Thursday, October 15, 2015

उसने कुछ नहीं खोया

आसुरी तपस्या में सिद्धियाँ का बाहुल्य होता है। आसुरी तपों का संसार में इसीलिए प्रचलन अधिक है कि उनके द्वारा तत्काल और चमत्कारिक परिणाम उपस्थित होते हैं। शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे उन्होंने अपनी उग्र तपस्या द्वारा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। इनमें सबसे बड़ी सिद्धि मृतक को जीवित कर देना था। ऋषि शुक्राचार्य किसी भी मृत पुरुष को जीवित कर देने की सामर्थ्य रखते थे। 

एक बार सुर-असुरों में घोर संग्राम हुआ। संसार में भौतिक सुख सामग्री परिमित है उसमें से सबको थोड़ा सा हिस्सा मिल सकता है। किंतु इतना संतोष है किसे? हर एक चाहता है कि मैं बड़ा वैभवशाली बनूँ दूसरे मुझसे छोटे रहें। बस सारी लड़ाइयों की यही एक जड़ है। देवता चाहते थे कि हम शासक रहें असुर चाहते थे कि हमारे हाथ में सत्ता हो। इसी बात पर घोर देवासुर संग्राम आरंभ हो गया। 

युद्ध में लड़ाके मरते ही हैं। दोनों दलों के असंख्य योद्धा हवाहत होने लगे। असुरों के जो योद्धा मरते शुक्राचार्य उन्हें मंत्र शक्ति से फिर जीवित कर देते, किन्तु देवताओं के पास इस प्रकार का कोई साधन न था। उनकी संख्या दिन-दिन घटती जा रही थी। निदान देवता घबरा गए और उन्होंने गंभीरतापूर्वक समस्या पर विचार किया-अब क्या करना चाहिए ? 

लंबे विचार विमर्श के पश्चात् निश्चय किया गया कि देव कुमार कच को शुक्राचार्य के पास वह मृत संजीवनी विद्या पड़ने भेजा जाय। शुक्राचार्य की पुत्री देव यानी कच को चाहती थी। कच वहाँ जायगा और विद्या सीखने की प्रार्थना करेगा तो देव यानी की उसे विशेष सहायता मिलेगी और काम सफल हो जाएगा। वह सुँदर षडयंत्र देवताओं के मस्तिष्क में उपज पड़ा। 

यही किया गया। कुमार ‘कच’ शुक्राचार्य के आश्रम में पहुँचा। देवयाणी जिस स्वप्न को वर्षों से देखा करती थी वह आज मूर्तिवत् सामने आ खड़ा हुआ। प्रसन्नता के मारे उसका रोम-रोम विह्वल हो गया। कुमारी ने युवक का स्वागत किया और उत्सुकता पूर्वक उसके आने का कारण पूछा। 

“तुम्हारे पिता से विद्या पढ़ने आया हूँ, देवयानी” कच ने उत्तर दिया। 

देवयानी अपने पिता के स्वभाव को समझती थी। विरोधियों के बालक को विद्या न सिखायेंगे। जिस विद्या के कारण वे असुरों के गुरु बने हुए हैं उसे विरोधी को कैसे बता देंगे ? कार्य बड़ा कठिन था। परन्तु देवयानी कच को बहुत प्रेम करती थी। उसने तय किया वह कच की पूरी मदद करेगी। कच ने भी जब देवयाणी के सम्मुख यही आशंका प्रकट की तो उसने दिलासा दी और वचन दिया कि पिता से विद्या दिलाने में शक्ति भर प्रयत्न करूंगी। 

कच आचार्य के सामने उपस्थित हुआ। उसने गुरु चरणों में शीश झुकाते हुए संजीवन विद्या सीखने की इच्छा प्रकट की। शुक्राचार्य बड़े असमंजस में पड़े। वे शत्रुओं के बालक को किस प्रकार विद्या पढ़ावें, इसमें तो उनकी हानि ही हानि थी। 

अवसर जानकर देवयानी चली आई। उसने पिता से कहा-पिता। विद्या देना ब्राह्मण का प्रथम मुख्य धर्म है। जिस प्रकार अन्य वर्ण भिक्षुक को अपने द्वारा पर से विमुख लौटा कर पाप के भागी बनते हैं उसी प्रकार अधिकारी को विद्या दान न देकर ब्राह्मण नरकगामी होता है। आप धर्म तत्व के मर्मज्ञ हैं। इसलिए स्वार्थ के कारण इस अधिकारी बालक को विद्या से विमुख मत कीजिए।

देवयानी के धर्म नीति युक्त वाक्यों से शुक्राचार्य बहुत प्रभावित हुए। वे उसका आदर करते थे। पुत्री की इच्छा देखकर वे कच को विद्या पढ़ाने के लिए सहमत हो गए। 

