कई मतों के अनुसार मरने के बाद हम चौरासी लाख योनियों में घूमते हैं। उन सब में एक चक्र घूम आने के बाद फिर मनुष्य शरीर पाते हैं। योनियाँ कितनी है इस पर बहस नहीं, आमतौर से भारतवर्ष में मोटा सिद्धान्त यह माना जाता है कि कई बार नीच योनियाँ प्राप्त करके तब नरदेह मिलती है। जिन आचार्यों ने इस मत का प्रतिपादन किया है, उन्होंने लोगों को मनुष्य शरीर की श्रेष्ठता और बहुमूल्यता का अनुभव करने के लिए ही यह उपदेश दिया प्रतीत होता है। क्योंकि तर्क, अनुभव और प्रमाण इसके विपरीत जाते हैं। मोक्ष न मिलने तक नाना जन्म धारण करना तो ठीक है परन्तु मनुष्य का नीच अविकसित जीवों में जन्म लेना ठीक नहीं। मनुष्य का जीव उस चेतना में जग गया होता है कि वह ज्ञान रहित योनियों में नहीं गिरता। उसने अपनी सूक्ष्म इन्द्रियाँ, बुद्धि, मन और अंतःप्रेरणा इतनी जाग्रत कर ली होती है कि पशु शरीर में वे समा नहीं सकती। निश्चय ही किसी बैल को उस ङ्क्षपजड़े में कैद नहीं किया जा सकता जिसमें बुलबुल पाली जाती है।
यह तर्क करना निरर्थक है कि मनुष्य ने जो पाप कर्म किये हैं उनका शारीरिक दण्ड नीच योनियों में जाये बिना कैसे मिलेगा? विचार पूर्वक देखा जाय तो पशु योनि दुख या दण्ड योनि नहीं है। जिस प्रकार का हमें सुख- दुख होता है वैसी अनुभूति नीच जीवों को नहीं होती। केवल तात्कालिक शारीरिक कष्ट उन्हें होता है परन्तु मानसिक व्यथा तो पास नहीं फटकती। सूक्ष्म परीक्षण करने पर पशु दण्ड योनि नहीं ठहरती। दया का पात्र दुखी जीवन भी मनुष्य जैसा क्लेश और कष्ट अनुभव नहीं करता। यदि दुख ही अनुभव न हो तो दण्ड कैसा? सच पूछा जाय तो मनुष्य शरीर ही दण्ड योनि है। जरा सा फोड़ा हो जाने या किसी के द्वारा अपमानित होने पर कितनी व्यथा वह अनुभव करता है? फिर शारीरिक कष्ट भी इसी योनि में अधिक है। रोगी, अपाहिज, पागल, अंग- भंग जितनी संख्या में मनुष्य होते हैं उतने पशु नहीं।
जिन मनुष्यों की भावनाऐं नीच है। स्वार्थ, हिंसा, कपट, दुराचार से जिनकी वृत्तियाँ भरी हुई हैं। वे अपनी इच्छाओं से आकर्षित होकर ऐसे समाज में जन्म धारण करते हैं जहाँ उनकी पूर्व सम्पत्ति से मिलती जुलती चीजें प्राप्त हो सकें। पुरानी इच्छाओं का अर्थ यह नहीं है कि जन्म भर जो कार्य किसे हैं वही निश्चित आकांक्षाऐं है। नहीं, इच्छाऐं भौतिक वस्तुऐं हैं उन्हें काट डालना और नई बना लेना मनुष्य के वश से बाहर की बात नहीं है। अजामिल और गणिका की कथाऐं इसकी पुष्टि करती है। अकेले वाल्मीक ही नहीं असंख्य कुकर्मी कुछ ही क्षणों के पश्चात् धर्मात्मा हो गये हैं। रामायण की ‘‘अन्त राम कहि आवत नाही’’ वाली चौपाई इसकी यथार्थता सिद्ध करती है कि अन्तिम क्षणों में भी यदि भावना प्रबलतम, उच्च हो जाय तो भव सागर से निस्तार हो सकता है। पुराने कल्मष कट सकते हैं। नया जन्म धारण करने के लिए वे इच्छाऐं अधिक महत्त्व रखती हैं जिन्हें मृत्यु से पूर्व पाने के कारण जीव अपनी स्वतन्त्रतावस्था में धारण किये रहता है। इनका एकदम पलट जाना तो एक अपवाद हुआ। साधारणतः यह जीवन भर के कामों और विचारों के कारण बनी होती है और प्रबलतम परिवर्तन के बिना काटी नहीं जा सकती। यदि ऐसा न होता तो लोग जन्म भर साधन करने की अपेक्षा केवल बुढ़ापे के लिए आत्म चिन्तन छोड़ रखते।
