सर्वभूतस्थ मात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योग युक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।
आत्मोपम्येन सर्वत्र समं, पश्यनियोऽर्जुन।
सुखं वा यदिवा दुःखं स योगी परमोमतः।।
संसार में अशान्ति का उत्पात क्यों है? कौरव पाण्डवों के बीच जो घोर संग्राम हुआ था उसका मूल कारण क्या था? कौरव समझते थे कि पाण्डव हमसे अलग है। पांडव समझते थे दुर्योधनादि हमसे पृथक हैं। कौरव यदि पाण्डवों को अपना समझते या समझ सके होते तो क्या कुरुक्षेत्र का युद्ध होता? कदापि नहीं। आधुनिक, प्राचीन ,, जातीय या व्यक्तिगत सब ही विवादों का मूल अहंभाव का संकोच है। यदि मैं आपको मैं समझ सकता तो क्या आपके साथ विवाद कर सकता? कदापि नहीं। तू को मैं से पृथक जानने ही के कारण मैं तुमसे प्यार नहीं करता और विजातीय मानता हूँ। अहंभाव संकोच ही सारी अशान्ति का कारण है, इसका प्रसार सर्व शान्ति का मूल है। पड़ोसी को अपने से पृथक समझता हूँ, इसी से उसका सुख दुख मेरा सुख दुख नहीं हुआ या नहीं है। दुर्भिक्ष, भूकम्प, महामारी आदि ने आकर हजारों प्राणियों का नाश कर दिया है किन्तु हमारे प्राण नहीं रोये। वे कहाँ के थे? वे हमारे कोई नहीं। हम अपने से प्यार करते हैं जगत में हमको छोड़ कोई भी हमसे प्यार नहीं कर सकता। शास्त्र कहता है कि अहंता का नाश करो। तब ही शान्ति होगी। वही बात इस तरह भी कही जा सकती है कि अहंभाव का प्रसार करोगे तब ही शान्ति पाओगे। अहंभाव का नाश होने से हममें तुममें भेद नहीं रहेगा, और यही बात अहंभाव के प्रसार में भी होगी। अहं पन का नाश और प्रसार एक ही बात है। अहंता जब तक मुझमें बंधी हुई है तब तक वह शुद्ध वैयक्तिक अहंता है और वही विश्वव्यापी हो जाने पर मुझमें बँधी न रहेगी एवं तब उसका ध्वंस होना कहा जा सकेगा। शास्त्र कहता है- सब भूतों में जो आत्मा को देखता है वही विद्वान मोक्ष पाता है। वस्तुतः मुझमें तुझमें और उसमें कोई भेद नहीं। सर्वनाम, प्रोनाउन सब रट डाले परन्तु यह समझ नहीं आई कि तीन पुरुष पास- पास खड़े होकर बातचीत करें तो कहने वाला अपने को ‘मैं’ और सुनने वाले को ‘तू’ और तीसरे को वह ‘उस’ कहेगा, फिर मध्यम पुरुष वाला तू अपने को ‘मैं’ कहेगा और मैं वाले को ‘तू’ और तीसरे को वह ‘उस’ कहेगा। तीसरे को वह फिर तीसरा अपने को ‘मैं’ कहेगा तब इन तीनों के मैं में क्या भेद रहा, कुछ भी नहीं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहंत्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयि स्यामि माशुचः।।’’ यह मान अहंकारी रूप तो हैं, पढ़ा भी है परन्तु अन्तःकरण में भाव नहीं बैठा है। इसको विचारिये अभ्यास कीजिये तब यही पदार्थ जान पड़ेगा। ''एकमेवाद्वितियम्।''