कच आचार्य के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करने लगा। देवयानी से उसकी घनिष्ठता बढ़ने लगी। दोनों साथ-साथ हंसते-बोलते-खेलते खाते-पीते। प्रेम दिन-दिन बढ़ने लगा दोनों एक दूसरे के बिना चैन से न रहते। 

आज मनुष्य का हर एक व्यवहार पाप दृष्टि से आरंभ होता है और उसका अन्त भी पाप में ही जाकर होता है। सभ्यता के इस आधुनिक विकास ने मनुष्य का मस्तिष्क दूषित कर दिया है। परन्तु सदा से ऐसी बात न थी। हम विनाश के जितने नजदीक पहुँचते जा रहे हैं उतने ही पाप पंक में फंस रहे हैं। यदि वह पापमयी सभ्यता पूर्व काल में ही आरंभ हो गई होती तो इंसान का आस्तित्व अब तक दुनिया से मिट गया होता। कच देवयानी में घना प्रेम था, दोनों वयस्क हो चले थे साथ-साथ रहते थे, परन्तु वह प्रेम साधारण बाल-प्रेम था। दूध जैसा शुभ्र, हिमि जैसा स्वच्छ। 

विद्या अभ्यास और आध्यात्मिक साधनाएं एक दिन में पूरी नहीं हो जाती। उसके लिए निष्ठा, एकाग्रता और बहुत काल तक निरंतर अभ्यास की जरूरत होती है। कच को शिक्षा प्राप्त करते हुए वर्षों बीत गए। 

किसी प्रकार वह समाचार असुरों को मिला। वे बड़े व्याकुल हुए, ‘शत्रु कच को भी यह विद्या मिल जाएगी तो हम उन्हें जीत न सकेंगे। यह प्रश्न उनके जीवन मरण का प्रश्न था। उन्होंने कच को मार डालना तय किया। गुप्त रूप से दूसरे ही दिन असुरों ने उसे मार डाला। कच की मृत्यु का समाचार जब गुरु के आश्रम में पहुँचा तो सब लोग बड़े दुखी हुए। आचार्य ने उन्हें धैर्य बंधाया और कच की लाश मंगाकर मंत्र से उसे जीवित कर दिया। 

असुर, गुरु को रुष्ट करने का साहस नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने प्रत्यक्ष में तो उनसे कुछ न कहा पर गुप्त रूप से अपने प्रयत्न बराबर जारी रखे। जहाँ वे मौका पाते कच का वध कर देते, गुरु उसे फिर जीवित कर देते। कई बार यह क्रम चला। अन्त में असुरों ने एक दूसरा उपाय निकाला। उन्होंने कचा को मार कर भोज्य पदार्थों में मिलाया और गुरु को निमंत्रित करके उसका भोजन करा दिया। असुर प्रसन्न थे कि अब कच का मृत शरीर बाहर तो है नहीं। पेट में से उसे निकालेंगे तो स्वयं मर जायेंगे। इसलिए अब उसका अंत हो गया। 

आश्रम में कच न पहुँचा तो फिर तलाश हुई। बहुत ढूंढ़ने पर उसकी लाश तक का कुछ पता न चला। देवयानी कच के बिना अन्न जल तक ग्रहण न कर रही थी। विद्वान गुरु को अपनी दिव्य दृष्टि से उसे ढूंढ़ना पड़ा। उन्होंने देखा कि कच का शरीर उन्हीं के पेट में परिपाक होकर रक्त माँस में मिल गया है। अब उसे जीवित किस प्रकार किया जाय ? आचार्य को अपना प्राण जाने का भय था। अब की बार मामला बहुत पेचीदा था। 

इसका हल भी देवयानी ने ही निकाला। उसने कहा पिता ! अपने पेट के अन्दर कच को जीवित करके उसे संजीवनी विद्या का अन्तिम पाठ पढ़ा दीजिए। वह आपका पेट फाड़कर निकल आवेगा तब आपको पुनः जीवित कर देगा। 

शुक्राचार्य को बात माननी पड़ी। पेट में कच को अन्तिम पाठ पढ़ाया गया। वह पेट फाड़कर बाहर निकला और गुरु को पुनः जीवित कर दिया। 

जिस कार्य के लिए कच आया हुआ था वह पूरा हो गया। जब उसने गुरु से वापिस जाने की आज्ञा चाही। देवयानी को यह पता चला तो उसका हृदय धड़कने लगा। वह अपना सर्वस्व कच पर निछावर कर चुकी थी। उसे दृष्टि से दूर नहीं होने देना चाहती थी। सच तो यह है कि देवयाणी कच के साथ विवाह बंधन में बंधना चाहती थी। वह उस पर प्राण निछावर कर चुकी थी। 

देवयानी की आंखें झलक आईं। उसने आँसू पोंछते हुए कच से कहा-अब मेरा प्रेम तुम्हें आत्म समर्पण किया चाहता है। क्या तुम मुझे स्वीकार न करोगे ?