अपनी भावना के अनुकूल जन्म धारण करने में एक और सन्देह हो सकता है कि इससे तो जीव सब प्रकार स्वतन्त्र हो गया, उस पर कर्मफल प्राप्त करने के लिए कोई नियन्त्रण नहीं रखा गया? इसका पूरा समाधान तो ‘‘जीव का अस्तित्व और उसकी क्रिया’’ विषय को पूरी तरह समझे बिना नहीं हो सकता। पाठक इस तत्व को भी अखण्ड ज्योति के किसी आगामी अंक में पढ़ेंगे। यहाँ पर तो इतना ही कहा जा सकता है कि नियन्त्रण हैं अवश्य, पर जेलखाने की तरह नहीं। उसकी छूट रिहाई, सजा, मजदूरी किसी दफ्तर में नहीं रखी जाती। वरन् प्रकृति के ऐसे नियमों के साथ उसे जकड़ दिया जाता है जो गुप्तचर के समान हर क्षण पीछा करते हैं और दण्ड पुरस्कार चुकाने की व्यवस्था करते रहते हैं। जीव का परतन्त्र कहना ईश्वर का अपमान करना है वह कर्म करने और अपने योग्य साधन प्राप्त कर लेने में सर्वथा स्वतन्त्र है। यहाँ ईश्वर की लीला देखिए वे ही कर्म और साधन उसकी इच्छा के अनुरुप फल देने वाले बन जाते हैं। जो सुस्वादु भोजन एक के लिए पुष्टिकर हैं दूसरे के वे ही प्राण ले सकते हैं। प्रकृति का खजाना सबके लिये खुला है। वस्तुऐं वे ही है और सबको मिल सकती हैं परन्तु पीतल के बर्तन में पड़ते ही खटाई कड़ुवी हो जाती है। मनुष्य की नीच और उच्च आकांक्षाऐं साधारण पदार्थों को ही अपने दुख सुख का कारण बना लेती हैं। यही स्वर्ग नरक है। पाप से नरक और पुण्य के स्वर्ग इसी प्रकार मिलता है। हरे भरे वन पर्वतों में जहाँ तपस्वी स्वर्ग सुख भोगते हैं, वही एक कायर पुरुष रह जाय तो दो ही दिन में अधमरा हो जायेगा। चाहे कुछ भय वहाँ न हो, पर दिन को शेर और रात को राक्षस उसके मस्तिष्क के चारों ओर नाचेंगे।
आचार्यों का अनुभव है कि मनुष्य मरने के बाद मनुष्य योनि में ही जन्म धारण करता है। यह बात अनुभव में आई हुई भी है। प्रति वर्ष ऐसी अनेक घटनायें समाचार पत्रों में छपा करती है कि अमुक बच्चे ने अपने पूर्व जन्म का हाल बताया, पुराने सम्बन्धियों को पहचाना, कम्पनी गुप्त बातों को बताया आदि। ऐसी घटनाओं पर दृष्टि डालने और अनेक पूर्व जन्म और वर्तमान की स्थिति पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों की दशा प्रायः सब दृष्टियों से मिलती जुलती है। यदि अत्यन्त पुण्य कर्मों से मनुष्य जन्म मिलना माना जाय तो पिछले जन्म के उनके कोई कर्म बहुत ऊँचे नहीं मालूूम पड़ते। इस प्रकार यह मानना पड़ता है कि जिस कक्षा तक मनुष्य पहुँच गया है उससे नीचे नहीं उतर सकता। जीव का धर्म विकास करना है वह पूर्णता के प्राप्त होने के लिए भीतर ही भीतर प्रबल प्रयत्न कर रहा है। और विकास की ओर अग्रसर हो रहा है। नीचे उतरना नहीं हो सकता, वह पीछे नहीं हट सकता। भले बुरे कर्मों का इस समय पाप पुण्य की दृष्टि से विचार न करके जड़ता और चेतना की दृष्टि से सन्तुलन कीजिए। आपको मालूम पड़ेगा कि चालाकी चोरी, ठगी के मूल में भी जड़ता से उठ कर चेतना और विकास में जाने का प्रयत्न है। भले ही उस भीतरी प्रेरणा की दुष्वृत्तियों ने गड़बड़ा कर अपने सांचे में ढाल लिया है, परन्तु उसके पीछे विकास का तत्व अवश्य है। ऐसा विकाशोन्मुखी मनुष्य प्राणी निश्चय ही अगले जन्म में अपने तुल्य देह पर आकर्षित होगा और उसे ही ग्रहण कर लेगा।