अविद्या व अज्ञान वश हम भेद देखते हैं। इस तत्व की उच्च दार्शनिक मीमांसा यहाँ छोड़कर यदि स्थूल बुद्धि से भी देख पावेंगे के तुम्हारा और हमारा जीवन इतने घनिष्ट सम्बन्ध से बँध हुआ है कि जब तक कि आप मुझको आत्मीय समझ कर ग्रहण न कर सकेंगे, तब तक आपके सुख की आशा दुराशा मात्र है। आप धनी हैं आपको हैजा हुआ, डाक्टर या वैद्य हकीम आये, उपयुक्त चिकित्सा से आपको आराम हो गया। मैं दरिद्र हूँ हैजा या प्लेग हुआ, न वैद्य डाक्टर आये न अच्छा हो सका, मर गया, किसी ने भी खबर न ली, मेरे मृत देह से हैजे का विष चारों ओर फैल गया है, आपने मुझको त्याग अवश्य किया था परन्तु विषूचिका के विष को परित्याग नहीं कर सके, उसने आप पर तथा गाँव या मुहल्ले के अनेक लोगों पर आक्रमण किया गाँव नष्ट हो गया। यदि आप मुझको आत्मीय, अपना जान कर चिकित्सा और सुश्रुषा से बचा सकते अथवा कम से कम मृतदेह को शीघ्र ही दाह संस्कार भी करा सकते तो शायद ऐसा न होता। आपको तन्दुरुस्त रहने के लिये, बीमारी से बचने के लिये दूसरों को भी अपना ही समझकर स्वस्थ रखना चाहिये। ‘‘जो दूसरों की रक्षा करता है उसी की रक्षा होती है।’’ यह साधारण कहावत है इसके अर्थ का रहस्य भी अहंभाव का प्रसार है। आप अपने अहंभाव का प्रसार कीजिये अवश्य सुख से रह सकेंगे। जो बात पड़ोसी के विषय में कही है वही ग्राम, प्रान्त, देश आदि में भी समझ लीजिये। यूरोप, अमेरिका या एशिया में आज कोई नई बीमारी उत्पन्न हुई, दो ही एक दिन में देखेंगे कि वह सर्वर्त्र फैल गई। उदाहरण प्लेग इन्फ़्लुएञ्ज़ा स्पष्ट ही हैं। समाज या देश भेद से जगत का सब शुभाशुभ, समस्त घटनायें समस्त मानव जाति के पक्ष में साक्षात् वा परम्परा सम्बन्ध से भोगनी पड़ती है। अतएव शान्ति चाहते वाले पुरुष को सर्वत्र ही समदृष्टि रहनी चाहिये। केवल अपनी ओर दृष्टि रखने से काम न चलेगा, दूसरों की ओर भी दृष्टि रखनी चाहिये।
आप यथेष्ट धन उपार्जित करते हैं, किन्तु दरिद्र जगत उस धन से वंचित हैं। सैकड़ों पड़ोसी अन्न वस्त्रादि से दुःखी हैं। उन पर आपकी दृष्टि नहीं है। सैकड़ों पड़ोसी अभाव की पीड़ा से अज्ञान वश अधर्माचरण में प्रवृत्त हैं और आप अपने धन में ही मत्त हैं। किन्तु कुछ दिन बाद ही डाकुओं ने आपका सर्वस्व ले लिया। तब आप का अहंभाव संकोच संचित धन कहां चला गया? इसमें विचार कीजिये कि दोष किसका? आप कहेंगे कि डाकुओं का दोष हैं, परन्तु वास्तव में पहले आपका दोष है, पीछे उनका। आप अपने देश में दस्यु होने ही क्यों देते हैं? जो दस्यु हुए हैं वे शायद ऐसी प्रकृति वाले होते ही नहीं, यदि आप अपने द्रव्य का सदुपयोग करते।
