अपने जीवन को सफल बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। हर आदमी यह चाहता है कि मैं जीवन का फल प्राप्त कर सकूँ, बड़ा बन सकूँ, औरों से मुझमें विशेषताएं हों, जिन कामों को कर सकने में, दूसरे लोग समर्थ नहीं हुए हैं उन्हें मैं संपादित कर सकूँ, उच्च पद प्राप्त कर सकूँ। यह इच्छाएं हर आदमी को सताती हैं। इन्हें पूरा करने के लिए आदमी भरसक कोशिश भी करता है। उसने अपनी लड़की के विवाह में बड़ा दहेज दिया, उसने पुत्र के विवाह में रुपयों की बखेर की, उसने अपने पिता की मृत्यु पर बड़ा भारी भोज दिया, उसने चारों धामों की तीर्थ यात्रा की, उसने अमुक मंदिर की मूर्ति पर सोने का छत्र चढ़वाया, उसने अपने खर्च से कई दिन लोगों के लिए तमाशा करवाया, उसने चांद्रायण व्रत किया, इस प्रकार के काम हम रोज सुनते और देखते हैं। करने वाला इनमें काफी त्याग करता है, कष्ट उठाता है, उदारता प्रकट करता है और अपनी सुख सामग्री में कमी कर लेता है। यहाँ इस बात पर बहस नहीं है कि इन कार्यों का क्या फल होता है। धन से उच्च पद मिलता है या नहीं। कर्म का फल मिलता है यह बात निर्विवाद है।

उपरोक्त पंक्तियों का तात्पर्य इतना ही है कि महत्ता प्राप्त करने की उम्र आकाँक्षा हम धारण किये हुए हैं। कितनी ही अविकसित दशा में, कितनी ही पिछड़ी परिस्थितियों में हम हों यह दैवी प्रेरणा हर घड़ी भीतर ही भीतर नोंचती रहती है। जिसका ज्ञान जितना है या जो जैसी परिस्थिति में प्रसन्न है, उसे उसी के अनुसार अपना कार्यक्रम बनाना पड़ता है। हम उस मोटर के समान हैं जिसका पहिया हर घड़ी घूमता रहता है। ड्राइवर उसे अपनी इच्छानुसार चाहे जहाँ ले जा सकता है। इच्छा करते ही वह पूरब, पच्छिम, उत्तर, दक्खिन, चाहे जिधर की सड़क पर सरपट दौड़ लगा सकती है। महत्व कामना दबाई नहीं जा सकती क्योंकि वह मनुष्य का धर्म और दैवी प्रेरणा है।

ईश्वरीय नियम है कि तुम्हें आगे बढ़ना पड़ेगा। संसार चक्र आगे बढ़ रहा है, नन्हे बालक, पौधे, घास-पात, कीड़े-मकोड़े, वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी, आकाश आग बढ़ने के लिए सब को घसीटा जा रहा है। इस सृष्टि की धारा ही ऐसी है। वृद्धि, उन्नति, विकास इसका धर्म है। बढ़ो, बढ़ो, बढ़ो, जर्रे जर्रे से यही आवाज आ रही है बढ़ो! आगे बढ़ो! उस घूमते हुए पहिये को ध्यान से देखो, क्या वह निरंतर आगे नहीं बढ़ रहा है? जब तुम किसी भौतिक विज्ञानी से विकासवाद के संबंध में पूछने जाओगे तो वह तुम्हें विस्तारपूर्वक बतायेगा कि आगे बढ़ने का निश्चित परिणाम घूमना है। तुम यदि लगातार चलते ही रहो तो घूमकर वहीं आ जाओगे जहाँ से चले थे। पृथ्वी, सूर्य, नक्षत्र, आदि सब चल रहे हैं इसलिए घूम रहे हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो गया है कि प्रकृति का प्रत्येक परमाणु घूम रहा है अर्थात् वह बिना ठहरे आगे की ओर बढ़ता जा रहा है। ध्यानपूर्वक सुनलो, अच्छी तरह समझलो, भली प्रकार अनुभव कर लो कि तुम बढ़ रहे हो, एक निश्चित चेतना द्वारा तुम्हारे मन को बढ़ने के लिए अग्रसर किया जा रहा है। फिर भी उसकी गति किस ओर हो यह बात तुम्हारे ही ऊपर छोड़ी गई है। ईश्वर ने एक गतिवान यंत्र देकर जीव को इस चतुर्मुखी दुनिया में घूमने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया है।

जिस मोटर का पहिया बराबर घूम रहा हो और उसका ड्राइवर यदि उसे चाहे जिस ओर चला जाने दे तो वह कहाँ जा पहुँचेगा? जिस सड़क पर वह दौड़ लगा रहा है वह कहाँ पहुँचेगी इस बात की जानकारी उसे रखनी चाहिये। सड़क साफ है, मुझे पसन्द है, इस पर बहुत से आदमी चल रहे हैं, इन्हीं तर्कों के आधार पर जो अपना कार्यक्रम बना लेते हैं वे अंधेरे में हैं और वे उस अन्धे के समान हैं जो बिना सोचे विचारे चाहे जिधर को कदम उठाता जा रहा है। ऐसे सारथी को क्या कहा जाय जो चलती हुई सड़क को देखकर अपना रथ भी उसी पर डाल देता है। कहीं तुम भी ऐसे ही संचालक तो नहीं हो।

जीवन केन्द्र जहाँ से आरंभ होता है वहीं से हजारों लाखों पगडंडियाँ निकलती हैं। यह मत स्वातन्त्र्य के भेद से विभिन्न दिशाओं को जाती हैं। नीच उद्देश्य, पाशविक वासना और भोगेच्छा की पगडंडियाँ हरी भरी मालूम होती हैं। थोड़ी ही दूरी पर सब्जबाग दिखाई देते हैं। इसलिए ललचा कर हरे भरे खेतों में पिल पड़ने वाली भेड़ों की तरह हम में से अधिकाँश लोग उधर पिल पड़ते हैं और इस बात को भूल जाते हैं कि इसका परिणाम क्या होगा? ऐसी हरकत करने वाली दूसरी भेड़ों को किसान द्वारा लाठियों से पीटे जाते उन्होंने देखा होता है किन्तु अपनी पीठ पर धमाका हुए बिना उनकी जड़ता दूर नहीं होती। उच्च उद्देश्यों के मार्ग उतने लुभावने नहीं है। हमारी जड़ता दूर पर खड़े हुए अमृत फलों को नहीं देख पाती और पास की कठिनाइयों एवं कम चलने वाले रास्ते को देखकर निराश हो जाती है। ऐसी जड़ता और अदूरदर्शिता भेड़ों को ही शोभा देती है। कहीं तुम भी ऐसी ही भेड़ तो नहीं हो?

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