किन्हीं पशुओं में बहुत अधिक ज्ञान होता है। यहाँ यह न समझना चाहिए कि इसमें मनुष्य की आत्मा ने प्रवेश कर लिया है। असल में वे नीच जीव ही बहुत दिनों से मनुष्य के संसर्ग में रहते और क्रमिक विकास में बढ़ते- बढ़ते इस योग्य हो गये होते हैं कि अपनी वर्तमान श्रेणी से उठकर ज्ञान योगियों की ओर बढे।
कभी कभी कुछ उच्च आत्माऐं नीच वातावरण में जन्म ले लेती है। ऐसा वे स्वेच्छा से करती हैं। उनका उद्देश्य उस श्रेणी के लोगों के बीच में से दूषित विचार मण्डल बदलने आदि की इच्छा होती है।
हर जगह कुछ दिनों बाद ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं।
परन्तु लोग उसकी उपेक्षा करते हैं। पूना में एक गरीब घराने का बालक अपने
पूर्व जन्म संबंधी कुछ बातें बता रहा था। वहाँ के शिक्षित लोगों का ध्यान
मैंने आकर्षित किया तो उन्होंने कहा कि जीवित रहने के लिए जो काम करने हैं
उन्हीं के लिए हमारे पास समय नहीं है तो पूर्व और पश्चात जन्मों के बारे
में जानकर क्या करना है। प्रायः ऐसी ही भावना हमारे समाज की है। इसे
मूर्खता कहा जाय या दीर्घसूत्रता? भविष्य की चिन्ता न करने से बढ़कर और
क्या अज्ञान हो सकता है। बच्चों का विवाह करना है, मकान बनवाना है, बुढ़ापे
के लिए धन जोड़ना है, आदि चिन्ताएं तो हम करते हैं पर मरणोत्तर जीवन की
कुछ भी तैयारी नहीं करते। यहाँ तक कि इस बात की शोध भी अच्छी तरह नहीं की
जाती कि मरने के बाद हमारा क्या होता है।
यह उपेक्षा मानव बुद्धि पर बट्टा लगाने वाली
है। जिस प्रकार हम अपने भविष्य के सारे प्रोग्राम बनाते हैं और उनकी
जानकारी प्राप्त करते हैं उसी प्रकार उस जीवन के बारे में भी दिलचस्पी लेनी
चाहिए जो एक दिन निश्चयपूर्वक मिलने वाला है। यदि उस जीवन के बारे में
बिलकुल अनजान रह जायगा तो उसे पशु की भाँति कष्ट उठाना पड़ेगा जो जंगल में
से पकड़ कर तुरन्त ही खूँटे से बाँधा गया है। अजनबी पन के कारण कैसी विषम
परिस्थिति का सामना करना पड़ता है, इसे मुक्त भोगी ही जानता है।
मरने के पश्चात पुनर्जन्म होता है। जिन्होंने
अपनी आत्मा का उत्थान करके उसे मुक्त बना लिया है उनकी बात को छोड़कर शेष
सभी साधारण प्राणी जन्म मरण के चक्र में घूमते हैं। मनुष्य मरने के बाद
मनुष्य जाति में ही जन्म लेता है यह पिछले अंकों में समझाया जा चुका। आत्मा
जितना विकास की प्राप्ति हो चुका उससे पीछे नहीं हट सकता। शरीर जितना बड़ा
हो गया उससे छोटा नहीं हो सकता। बुरे कर्मों के फल इस योनि में भी मिलते
हैं। पशु योनि की अपेक्षा तो सच्ची दण्ड योनि मनुष्य शरीर ही है क्योंकि
जितनी वेदनाएं इसमें हैं अन्य किसी में नहीं। पूर्व जन्म की स्मृति के
जितने भी उदाहरण मिलते हैं वे प्रायः सब के सब यही साक्षी देते हैं कि
मनुष्य का पुनर्जन्म नर देह में ही होता है।
अभी कुछ ही दिन की बात है हमारे कुर्ग में एक