आज कल पाश्चात्य जगत में सामाजिक धन, साम्य नीति पर बहुत आन्दोलन चल रहा है, और इसके दुरुपयोग के फल से अनेक स्थलों में निहिलिस्ट सोसलिस्ट आदि की सृष्टि पुष्ट होने से पाश्चात्य समाज में दिन दिन प्रशान्ति बढ़ रही है, किन्तु भारत वर्ष में प्राचीन काल से सर्वशास्त्र सार सिद्धान्त, संभूत अहंता का विनाश अथवा उसके विश्व विस्तार तत्व की शिक्षा होने से सात्विक दान धर्म की साधना से, आर्य समाज शान्ति की गोद में सोता था। उसी शिक्षा का ध्वंसावशेष अब भी भारत की रक्षा कर रहा है।
जब आपने शास्त्र सिन्धु मंथन कर ज्ञानामृत पान कर, देवता स्वरूप गृह में बैठकर देव कार्य में तत्पर रहे, वह ज्ञानामृत दूसरों को दान न करें और फिर सब असुर होकर आपके देव कार्य में बाधा देने लगें, तब फिर परिताप ही क्या? फिर आप उनके विनाश का उपाय सोचने लगते हैं। क्यों, इतने गोलमाल करने की आवश्यकता ही क्या? उनको भी ज्ञानामृत देकर देवता बनाया होता। देखिये देश में जितने असुर राक्षस हैं वे हमारे ही दोष से हैं।
हमारे पुत्र ने अच्छी तरह लिखना पढ़ना सीखा है, शान्त है, धार्मिक है, किन्तु पड़ोसी के पुत्र मूर्ख हैं। हमारा पुत्र भी उनके साथ मिल कर क्रम से सुहबत का असर पाकर मूर्ख हो जायेगा। अतएव केवल अपने पुत्र को पढ़ाने से ही काम न चलेगा, दूसरों के पुत्रों को भी लिखना पढ़ना सिखाना चाहिये।
जगत ब्रह्ममय है, अतएव परमार्थतः कोई भी किसी से जुदा नहीं है। छोटी चींटी के साथ भी आपका घनिष्ट सम्बन्ध है। ज्ञान विकाश के साथ हममे जो स्नेह है जब उसका क्रम से विस्तार होता रहे, तो सब भूतों में आत्मदर्शन हो और सब गोलमाल मिट जाय।
देखिये, आपके पुत्र या पौत्र ने जो आपके पास बैठा था या गोद में था, पेशाब कर दी, आप कहते हैं अरे भाई, इस बच्चे को ले जाओं इसने हमारे कपड़ों पर पेशाब कर दी। इससे जरा भी नाक नहीं सकोड़ी, किन्तु पड़ोसी का बालक आपके बिछौनों पर आकर कहीं पेशाब कर दे तो तुरन्त चिल्लाने लगते हो। ऐसे अलग अलग व्यवहार का कारण क्या है? वही अहंभाव का प्रसार न होना। आप उस बालक को अपना बालक नहीं समझते, इसी से भेदभाव है। बालक का मूत्र त्याग करना इस गोलमाल का कारण नहीं है। आपका बालक बीमार है। उठने की शक्ति नहीं है। मल मूत्र त्याग कर देता है, आप बिना क्लेश के उसे साफ कर देते हैं, बल्कि उसमें उत्साह अनुभव करते हैं, किन्तु हमारे पुत्र के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते? हमारे पुत्र का मलमूत्र उसका कारण नहीं है। तुम हमारे पुत्र को अपने पुत्र के समान नहीं जानते तुम्हारा अहंभाव अति संकुचित हैं। यदि अहंभाव विस्तारित होता तो हमारे पुत्र का मल मूत्र साफ करके भी तुम्हें आनन्द होता। मेहतर को क्यों नहीं छूते? क्या वह मूर्ख है इसलिये? यदि यह बसत है तब तो आप का अमुक सम्बन्धी भी उसी की तरह मूर्ख है, किन्तु उसके स्पर्श