तन्त्र विद्या की उपयोगिता

प्रकृति अनन्त शक्तियों का भंडार है। वैज्ञानिकों ने वायुयान, रेडियो, विद्युत, वाष्प आदि के अनेक आश्चर्यजनक आविष्कार किये हैं और नित्यप्रति होते जा रहे हैं। पर प्रकृति का शक्ति भंडार इतना अनन्त और अपार है कि धुरंधर वैज्ञानिक अब तक यही कह रहे हैं कि हमने उस महासागर में से अभी कुछ सीपें और घोंघे ही ढूंढ़ पाये हैं। उस अनन्त तत्व के शक्ति परमाणुओं की महान् शक्ति का उल्लेख करते हुए सर्व-मान्य वैज्ञानिक डॉक्टर टामसन कहते हैं कि एक ‘शक्ति-परमाणु’ की ताकत से लंदन जैसे तीन नगरों को भस्म किया जा सकता है। ऐसे अरबों-खरबों परमाणु एक-एक इंच जगह में घूम रहे हैं फिर समस्त ब्रह्माण्ड की शक्ति की तुलना ही क्या हो सकती है। हमारी आत्मा भी इसी चैतन्य तत्व का अंश है हमारे शरीर में भी असंख्य इलेक्ट्रस व्याप्त हैं इसलिए मानवीय शरीर और आत्मा भी अपनी अनन्त शक्ति सम्पन्न है उसे हाड़-माँस का पुतला मात्र न समझना चाहिए।