ऐसा ही प्रत्यक्ष प्रमाण लोगों ने देखा था बड़े बाजार के आखरी कोने पर
राजपूतों की एक गली है। उसमें तेरहवाँ मकान बुल्ली राजपूत का है। इसका एक
छोटा चार वर्षीय बालक रामनगर जाने की धुन लगाये हुये था। बार-बार घरवालों
से कहता था मुझे मेरे घर रामनगर पहुँचा दो। मैं रहा हूँ। मेरी स्त्री मेरे
बिना चिन्तित होगी। बहुत दिनों तक उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
जब लड़के द्वारा अपनी बात बार-बार दुहराई जाती रही तो चर्चा बस्ती में
फैली। मुझे भी मालूम हुआ। तब हम सब लोग जिनमें एक वकील, दो अध्यापक, एक
पोस्ट मास्टर तथा कई प्रतिष्ठित व्यक्ति थे लड़के को लेकर रामनगर पहुँचे।
वहाँ हमारे बहुत से परिचित व्यक्ति थे, उन में से कई को बुला लिया गया और
उनके साथ मछवाह टोला पहुंचे। यहाँ पहुँचते ही उस चार वर्षीय बालक ने कहा अब
मुझे अपने मकान का रास्ता अच्छी तरह मालूम है आप लोग पीछे-2 चले आइये। हम
लोग पीछे लड़का आगे था। बालक सीधा दौड़ता हुआ रामधन कहार के घर में घुस
गया। वहाँ मृत रामधन की स्त्री और उसके दो छोटे बालक बैठे हुए थे। लड़का
बिना झिझके उनके पास चला गया और दोनों लड़कों का नाम ले लेकर पुकारा।
स्त्री से पूछा तुम्हें मेरी याद तो नहीं आती? कोई कष्ट तो नहीं है? मरते
समय मेरी जबान बन्द हो गई थी इसलिए तुम से कुछ कह न सका था। मेरी सोने की
बालियाँ घर के इस कोने में एक हाथ गहरी गढ़ी हुई है उन्हें खोदकर निकाल लो।
लोगों ने वह जगह खोदी तो पीतल की छोटी सी डिब्बी में उसी जगह सोने की
बालियाँ रखी हुई मिलीं। पड़ोस में रामजी भड़भूजे की दुकान थी। लड़के ने
भीड़ में खड़े हुए रामजी को पहचाना और कहा तुम्हारे तेरह आने पैसे मेरे ऊपर
कर्जा हैं सो मैं तुम्हें दूँगा। उसने अपने वर्तमान पिता बुल्ली से कहा
चाचा इनके तेरह आने पैसे चुकादो। बेचारे बुल्ली के पास कुछ नहीं था इसलिए
हम लोगों ने उसके पैसे चुकाये। परीक्षा के तौर पर वहाँ उपस्थित लोगों की
भीड़ ने उससे तरह तरह के प्रश्न किये जिनके उसने यथाविधि सबके उत्तर ठीक
दिये। कभी-कभी बालक भूल भी जाता था और किसी के संबंध की सारी बातों को किसी
के साथ जोड़ देता था। परन्तु वह घटनाएं शत प्रतिशत ठीक होती थी। भूल केवल
घटना और उसके संबंधित व्यक्ति को जोड़ने में होती थी। फिर भी अस्सी सैकड़ा
उसकी बातें निर्विवाद और बिलकुल सच थीं। एक हजार आदमियों की उपस्थित भीड़
में से उसने करीब दो सौ को पहिचाना और उनके नाम तथा थोड़े बहुत परिचय
बताये। इन परिचयों में तीन चार ही गलत थे। हम लोग दो रोज तक रामनगर रहे और
बालक के कथन की पूरी तरह परीक्षा करते रहे। अन्त में हर किसी को यह विश्वास
कर लेना पड़ा कि यह लड़का पूर्वजन्म का रामधन कहार ही है। दुख की बात है
कि वह बालक इस वर्ष स्वर्गवास कर गया।
उपरोक्त घटना का बारीकी के साथ निरीक्षण करने
पर कुछ बातों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है एक तो यह कि जितने भी पुनर्जन्म
संबंधी परिचय मिलते हैं वे प्रायः बहुत दूर के नहीं होते। जहाँ तक हो सकता
है पूर्वजन्म के स्थान के करीब में ही जन्म लेता है क्योंकि मृत आत्मा