करने में कुछ भी विचार नहीं करते। अशौचाचारी, मलिन ,, अधर्मी, कुरुप इत्यादि कारणों से यदि उसे स्पर्श न करते हो तो स्नान करके आने पर तो स्पर्श करो। नहीं, ऐसा भी तो नहीं करते। तुम आप यदि मल स्पर्श करो तब तो हाथ पाँव इत्यादि धोने से पवित्र हो जाते हो, किन्तु मेहतर पवित्र नहीं होता? उसका कारण क्या मल स्पर्श है? शरीर मल संयुक्त होने पर उसे धोकर स्नान कर लिया जाय तो उसका अंग तुम्हारी तरह पवित्र क्यों न होगा? अब देखिए कि मल स्पर्श करने से मेहतर आपकी समझ में हेय नहीं हैं बल्कि तुमने उसे अपने मैं से बहुत दूरवर्ती और पृथक समझ कर ही अछूत मान लिया है।
कुष्ठ रोग से पीड़ित मनुष्य तुम्हारे सामने उपस्थित हुआ तो तुम्हें असह्य उद्वेग उत्पन्न हुआ, परन्तु यदि तुम्हें स्वयं कुष्ठ हो जाय, तब क्या करोगे? अतएव कुष्ठ रोग के कारण ही तुम कुष्ठी से घृणा नहीं करते बल्कि अहंभाव से कृपण होकर उसे स्वतंत्र समझ कर ही ऐसी घृणा करते हो। अपने शरीर पर एक घाव हो जाय तो उसकी चिकित्सा करते हो। जिससे आरोग्य हो जाओ ऐसी चेष्टा करते हो। परन्तु यदि दूसरे को भी अपना जानते तो उसके घाव को भी अपने घाव की तरह चिकित्सा करते।
तुम विद्वान, धार्मिक, धनी हो तो दूसरों को भी अपनी तरह धार्मिक और धनी बनाने का यत्न करो। पापी, रोगी, दरिद्र से घृणा न करो बल्कि उनको उन्नत अवस्था में लाने की चेष्टा करो। पूर्व ही कहा है कि ऐसा न करने से तुम्हारा अपना जो कुछ है वह भी वृथा है।
तुम ब्राह्मण हो, अर्थात् परोपकारी, जितेन्द्रिय, विलास शून्य विद्वान् हो किन्तु यदि अकेले ब्राह्मण रहे और अन्य लोग यदि शूद्र धर्मी अर्थात् निरक्षर, अधार्मिक रह गये तो शूद्रों के संसर्ग से तुम्हारा ब्राह्मणत्व भी क्या निर्बाध रह सकता है? अहंभाव के विस्तार बिना किसी तरह बचाव नहीं। तर्क स्थल में स्वीकार किया कि—शास्त्र में शूद्र को वेद पढ़ाने की आज्ञा नहीं है। ठीक तो है, जो शूद्र निरक्षर है वह वेद पढ़ेगा किस तरह? जो ‘क’ ‘ख’ नहीं जानता वह ऋषि-हृदय-प्रसूत उच्चभाव पर किस तरह अधिकार करेगा? किन्तु शूद्र को भी तो उन्नत करना होगा। संसार में जो चोर डाकू मिथ्यावादी मूर्ख हैं उन्हें क्या सदा उसी अवस्था में बनाये रहोगे? नहीं, उनको भी उन्नति करने की चेष्टा करनी होगी। जब शुद्र ने लिखना पढ़ना आरम्भ कर दिया, आहार विहारादि में सात्विक भाव रखना आरम्भ कर दिया तब फिर शूद्रत्व कहाँ रहा? फिर उसे वेद तत्व क्यों न सिखाइयेगा? अति नीच और अति महत् व्यक्ति के जीवन के परिणाम का आदर्श एक ही ब्रह्मदर्शन या मोक्ष प्राप्ति है उससे कोई वञ्चित न होगा। उच्चाधिकारियों को नीचे के अधिकारियों को उन्नत पथ पर ले जाना होगा। अन्यथा उनको सदा ही अज्ञान अन्धकार में रखकर मोक्ष