काल चक्र सदैव घूमता रहता है। उसी के अनुसार संसार की अनन्त विधाओं में से समय पाकर कोई लुप्त हो जाती है तो कोई प्रकाश में आती है। अब तक कितनी ही विधायें लुप्त और प्रकट हो चुकी हैं और आगे कितनी लुप्त और प्रकट होनी वाली हैं इसे हम नहीं जानते। आज जिस प्रकार भौतिक तत्वों के अन्वेषण से योरोप में नित्य नये वैज्ञानिक यन्त्रों का आविष्कार हो रहा है उसी प्रकार अब से कुछ सहस्राब्दियों पूर्व भारत वर्ष में आध्यात्म विद्या और ब्रह्मविद्या का बोलबाला था। उस समय योग के ऐसे साधनों का आविष्कार हुआ था जिनके द्वारा नाना प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करके साधक लोग ईश्वर का साक्षात्कार करते थे और जीवन मुक्त हो जाते थे। आज लोग अपने अज्ञान के आधार पर उन बातों की सचाई में भले ही संदेह करें पर सत्य सत्य ही रहेगा।
अब भी उस महान अध्यात्म विद्या का पूर्ण लोप नहीं हुआ है। भारतवर्ष की पुण्य भूमि में अभी असंख्य सिद्ध योगी भरे पड़े हैं और उनका विश्वास है कि भौतिक आविष्कारों की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्तियाँ करोड़ों गुनी बलवान और स्थायी हैं वे मनुष्य और समाज का कल्याण आध्यात्म उन्नति में ही समझते है, अप्रत्यक्ष उदाहरणों में धुरंधर विद्वान और महान नेता एवं विचारक योगी अरविंद की योग साधना हमारे सामने है। इस शक्ति भंडार में से एक सीप यूरोप के पण्डितों के हाथ भी लगी है। मैस्मरेजम और हिप्नोटिज्म नामक उनके दो छोटे आध्यात्मिक आविष्कार है। जिनके द्वारा, सिद्ध की आत्मशक्ति साधक में प्रवेश करके उस पर अपना पूर्ण आधिपत्य जमा लेती हैं। तब मोह निद्रा में डूबा हुआ साधक अनेक आश्चर्यजनक और गुप्त बातें बताता है। आँखों से पट्टी बाँधकर पूरी तरह से संदूक या कोठरी में बन्द कर लेने पर भी वह लोगों के मन की बात, उनके पास छिपी हुई चीजें, गुप्त बातें आदि बताता है। मोह निद्रित साधक, सिद्ध की इच्छा का पूर्ण अनुचर बन जाता है। उससे कहा जाय कि यह नीम का पत्ता पेड़े के समान मीठा है तो सचमुच उसकी बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ इस कड़ुए पत्ते को मीठा अनुभव करती हैं और वह बड़े प्रेम से उन्हें खाता है। इस विधि से वे सिद्ध, रोगियों की चिकित्सा भी करते हैं। अब से दो शताब्दी पूर्व जब सुँघा कर बेहोश करने की ‘क्लोरोफार्म’ नामक दवा का आविष्कार नहीं हुआ था तब पश्चिमोय डॉक्टर मैस्मरेजम की विधि से ही रोगी के पीड़ित स्थान को संज्ञा शून्य करके तब आपरेशन करते थे। कलकत्ता के बड़े अस्पताल में एक प्रसिद्ध डॉक्टर ने मैस्मरेजम के तरीके से ही कई सो रोगियों को या उनके पीड़ित स्थान को बेहोश करके बड़े-बड़े आपरेशन किये थे। यह यह ध्यान रखना चाहिए कि मैस्मरेजम योग महासागर की एक बिन्दु मात्र है।
प्राचीन काल में योग को शक्तियों द्वारा संसार की बड़ी सेवा की गई थी। अनेक योगी, दुखियों के दुख निवारण में ही अपना जीवन लगा देते थे। महाप्रभु ईसा मसीह ने जीवन भर अपनी आत्मशक्ति के बल से दुखियों के दुख दूर किये। उन्होंने बीमारी को रोग मुक्त किया। अन्धों की आँखें दी, कोढ़ियों के शरीर शुद्ध कर दिये, लोगों की आत्मा से चिपटे हुए दुष्वृत्तियों के भूतों को छुड़ाया, जो अशांति और नाना प्रकार के दुखों से चिल्ला रहे थे उनको सुख और शाँति प्रदान की। अन्त में उस महात्मा ने दूसरों के दुख और पापों को अपने ऊपर ओढ़ कर उनको भार मुक्त कर दिया। भारतवर्ष में शंकर, अश्विनी कुमार, धन्वंतरि, गोरखनाथ, सत्येन्द्रनाथ, नागार्जुन, चरक आदि के बारे में ऐसी कथाएं मिलती हैं जिनसे प्रतीत होता है कि जीवन भर वे लोगों के दुख दूर करने में ही लगे रहे। दुर्भाग्य वश उस समय के महात्माओं में भी दो दल हो गये। एक दल ईश्वर प्राप्ति के कार्य को ही अपना लक्ष्य मानता था दूसरा जन-दुख निवारक का भी समर्थक था। यह मतभेद बहुत बढ़ा और जन-दुख निवारकों की शक्ति पूजक, शक्ति, तान्त्रिक संज्ञा बनाकर उनको अपनी श्रेणी से अलग कर दिया गया। तान्त्रिक या शक्ति अपने आरंभ काल में परमत्व की आराधना से शक्ति प्राप्त करने और उसके द्वारा सिद्धि प्राप्त करके जनता के शारीरिक एवं मानसिक दुखों को दूर करते थे। समय के परिवर्तन के साथ इस महान विज्ञान का भी दुर्दिन आया। महासिद्ध नागार्जुन के अवसान के बाद तंत्र विद्या कुपात्रों के हाथ में चली गई और उन्होंने उसका रावण की भाँति दुरुपयोग प्रारंभ कर दिया। मारण, मोहन, उद्घाटन, वशीकरण आदि का प्रयोग अपनी इन्द्रियों के सुख या धन लालसा के लिए किया जाने लगा। जिस तलवार से दस्युओं और हिंसक पशुओं का मुकाबला किया जाता है उसी से अबोध शिशुओं, ब्राह्मणों और गायों की गर्दनें भी काटी जा सकती हैं। परन्तु ईश्वर के यहाँ सुव्यवस्था है। उसने जालिम की उम्र थोड़ी रख छोड़ी है। अवश्यंभावी परिणाम के अनुसार तान्त्रिक नष्ट हो गये। जनता में उनके कार्य के विरुद्ध तीव्र घृणा फैल गई। वाममार्गी और तान्त्रिक, हिंसक पशु समझे जाने लगे। अन्त में तंत्र विद्या का वैज्ञानिक और उच्च कोटि का स्वरूप लुप्त हो गया। यवन राज्य में तन्त्र शास्त्र के हजार महान प्रबन्धों को जला डाला गया। इस प्रकार इस महाविद्या का दुखद अन्त हुआ।
