Friday, October 2, 2015

अरे यह सोने का पिंजड़ा है!

पथिक? अरे हाँ, सभी पथिक हैं, कौन यहाँ रहने आया है?
किसे प्रेम है इस ‘पड़ाव’ से? किसे यहाँ रहना भाया है?
कोई घड़ी, दो घड़ी, कोई कुछ क्षण का मेहमान हुआ,
सभी बनेंगे चलते, किसने, भला यहाँ ‘छप्पर’ छाया है? 1!!

कोई ठहर गया यदि कुछ क्षण, तो उसने जागीर न लूटी।
कोई चला गया वे ठहरे, तो उस की तकदीर न फूटी!
क्या पाया उसने जो ठहरा? क्या खोया, जो चला गया?
एक ‘छलावा’ यहाँ ठहराना, ऐसे सांत्वना है यह झूठी!! 2!!

यहाँ ठहर कर कुछ क्षण खोना, कोई ‘अनुपम त्याग’ नहीं है।
राह भूल कर इस पड़ाव से, पड़ रहना सौभाग्य नहीं है!!
एक भूल है यहाँ ठहरना, एक ‘प्रमाद’ बसेरा है,
यहाँ ठहर कर एक पथिक भी, तो, निकला बदाग नहीं है!! 3!!

इसे छोड़ना है यह निश्चय, किन्तु छोड़ना सरल नहीं है!
पुँछ जायेगा जो ‘दामन’ यह वह आंसू तरल नहीं है!!
यह वह रंग है, जिसका धुलना, कपड़े ही को ले बैठेगा,
जो पीयूष बना बैठा है, वही काल सा गरल यही है!! 4॥

जो आया इस थल में फिर वह, तिल भर आगे चल न सका है!
लौट लौट आया है, धक्के, खाकर भी वह टल न सका है!
यह वह पथ है, जिसके आगे चलते राह काँपते पग है,
यह वह महाव्याल है, जिसके , आगे दीपक बल न सका है। 5॥

यहाँ, यही है वह सराय, जिसमें ‘माया’ का डेरा है!
यही, वही चक्कर है, जिसका, आदि अन्त कुछ ज्ञात नहीं,
यह वह ‘पुकरा’ है कहता जग, जिसको “रैन-वसेरा” है!! 6॥

क्यों न चलें खुलने से पहले, रवि की आँखें, जब चलना है?
पड़े-पड़े करवट क्यों बदलें यहाँ न जब कुछ भी मिलना है!
कमर कसें, पथ अपना नापें, क्यों खोवें हम यहाँ कमाई?
चोर भरा जग, हम एकाकी, फिर न किसी का वश चलना है! 7॥

यह शीतल छाया, फल पत्तियाँ, यह सुन्दरता, सु-मधुर-स्वर।
अरे यही तो हैं वह जादू, जो न खिसकने देगा तिलभर॥
यह सोने का वह पिंजड़ा है, जिससे मुक्ति न जीवन भर भी,
यह ‘दूधभाव- ही की तो कैंची, काट रही है उड़ने के पर॥ 8॥

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