प्रायः उसी वातावरण को पसंद करती है और इधर उधर से चक्कर काटकर प्रायः अपने
परिचित क्षेत्र या उसके निकटवर्ती स्थान में ही रहना चाहती है। दूसरी बात
यह कि विचारधारा और सोसायटी भी उसे पूर्वजन्म जैसी ही ठीक प्रतीत होती है।
रामधन कहार और बुली राजपूत के परिवार की आर्थिक, सामाजिक और रहन सहन संबंधी
व्यवस्था प्रायः एक सी ही थी। यह भी देखने में आया है कि साधारणतः लिंग का
परिवर्तन भी नहीं होता। स्त्री और पुरुष पुनर्जन्म में भी प्रायः अपने
जैसे लिंग ही धारण करते हैं; किसी गड़बड़ी के कारण यदि परिवर्तन हो जाता है
तो उस निकट वाले जन्म में भी वह आपके पूर्वजन्म के लिंग के स्वभावों को
पूरी तरह भुला नहीं पाता। स्त्री स्वभाव के पुरुष और पुरुष स्वभाव की
स्त्रियाँ हमें कभी कभी दिखाई देती हैं। हो सकता है कि पूर्वजन्म में उनका
लिंग इस जन्म के विपरीत रहा हो।
पुनर्जन्म की घटनाओं के अनेक प्रत्यक्ष प्रमाण
समय-समय पर सर्वत्र देखे जाते हैं। गत वर्ष मैं काश्मीर गया हुआ था।
श्रीनगर के पास राधोपुर गाँव में एक ऐसा ही घटना होने का समाचार मुझे मिला।
तब मैं वहाँ गया और वास्तविकता का पता लगाने की पूरी जाँच पड़ताल की।
मालूम हुआ कि एक वैश्य को छह वर्षीय लड़की अपने पूर्वजन्म का हाल बताती है।
मैं उस गाँव के मुखिया के यहाँ गया। और उससे पूछताछ की। मुखिया ने बताया
कि अभी पिछले महीने इस गाँव में पीरनगर का एक पंडित आया हुआ था। पंडित इस
लड़की के घर के सामने से जा रहा था तो वह दौड़ कर उसके पैरों में चिपट गई
और अपनी ग्रामीण भाषा में कहा दादा कहाँ जाते हो ? तुमने मुझे इतने दिनों
से तलाश क्यों नहीं किया था ? मैं तो यही हूँ। पंडित को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उसने यहाँ के लोगों से पूछा कि यह लड़की कौन है ? लड़की के प्रश्नों ने
हैरत में डाल दिया था। क्योंकि उसने इससे पूर्व कभी भी इस लड़की को नहीं
देखा था।
गाँव वाले काफी तादाद में इकट्ठे हो गये।
पंडित भी कौतूहल में था। आखिर वह चबूतरे पर बैठ गया और लड़की को गोद में
उठाकर प्यार के साथ उसका आशय जानना चाहा। लड़की ने कहा मुझे इतनी जल्दी भूल
गये- मैं आपकी भतीजी जसोदा हूँ। मैं चेचक से मरी थी। आपने और रमुआ भाई ने
तो बीमारी के दिनों में मेरी बड़ी देखभाल की थी। अब पंडित की समझ में आया
कि यह लड़की पूर्वजन्म में मेरी भतीजी जसोदा थी। उनकी आँखों से आँसू भर आये
और उसे गले लगा लिया।
मुखिया ने मुझे बताया कि ऐसी घटना हम लोगों
के देखने-सुनने में कभी नहीं आई थी, इसलिए समाचार पाते ही गाँव भर के सभी
स्त्री-पुरुष जमा हो गये और वे सब लड़की की बात को अधिक जाँच करना चाहने
लगे। निदान यह तय हुआ कि पीरनगर लड़की को ले जाया जाय। पीरनगर इस गाँव से
सिर्फ चार मिल के फासले पर था। इसलिए तय हुआ कि कल सबेरे लड़की को साथ लेकर
लोग वहाँ जाय और मामले की सचाई जाने। दूसरे दिन करीब 300 ग्रामीण लड़की को
लेकर पीरनगर पहुँचे गाँव में घुसते ही लड़की को आगे कर लिया गया और अन्य
सब लोग उसके पीछे थे। गाँव में घुसते ही लड़की ने बताना शुरू किया कि यह
अमुक का घर है यह अमुक घर है ! वह टेढ़ी-मेढ़ी गलियों को पार करती हुई सीधी