चूँकि तन्त्र विद्या की उपयोगिता और उसके आश्चर्य-जनक लोभों की जनता कायल थी इसलिए उनकी वैज्ञानिकता और उच्च साधन का अभाव हो जाने पर भी अधूरे तान्त्रिक बने रहे और अपनी सामर्थ्य के अनुसार लोगों का हित करते रहे। इतना समय बीत जाने के बाद जो लंगड़ी, लूली तंत्र विद्या बच रही है वह भी अच्छे से अच्छे वैज्ञानिक को अचम्भे में डालने के लिए पर्याप्त है। अभी भी ताँत्रिक लोग, जहरीले साँपों के काटे हुए आदमी को मन्त्र द्वारा अच्छा कर देते हैं। उस साँप को मन्त्रबल से बुलाकर काटे हुए स्थान से जहर चुसवाते हैं, बिच्छू आदि का जहर उतारते हैं, वृक्षों की टहनी या मोरपंख की झाडू लगाकर फोड़ों को अच्छा करते हैं, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण अब भी होते हैं। भूत, प्रेतों के ऐसे आक्रमण जिन्हें देखकर डॉक्टर लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते है, ताँत्रिक ही ठीक करते हैं। वैज्ञानिक लोग तन्त्र विद्या द्वारा दिया हुआ मन्त्र (सजेशन) साधक के अन्तरमन (सब कॉन्शसनेस) में गहरा चला जाता है और वहाँ जाकर ऐसी विद्युत शक्ति उत्पन्न करता है जिससे साधक या रोगी का मन एवं शरीर उसी के अनुसार कार्य करने लगता है। फलस्वरूप इच्छित लाभ प्राप्त हो जाता है। एक और वैज्ञानिक डॉक्टर जिन्होंने मनुष्य शरीर की बिजली का अनुसंधान किया है, इस विषय पर और अधिक प्रकाश डाला है उनका कथन है कि मनुष्य शरीर से एक प्रकार का तेज निकल कर आकाश में प्रवाहित होता है। यह तज अपनी इच्छानुसार ऐसा बनाया जा सकता है जिससे निश्चित व्यक्तियों को हानि या लाभ पहुँचाया जा सके। एक अन्य वैज्ञानिक डॉक्टर फ्रेडन का कहना है कि मनुष्य के सुदृढ़ संकल्प संयुक्त विचार ईथर तत्व में मिलकर क्षण भर में निश्चित व्यक्ति तक पहुँचते है और उसका हित अनहित करते है। सामूहिक प्रार्थना इसलिए की जाती है कि वह अधिक शक्तिशाली होकर अधिक असर दिखा सके। विद्वानों का कहना है कि तान्त्रिकों के मंत्र से उत्पन्न हुए कम्पन तथा तत्सम्बन्धी उपचार क्रियाओं की लहरें मिलकर बहुत शक्तिशाली हो जाती हैं और जो लोग उन्हें ग्रहण करते हैं उन पर आश्चर्यजनक चमत्कार दिखाती है। विद्वानों की बात छोड़िये हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं कि अपने दूरस्थ प्रियजनों में से किसी की मृत्यु या हानि होने पर हमें दुःस्वप्न आते है और अनिष्ट की आशंका से मन काँप उठता हैं। कई बार तो अचानक जागृत और स्वप्न की अवस्था में ऐसी आशंकाएं उठ खड़ी होती हैं कि अमुक व्यक्ति का अमुक अनिष्ट हो गया और कुछ देर बाद सचमुच वह बात सत्य होने का समाचार मिलता है। दूरस्थ पुत्र पर दुख आने पर माता के स्तन से दूध उमड़ने लगता है। पति का अनिष्ट होने पर स्त्री के अंग टूटने लगते हैं। प्रेमी जब अपनी प्रेमिका के लिए विरह में तड़पता है तब उसी समय दूरस्थ प्रेमिका भी व्याकुल हो उठती है। यह सब उस महान सत्य की अनुभूतियाँ मात्र हैं। जिसके आधार पर तन्त्र शास्त्र स्थित है और रेडियो या टेलीविजन का आविष्कार हुआ है। शक्तिशाली और एकाग्र मन द्वारा निश्चित रूप से दूसरों के लिए-सुख दुख की लहरें भेज सकते हैं। हाँ उनसे लाभ उठाना साधक की इच्छा पर निर्भर है। जब शक्ति के साथ ब्रॉडकास्ट की हुई आकाशवाणी को तब तक ठीक तरह नहीं सुना जा सकता जब तक आपका रेडियो दोष रहित न हो।
इस महाविज्ञान से लाभ उठाने की एक शर्त है वह है-साधन में अटूट श्रद्धा और विश्वास का होना। बिना इसके लाभ नहीं मिल सकता। मोती लेने के लिए समुद्र में गहरा घुसना पड़ेगा, शकर का मधुर स्वाद चखने के लिए ईख बोनी पड़ेगी, पेट भरने के लिए मुँह चलाना पड़ेगा। जो सज्जन श्रद्धा और विश्वास स्थिर नहीं रख सकते वे इधर कदम बढ़ाने का व्यर्थ प्रयत्न न करें। अपने टूटे हुए रेडियो सैट पर आप विशुद्ध ब्रॉडकास्ट को नहीं सुन पायेंगे। जो लोग तन्त्र विज्ञान पर विश्वास नहीं करते वे इसकी परीक्षा कर देखें। हमारे अनुभव में ऐसे बीसियों कट्टर अविश्वासी आये हैं जो इसे ढोंग, अन्धविश्वास और मूर्खता कहकर मजाक उड़ाते थे। पर जब उन्होंने कुछ दिन अभ्यास किया तो तन्त्र विद्या के प्रत्यक्ष लाभों को देखकर उसके अनन्य भक्त बन गये। हमारा कहना इतना ही है कि आज भी सज्जन अविश्वास करते हों, वे इसकी परीक्षा करें।