से वञ्चित करना होगा। तुम समाज में जिनको ब्राह्मण कहते हो, अच्छी तरह निगाह फैलाकर देखोगे तो उनमें अनेक शूद्र मिलेंगे और जिनको शूद्र कहोगे उनमें भी अनेक ब्राह्मण पावेंगे। तुम ब्राह्मण नामधारी शूद्रों को तो वेद धर्म सिखाना चाहते हो, यह तो घोर अविद्या जनित कार्य है। ब्राह्मण शूद्र दोनों ही पारिभाषिक शब्द मात्र हैं, नहीं तो इन दोनों बातों में और कुछ नहीं है अमुक गुण रहने से ब्राह्मण होता है और अमुक गुणों के रहने से शूद्र कहा जाता है इतनी ही भेद है। तुम केवल शब्दालंकार पर झगड़ा करते हो वस्तु की जड़ में नहीं जाते। शब्द वस्तु का परिचायक है। एक लोहे के टुकड़े को तुम कितने ही जोर से सोना क्यों न कहो तो क्या वह कभी सोना हो सकता है? और यथार्थ सोने को यदि तुम राजा के हुक्म से भी लोहा कहकर उठाना चाहो तो भी उसका सुवर्णत्व किसी तरह न जायगा। यथार्थ ब्राह्मण को तुम शूद्र कहो चाहे कुछ कहो परन्तु वह रहेगा ब्राह्मण ही, और यथार्थ शूद्र को तुम कितना ही ब्राह्मण कहकर प्रणिपात करो परन्तु उसका शूद्रत्व तो जाज्वल्यमान रहेगा ही परन्तु यथार्थ ब्राह्मण कभी यथार्थ शूद्र से घृणा न करें वे उनको शनैः-शनैः उच्च प्रदेश में ले जावें और उनके अधिकारानुसार उन्हें शिक्षा दें। शिक्षा देने से क्रमशः अधिकार बढ़ते बढ़ते वे भी तुम्हारी व्यवस्था प्राप्त कर सकेंगे। आर्य-शास्त्र के अधिकार तत्व का यही तात्पर्य है। शूद्र को वेद न पढ़ावे यह आदेश अधिकार के तत्वज्ञ अध्यापक के लिए बिलकुल अनावश्यक है। शूद्र प्रथम तो वेद पढ़ना ही न चाहेगा। वह वेद को समझे क्या? यदि तुम समझाने की चेष्टा भी करो तो न समझेगा। यदि कहो कि शिशु को युद्ध में मत जाने दो, यह भी ठीक वैसा ही आदेश होगा जैसा कि “शूद्र को वेद मत पढ़ाओ” किन्तु शिशु क्या फिर बड़ा न होगा? वह जब युद्ध के उपयुक्त हो जाय तब उसे युद्ध में क्यों न जाने दिया जाय? क्या उसे फिर सदा शिशु ही बनाये रहोगे इस कारण उसे युद्ध में न जाने दोगे, ऐसा आदर्श अनावश्यक है। संसार में जो उत्कृष्ट हो क्या उसी की वृद्धि करना आवश्यक है और जो अपकृष्ट है उसका ह्रास करना आवश्यक है? नहीं, क्रमशः निम्न उपाधिस्थ ‘मैं को उत्तम करना होगा और उपाधिस्थ हम को निरुपाधिक परब्रह्म का मैं करना होगा। यह मैं वा अहंभाव का संकोच ही जगत के मंगल और अमंगल का कारण है।
