ईश्वर घट घट में समाया हुआ है। फिर मनुष्यों में विपरीत स्वभाव क्यों देख पड़ते हैं? एक पुण्य कार्यों में प्रवृत्त है तो दूसरा पाप कर रहा है। इसका कारण यह है कि पापी पुरुष अपनी इन्द्रियों को सब कुछ सौंप देता है किन्तु पुण्य कर्मों में प्रवृत्त मनुष्य ने अपना सर्वस्व परमात्मा के सुपुर्द कर दिया होता है।
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मनुष्य के सामने दो मार्ग हैं एक श्रेय दूसरा प्रेय। जो श्रेय मार्ग—परमात्म पथ की ओर चला उसने अपने सब पाप ताप धो डाले और मुक्त हो गया किन्तु जिसने प्रेय मार्ग दुनियादारी को अपनाया वह उसी में उलझ गया और दुःख से छटपटाने लगा।
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लोग भक्ति की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्व देते हैं। वे समझते हैं कि बिना ज्ञान के भक्ति न कर सकेंगे? यह भ्रम है। दुनिया में लोग जिन चीजों से प्रेम करते हैं क्या पहले उनका पूरा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं? भक्ति का ऊँचा दर्जा है। जो अनन्य भाव से भगवान की भक्ति करता है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं। ईश्वर का भक्त अज्ञानी नहीं रह सकता।
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ज्ञानी और अज्ञानी के साधारण कार्यों में बहुत अधिक अन्तर नहीं होता। शरीर यात्रा के कार्य प्रायः दोनों को ही करने पड़ते हैं। फिर भी उनमें एक आनन्द मनाता है और दूसरा दुखी होता है। क्योंकि दोनों में वस्तु का वास्तविक रूप समझने में मतभेद होता है। ज्ञानी पुरुष संसार और साँसारिक वस्तुओं को मिथ्या समझता हुआ उपयोग करता है और निर्लिप्त रहता हुआ आनन्द मनाता है। इसके विपरीत अज्ञानी पुरुष, संसार को सत्य मानता है और उसकी भोग्य वस्तुओं में लिप्त होकर दुःख उठाता है।
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माता कितनी दयालु होती है। गोदी में चढ़ने के लिए ललचाते हुए बच्चे को उठाकर वह छाती से लगा लेती है। भगवान माता से भी अधिक दयालु हैं। जो भक्त उनके चरणों से लिपटने को कटिबद्ध हो जाता है वह ठुकराया नहीं जाता। उसे अपना लिया जाता है।
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एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। जब तक हृदय मन्दिर में बुरी वासनाओं, पाप और कल्मषों की पूजा हो रही है तब तक धर्म और ईश्वर भक्ति को वहाँ स्थान नहीं मिल सकता है। जब हृदयासन पर परमात्मा को बिठाया जाता है तो दुष्वृत्तियां नहीं ठहर सकतीं।
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शास्त्र कहता है—”नायमात्मा बल हीनेन लभ्यः” इस आत्मा की बल हीन को प्राप्ति नहीं होती। आत्म ज्ञान के लिए बलवान बनने की आवश्यकता है। जिन्हें प्रभु को प्राप्त करना हो वह सब प्रकार का श्रेष्ठ बल प्राप्त करें।
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निर्मल हृदय शिष्य, दर्पण के समान है। जब वह अपने मन को निर्मल करके गुरु के समीप उपस्थित होता है तो उसे अपने हृदय में गुरु का सारा ज्ञान प्रतिबिम्बित हुआ प्रतीत होने लगता है ऐसा गुरु-भक्त शिष्य अल्प श्रम में ही तत्व को प्राप्त कर लेता है।
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पोथी रटने, माला घिसने और शरीर को सुखाने से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो जाती। ईश्वर प्राप्ति जीव को करनी होती है। जो जीव अपने को अहिर्निश ईश्वर चिन्तन में लगाये रहता है वही परम पद को पाता है।
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संसार के माया मोह से बचने के इच्छुक भक्त को चाहिए कि दुनिया की सब वस्तुओं में ईश्वर को रूप देखे। ऐसा विचार करता रहे कि यह सब परमात्मा के ही रूप हैं। ऐसा करने से ममता नहीं सताती।
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ईश्वर नहीं चाहता कि आदमी शैतानी ताकत के बल पर असुरों जैसा अभिमानी बने। उस महाशक्ति की इच्छा है दुनिया में सत्य, प्रेम और पवित्रता का साम्राज्य रहे। बीसवीं शताब्दी का वैज्ञानिक मनुष्य आसुरी संपदा के अभिमान में डूब गया है फलतः उसके कदम नाश की ओर उठते हुए चले जा रहे हैं।