शक्ति-वर्द्धक धनुरासन

इस आसन में पहिले उलटे हो जाओ। फिर फेफड़े में यथेच्छ श्वाँस भर लो फिर दोनों पाँव के पीछे के भाग को पकड़ कर साथल का भाग तथा नाभी के ऊपर का भाग जमीन से ऊपर उठाओ। सिर और पैर जितने ऊपर उठें उतना उत्तम, जमीन पर सिर्फ पेट का ही भाग रहना चाहिए।

जितने समय श्वास रोक सको उतने समय तक सिर व पैर ऊपर अधर रखें और जब श्वांस रोके रखना असंभव प्रतीत मालूम पड़े तब सिर और पैर जमीन पर रखने के बाद दोनों नथुनों से श्वांस धीरे-धीरे बाहर निकालो। शुरू में अभ्यास करने वाले को फेफड़े में आधा श्वांस भरना चाहिए और चार पाँच दिन तक आजमाने के बाद पूरा श्वांस भरने में हर्ज नहीं। फेफड़ा कमजोर हो तो पहिले पूरा श्वांस भरने में जरा दर्द होता है।
आसन का परिमाण पहिले-दस दिन तक सुबह शाम चार बार। दस से अठारह दिन तक छह बार। अठारह से पच्चीस दिन तक आठ बार। और बाद में शक्ति अनुसार आठ से बारह बार यह आसन करना चाहिए।
इस आसन से फायदा
  1. फेफड़ा मजबूत और चौड़ा होता है। कब्जियत मिटती है। गला, छाती तथा हाथ, पाँव मजबूत होते हैं। स्त्रियों का कमर का दुखना इस आसन से खास तौर से मिट जाता है। अपान वायु छूटता है नाभी खिसक गई हो तो यह आसन दो तीन बार करने से बैठ जाती है। भूख लगती है। हाथ पाँव के स्नायुओं में शक्ति आती है। कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत करने की तैयारी करती है छोटी और बड़ी आंतें रोगों से निर्मल होती हैं। खून शुद्ध बनता है। मन प्रफुल्लित रहता है। वृक्क तथा मूत्राशय के रोग नाबूद होते हैं। माँस पेशियाँ सशक्त बनती हैं। मूलाधार चक्र , स्वाधिष्ठानचक्र, मनीपूर चक्र, अनाहत चक्र तथा विशुद्ध चक्र शुद्ध होता है।
  2. गर्भवती, मासिक धर्म, तथा प्रसूति होने के बाद चालीस दिन तक स्त्रियों के गुप्त रोग जैसे शिश्नेन्द्रिय के साथ सम्बन्ध रखने वाले, बुखार वाले को यह आसन शुरू करने के पहिले किसी शरीर रचना के अभ्यासी से शरीर की जाँच करा लें अथवा इन दशाओं में उक्त आसन से हानि की संभावना हो सकती है। आहार सात्विक और जल्दी पच जाए ऐसा लेना चाहिए। 10 वर्ष की उम्र वाले स्त्री पुरुष से 100 वर्ष की उम्र वाले स्त्री-पुरुष यह आसन कर सकते हैं और इसका यथेच्छ लाभ ले सकते हैं।

मैं परलोकवादी कैसे बना

अंग्रेजी में एक कहावत है, कि बुराई से कभी-कभी भलाई हो जाती है। इस कहावत का अनुभव अनेक प्रकार से हुआ करता है। कुछ वर्ष पहिले मेरे जीवन में एक ऐसी अद्भुत घटना घटी, जिससे मेरे विचारों में एक विलक्षण परिवर्तन हो गया। 