संसार में जो कुछ झगड़ा फिसाद देखेंगे, उसका कारण अनुसंधान करने पर देखेंगे कि उसके मूल में अहंभाव का संकोच है क्या पारिवारिक, क्या राजनैतिक क्या सामाजिक सब प्रकार की अशान्ति का कारण अहंभाव का संकोच है। राम श्याम दो सहोदर भाई हैं, किन्तु राम श्याम का सुख नहीं देखना चाहता। और श्याम राम का मुँह नहीं देखना चाहता। व्यवहार देखने से कोई नहीं कह सकेगा कि वे दोनों भाई हैं कि न्यौला और सर्प का सा व्यवहार है। परस्पर आपदविपद में रक्षा करना तो दूर रहा देवासुर की भाँति आपस की संहार चेष्टा ही दिन गत अन्तःकरण में जागरुक है। एक के सुख से दूसरा दुःखित और उसके दुख से सुखी है। राम बड़ा है पैतृक सम्पत्ति के कुछ अंश से श्याम को वञ्चित करना ही विवाद का मूल है। राम ने श्याम को ‘मैं’ के बाहर करके अहंभाव को कुछ संकुचित कर डाला और सर्वस्व आप ही हजम कर लिया है। श्याम भी अपने ‘मैं’ को छोड़ और कोई ‘मैं’ नहीं जानता। राम के ‘मैं’ का सब धन हुआ, जिसका मैं वञ्चित रहा, अतएव उसका संकीर्ण ‘मैं’ अत्यन्त क्षुब्ध हुआ प्रत्येक दशा के लोगों में ऐसे राम-श्याम देखे जाते हैं। जो समाज में गन्यमान्य, धनी विद्वान धार्मिक कहे जाते हैं, जो महाशय देश में महात्मा नाम से विख्यात हैं। जीवनी लेखक जिनका चरित समाज के अनुन्नत व्यक्तियों के आदर्श स्वरूप करना चाहते हैं, उनमें भी राम श्याम हैं। पक्षान्तर में निरक्षर अज्ञानी, निर्धन नगण्य व्यक्तियों में भी राम श्याम मिलेंगे। जमींदार राम श्याम शायद जमींदारी लेकर एक दूसरे के नाश के लिए तैयार है और किसान राम खेत की हाथरस प्रेड़केडडडडडड लिये लाठी चलाते हैं। समाज का कृत्रिम उच्च आदमी परित्याग कर जमींदार राम-श्याम भी किसानों से कुछ कम नहीं है। वृक्ष के ऊपर जैसे दो चीलें एक टुकड़ा माँस के लिये विवाद करती हैं, राम श्याम क्या उनसे अच्छे हैं? मनुष्य राम, श्याम का केवल आकार मनुष्यों का सा है और चील राम, श्याम का आकार पक्षी का है। दोनों में सिर्फ आकार का अंतर है, प्रकृति गत भेद कहाँ? सुन्दर वन में बाघ बलवान है हिंसक है वह अपना उदर पूर्ण करने के लिये सैंकड़ों दुर्बल प्राणियों का संहार करता—ज्ञान चक्षु खोल कर देखिये कि आपके समाज में भी सैकड़ों बाघ हैं। सुन्दरवन के बाघ कभी कभी पहली झपट में ही शिकार के प्राणी को खा लेते हैं, किन्तु आपके शिकारी भाई रूपी बाघ धीरे-धीरे शिकार का विनाश साधन कर अधिकतर निर्दयता का परिचय देते हैं। भेद यह है कि उनकी आकृति एक नहीं परन्तु प्रकृति में कुछ भेद नहीं। फिर यदि सूक्ष्म दृष्टि रहते देख सकोगे कि व्याध प्रकृति मनुष्य ने यथार्थ में क्या बुरा आकार धारण किया है। किन्तु यह सूक्ष्म दृष्टि साधना योगविज्ञान सापेक्ष है। अस्तु शृंगाल कुक्कुट सिंह व्याघ्र वागवास आदि इतर प्राणियों की तरह हम भी अहंभाव में व्यस्त हैं। अपनी अपनी इन्द्रिय लालसा पूरी होना यथेष्ट समझते हैं। अब कहिये, यदि अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य भी एक टुकड़ा माँस ही जीवन का चरम उद्देश्य मानलें तो फिर मनुष्य कहाँ रहे? वस्तुतः दिव्य नेत्रों द्वारा देखने से समाज जिनको मनुष्य