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इन दिनों पाप का विकास और पुण्य का ह्रास हुआ है। अनुमान है कि पाप का परिणाम तीन चौथाई और पुण्य एक चौथाई चल रहा है। इसीलिए ईश्वरीय प्रेरणा से युद्ध, रोग, प्राकृतिक कोप आदि चल रहे हैं। हो सकता है कि पाप के अनुमान से ही जनसंहार होकर रहे।
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जिन्हें अपनी रक्षा की चिन्ता है, जो इस भयंकर विपत्ति में से अपना त्राण चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि नास्तिकता को त्यागकर आस्तिक बनें और आसुरी जीवन को दैवी जीवन में परिणित करें।
आसुरी अहंकार समस्त दोषों की जड़ है। जिन्हें दोषों से बचने की इच्छा है, जो दारुण दुखों से त्राण पाने के लिए उत्सुक हैं उन्हें चाहिये कि मिथ्या अहंकार को त्यागकर परमात्मा की शरण लें।
जो ईश्वर की शरण को प्राप्त हुआ है उसका हृदय स्वच्छ काँच के फानूस के भीतर जलने वाली बत्ती के समान है उसके भीतर और बाहर चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है।
ईश्वर भक्ति में लीन होने के बाद मनुष्य साँसारिक वस्तुओं को भूल जाता है । उसे सभी चीजें ईश्वरमय दिखाई देने लगती हैं। वह विषयों की ओर से गूँगा, बहरा और अन्धा हो जाता है। ईश्वर के अतिरिक्त उससे न कुछ कहा जाता है, न सुना जाता है और न देखा जाता है।
कैसे जाना जाय कि ईश्वर मुझसे प्रसन्न है परमात्मा की जिस पर विशेष कृपा होती है उसे सूर्य जैसी उदारता, पृथ्वी जैसी सहनशीलता और नदी जैसी दानशीलता मिलती है।
जब तक मनुष्य अपने को कर्ता मानता है तब तक उसे अपने साज संभाल की बड़ी चिन्ता करनी पड़ती है जब वह अपने को प्रभु के ऊपर छोड़ देता है तब वह निश्चिन्त हो जाता है। क्योंकि वह जानता है कि सर्व त्यागी भक्त का योगक्षेम भगवान के जिम्मे है।
भगवद् भक्तों की निन्दा मत करो । प्रभु अपनी निन्दा सहन कर सकते हैं किन्तु भक्त की नहीं ।
ईश्वर प्राप्ति की इच्छा रखने वाले साधक सद्गुरु के सम्मुख उपस्थित हों। उनकी कृपा से ही नेत्रों को वह ज्ञानार्जन प्राप्त होता है जिसके द्वारा दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है और ईश्वर का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है।
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आसुरी अहंकार समस्त दोषों की जड़ है। जिन्हें दोषों से बचने की इच्छा है, जो दारुण दुखों से त्राण पाने के लिए उत्सुक हैं उन्हें चाहिये कि मिथ्या अहंकार को त्यागकर परमात्मा की शरण लें।
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जो ईश्वर की शरण को प्राप्त हुआ है उसका हृदय स्वच्छ काँच के फानूस के भीतर जलने वाली बत्ती के समान है उसके भीतर और बाहर चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है।
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ईश्वर भक्ति में लीन होने के बाद मनुष्य साँसारिक वस्तुओं को भूल जाता है । उसे सभी चीजें ईश्वरमय दिखाई देने लगती हैं। वह विषयों की ओर से गूँगा, बहरा और अन्धा हो जाता है। ईश्वर के अतिरिक्त उससे न कुछ कहा जाता है, न सुना जाता है और न देखा जाता है।
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कैसे जाना जाय कि ईश्वर मुझसे प्रसन्न है परमात्मा की जिस पर विशेष कृपा होती है उसे सूर्य जैसी उदारता, पृथ्वी जैसी सहनशीलता और नदी जैसी दानशीलता मिलती है।
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जब तक मनुष्य अपने को कर्ता मानता है तब तक उसे अपने साज संभाल की बड़ी चिन्ता करनी पड़ती है जब वह अपने को प्रभु के ऊपर छोड़ देता है तब वह निश्चिन्त हो जाता है। क्योंकि वह जानता है कि सर्व त्यागी भक्त का योगक्षेम भगवान के जिम्मे है।
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भगवद् भक्तों की निन्दा मत करो । प्रभु अपनी निन्दा सहन कर सकते हैं किन्तु भक्त की नहीं ।
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