यदि इस संसार में देखा जाय तो प्रति क्षण यहाँ अनेक देहधारी मरा करते हैं। कवि कालीदास के कथनानुसार ‘मृत्यु शरीर धारियों के लिए प्रकृति है और जीवन विकृति है।” इस कथन की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट होना चाहिए किन्तु उनका ध्यान आकृष्ट नहीं होता, यही शोचनीय बात है। 

कई वर्ष हुए कि मेरी पूर्व पत्नी सुभद्रा बाई के पेट में एक भयंकर रोग उत्पन्न हुआ। इस रोग को दूर करने के लिए सारे उपाय कर लिये गये, किन्तु कोई फल नहीं हुआ। अन्त में यह रोग प्राणघातक सिद्ध हुआ। उसकी मृत्यु के समय जो डॉक्टर आया था, उससे मैंने पूछा- ‘क्यों, डॉक्टर साहब! क्या यह जा रही है ? मुझे पूछना तो वह था क्या यह मर रही है, किन्तु मैंने यह न पूछ कर केवल यही पूछा कि क्या यह जा रही है। ऐसे अवसरों पर लोग पूछा करते है-क्या यह मर रहा है या मर रही है ? उस समय मुझे यह आशा अथवा विश्वास नहीं था, कि मेरे यह शब्द इतने महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे। परंतु इस घटना के बाद जो अनुभव प्राप्त हुए, उनसे यह सिद्ध हो गया कि मेरी प्रिय पत्नी मरने के समय यह सब बातें सुन रही थी और उन्हें समझ भी रही थी। उसने मुझ से कहा-आप मरने के बाद भी मेरा पीछा नहीं छोड़ेंगे और मैं जहाँ जाऊंगी, वहाँ मुझे सुख से नहीं रहने दोगे।’ वास्तव में उसके यह वाक्य सत्य निकले। उसकी मृत्यु इतनी जल्दी हो जायेगी, इसकी मुझे स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी। किन्तु ईश्वर के नियम गहन है। मेरी प्रिय पत्नी ईश्वरीय नियम के अनुसार आपरेशन करने के बाद परलोकगत हुई। 

इस दर्शन को पढ़कर संभव है, कुछ पाठक कहें कि क्या केवल आपकी ही पत्नी ऐसे मरी है ? दूसरे लोग जिनके कि पत्नियाँ आज इस संसार में नहीं है, क्या उन्हें अपनी पत्नी से प्रेम न था ? प्रिय पाठक वृन्द ! आपका यह कहना बिल्कुल ठीक है। मेरी भाँति अन्य कितने ही लोगों को भी अपनी पत्नी के मरने का दारुण दुख सहना करना पड़ा होगा। इस अनन्त ब्रह्माण्ड में न मालूम कितनी स्त्रियाँ मर गई होंगी और उनके पति का उनके प्रति अवश्य ही प्रेम रहा होगा। परन्तु मैंने ऊपर जिस घटना का वर्णन किया है। उसमें एक विशेषता है, यह बात आगे के लेखों में स्पष्ट हो जाएगी। परलोक जाने के बाद शायद ही किसी स्त्री ने अपनी स्थिति का परलोक का तथा अन्य उपयोगी बातों का वर्णन किया हो। मृत्यु के बाद शायद ही किसी स्त्री ने अपना अस्तित्व सिद्ध कर अपने पति को सान्त्वना दी हो। जो बात पहले कल्पनातीत समझी जाती थी और जो उस स्त्री की मृत्यु से सिद्ध हो गई है, उसके जीवन की अन्तिम घटना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जिसकी मृत्यु के बाद मानवी जीवन की अविच्छिन्न शृंखला स्थापित हो गई है और जिसके कारण से मृत्यु के बाद भी जीवन है, यह आँदोलन दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है, जिसे परलोक गमन से मानवी विचारधारा में एक युगान्तर उपस्थित हो गया है, उसके परलोक गमन के पूर्व का वृत्तांत जान लेना आवश्यक है। इसलिए यह ऊपर बताया गया है। 

परलोक द्वारा वार्तालाप करने वाले तथा नास्तिकों के विचार में परिवर्तन करने वाले सर ओलीवर लाज के पुत्र रेमण्ड एक सामान्य इंजीनियर थे, उसी भाँति मेरी पत्नी भी अंग्रेजी पढ़ी-लिखी न थी। किंतु उसने एक अपूर्व ज्ञान का परिचय दिया, इसलिए उसका परिचय देना अत्यंत आवश्यक है। उसकी गुण राशि और धर्मपरायणता आदर्श थी। किन्तु उसके गुणों का यहाँ वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। केवल यहाँ इतना ही लिख देना पर्याप्त है कि उसकी मृत्यु अल्पावस्था में ही हो गई थी। यह बात एक अंग्रेजी कहावत को सिद्ध करती है-’ईश्वर जिस पर अधिक प्रेम करता है, उसे अपने पास शीघ्र बुला लेता है।’ 