कहता है उनमें बहुत थोड़े मनुष्य मिलेंगे और जिनको आप कुत्ते और सियार समझकर दुर दुराते हैं, जिनकी छाया पड़ जाने पर भी स्नान करके पवित्र होते हैं शायद वन में भी अनेक यथार्थ मनुष्य पावेंगे। यह जमाने की खूबी है कि जो वास्तव में मनुष्य है उन्हें प्रायः पद दलित किया जाता है और कुत्ते गीदड़ों के पैरों पर लोटते हैं। सर्प को रज्जु जानकर निर्भय हैं और रज्जु को सर्प समझकर डर के मारे काँपते हैं। अविद्या जनित अज्ञान ने तुम्हारा हृदय आच्छन्न कर लिया है। ज्ञान रहित होकर आप वस्तु को वस्तु और अवस्तु को वस्तु समझ रहे हैं। इन्द्रिय चरितार्थता ही जीवन का प्रधान कार्य समझ लिया है और जिनमें अहंबोध का संकोच अधिक है उनको ही आप प्रधान मानते हैं। यह अहंभाव का संकोच ही संसार की अशान्ति का मूल है। इसी संकोच के कारण मनुष्य पशु रूप में परिणत हो रहे हैं। अहंभाव का संकोच छोड़ दीजिये, आप देवता बनिये और दूसरों को देवता बनाने की चेष्टा करो, तो सर्वत्र ही शान्ति दीख पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि अहंभाव के प्रसार बिना शान्ति कभी पास नहीं रह सकती।
किसी समाज का कोई मनुष्य दूसरों को पृथक न समझे तो जिस तरह वह समाज देव समाज में परिणत हो जाता है उसी तरह कोई देश दूसरे देश को अपने से पृथक न समझे तो समस्त पृथ्वी पर स्वर्ग राज्य हो जाय। अहंभाव के संकोच के कारण ही एक देश दूसरे देश के साथ विपरीत व्यवहार करता है। उपयुक्त भारतवासी जो हमारे देश में उच्च पद पर नियुक्त नहीं हुए हैं वह भी इंग्लैंड के अहंभाव के संकोच के कारण हैं। मद्रास नेशनल कांग्रेस के प्रेसीडेन्ट देव साहब ने कहा था कि ‘सारी पृथ्वी हमारा स्वदेश है और सब मनुष्य हमारे स्वदेश वासी हैं।’
अयंनिज परोवेत्ति गणना लघु चेतसाम्।
उदार चरितानाँ तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥ (हितोपदेश)
यदि इंग्लैंड के अधिकाँश लोगों में अहंभाव का ऐसा प्रसार रहता तो भारत की यह दुर्दशा न होती। व्यक्ति विशेष की भाँति देश विदेश को भी अहंभाव के संकोच के कारण परिणाम में विषमय फल अवश्य ही भोगना पड़ेगा। विधाता के राज्य में अहंभाव का संकोच कर कोई भी कुशलपूर्वक नहीं रह सकता, यह यथार्थ सत्य है। अहंभाव के संकोच के कारण ही इस संसार में सर्वत्र अशान्ति है, इसके हजारों उदाहरण बुद्धिमान पाठक स्वयं संग्रह कर सकते हैं। अधिक क्या कहा जाय कि ऐसे दो चार नर केसरी हर जगह मिल सकेंगे और नाम न लेने पर भी वे अपने आप रामायण की उस चौपाई का अर्थ विचारने लगेंगे—”दीन्ह मोहि सिख नीक गुसाईं। लागत अगम अपति कदराइ॥ जिनके रहीं भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥”
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