अपने घर पहुँची और बिना किसी झिझक के मकान में अंदर घुसती हुई चली गई।
वहाँ उसने अपने पूर्वजन्म के बड़े भाई रमुआ को पहिचाना। चाची की गोदी में
बैठ कर हिचकी भर कर रोई। कहने लगी मैं तो पास के गाँव में ही थी तब भी
तुमने मुझे क्यों नहीं बुलाया। इन आठ वर्षों में मकान में कुछ परिवर्तन हो
गया था। सो भी उसने पूछा कि यहाँ पाल थी अब दालान कैसे बन गया? और भी बहुत
सी बातें उसने अपने घर वालों से कीं। उनसे मुहल्ले की दूसरी लड़कियों के
नाम बताये और उसने मिलने की इच्छा प्रकट की। उन्हें बुलाया गया तो लड़की ने
सब को पहचाना और इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया कि वह इतनी बड़ी कैसे हो गई
है।
जसोदा ग्यारह वर्ष की उम्र में आठ साल पूर्व
चेचक की बीमारी में मर गई थी। अब वैश्य के यहाँ जन्म लिये हुए इसे छह वर्ष
हो गये अर्थात् पूर्व शरीर त्याग हुए उसे आठ वर्ष व्यतीत हो गये थे। इस बीच
में वह सामाजिक ज्ञान को बहुत कुछ भूल गई थी। जैसा कि उसने अपनी सहेलियों
से पूछा था कि तुम इतनी बड़ी कैसे हो गई और तुम्हें यह बच्चे कहाँ से मिले।
पूर्व जन्म में निश्चय ही वह इन सब बातों को जानती होगी परन्तु इस जनम में
यह सब ज्ञान उसने बहुत कुछ अंशों में भुला दिया था। पीरनगर में लड़की की
सब सच्ची बातों को जानकर लोग बड़े कौतूहल में थे। छह वर्ष इस जनम के और नौ
महीने माता के पेट के इस प्रकार पौने सात वर्ष व्यतीत हुए। बाकी सवा वर्ष
उसके कहाँ व्यतीत हुए इस प्रश्न को हल करने के लिए सभी लोगों ने अपनी
बुद्धि खर्च की पर कोई संतोषजनक उत्तर न मिल सका। लड़की से भी पूछा गया पर
वह भी कुछ न बता सकी। निदान लड़की को उसकी वर्तमान गाँव राधोपुर ले आया
गया। लड़की से यह पूछा गया कि क्या वह पीरनगर रहना पसंद करेगी? उसने मना कर
दिया। क्योंकि वह अपनी वर्तमान माता के प्रेम को छोड़ने में भी असमर्थ थी।
लड़की के ज्ञान के बारे में जब अच्छी तरह खोज
की गई तो सामाजिक, धार्मिक या अन्य प्रकार का साधारण ज्ञान उसे इतना ही था
जितना राधोपुर में रह कर वह छह वर्ष में इकट्ठा कर सकी थी। पीरनगर के
वातावरण में ब्राह्मण के घर पली हुई ग्यारह वर्ष की लड़की को जितनी जानकारी
होनी चाहिए। उतनी उसे नहीं थी। केवल घटनाएं भर याद थीं। इससे पता चलता है
कि जिन लोगों को पूर्वजन्म की याद रहती है उन्हें घटनाएं तो ठीक प्रकार
स्मरण रहती हैं परन्तु अन्य प्रकार की रीति-रिवाज आदि विस्मरण हो जाते हैं।
ऐसा भी देखा गया है कि जिन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान याद रहता है वह घटनाओं
को भूल जाते हैं। कई प्रतिभावान बालक ऐसे पाये जाते हैं जिन्हें बहुत छोटी
उम्र में ही संगीत आदि में असाधारण योग्यता होती है। धर्मग्रन्थों को
कंठाग्र कर लेते हैं। परन्तु उन्हें पूर्वजन्म की घटनाएं याद नहीं आतीं।
योगी लोगों में अवश्य ऐसी सामर्थ्य होती है कि
वे अपने और दूसरों के अनेक जन्मों के बारे में जानते हैं और ज्ञान एवं
घटनाओं को प्रत्यक्ष की भाँति देख लेते हैं।
(ले. श्री प्रबोध चन्द्र गौतम, साहित्य रत्न, कुर्ग)
No comments:
Post a Comment