इस लेख माला के लेख पढ़ने के बाद पाठक बंधु शायद यह प्रश्न करेंगे, कि क्या हमें भी इस सत्य का अनुसंधान करने में लग जाए। ऐसे प्रश्न करने वालों से मेरा केवल इतना ही कथन है, कि मेरा यह मतलब नहीं है, कि आप अपना काम-धाम छोड़कर केवल इसी की खोज में लग जायें। परन्तु इतना तो मैं अवश्य ही कहूँगा कि जिस प्रकार आप अन्य वैज्ञानिक बातों पर विश्वास करते हैं, उस भाँति मरने के बाद भी जीवन है इस सिद्धाँत को भी सत्य मानें। विज्ञान के सब सिद्धाँतों के प्रयोग कोई स्वयं करके विश्वास नहीं करता अथवा आकाश के जितने नक्षत्र हैं, उन्हें सब लोग दूरबीन से देखकर ही विश्वास नहीं करते। अन्य लोगों ने इनका अनुभव किया है, उन्हीं के अनुभव पर आस्था रखकर हम विश्वास करते हैं। इसी प्रकार इस विषय में भी लोगों को पूर्ण विश्वास करना चाहिए। भारतवर्ष के लिए परलोक का विचार कोई नई बात नहीं है। किन्तु यह कहा जा सकता है कि भारतवर्ष ही इस सिद्धाँत का जन्म देने वाला है। 

पत्नी के परलोक बास के बाद जिस भाँति अन्य लोगों को दूसरे लोग आकर आश्वासन दिया करते हैं, उसी भाँति मुझे भी लोगों ने आकर आश्वासन देना आरंभ किया। ऐसे अवसरों पर यह कहा जाता है। ‘यह संसार अनित्य है, इसमें कोई अमर होकर नहीं आया है समय व्यतीत हो जाने पर मृत्यु अवश्य आती है, इसलिए मरे हुए व्यक्ति के लिए शोक करना अथवा उसे बारबार स्मरण करना अनावश्यक है। संसार की गति को देखकर अब अपना काम करना चाहिए और जो मर गये वह अब क्या वापिस तो नहीं आ जायेंगे।’ रघुवंश में इन्दुमती की मृत्यु हो जाने के बाद कवि कालीदास लिखते हैं- ‘राजन्! भवतानानु मृर्तोपि सा सभ्यते’ अर्थात् यदि कोई आदमी स्वयं भी कर जाय तो मरे हुए आदमी से उसकी भेंट नहीं हो सकती। पुंडरीक की अकस्मात मृत्यु के बाद महाश्वेता ने देह त्याग करने का निश्चय किया था, उस समय कवि बाणभट्ट ने लिखा है, यह मार्ग अज्ञानता का द्योतक तथा मूर्खतापूर्ण है। कारण कि प्राणी अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न लोगों में भ्रमण करता है, उसके साथ फिर मिल सकना असंभव है। वेदान्तियों का कथन है कि जिस भाँति सागर का जल बिन्दु सागर में पुनः मिल जाता है, और बाद में उसका पता नहीं लगता, उसी भाँति मनुष्य के विशिष्ट गुण अस्तित्व में नहीं रहते, अर्थात् वह ब्रह्मांड सागर में जल बिन्दु के समान लीन हो जाता है। उसका पुनः दर्शन नहीं होता। 

साराँश यह है कि इस प्रकार के उपदेशों से मेरा मन शाँत न हो सका। मेरे हृदय में यह उत्कट इच्छा उत्पन्न हुई, कि जिसके साथ जीवन के इतने दिन सुख-दुख में व्यतीत किये, जो मेरे सुख-दुख की साथी थी, जिसने कितने ही वर्षों तक शरीर व्याधि सहा। जिसने आपरेशन कराने का स्वयं आग्रह किया था जिसे परलोक जाने की अत्यन्त अभिलाषा थी उस व्यक्ति के पास क्या पुनः वार्तालाप कर सकना असंभव है ? आरंभ में इतना ही जानने की मेरी इच्छा थी, कि वह सुख में है या दुख में ? कारण कि उसका जीवन अत्यंत कष्ट में व्यतीत हुआ था। उसके गुण का विकास होने का अवसर ही नहीं मिला। इसलिए वह लुप्त हो गये। यह समझ लिया गया था कि उसमें कोई गुण ही नहीं थे, किन्तु यह बड़ी भूल थी। इस गुण के विकास की स्वल्प इच्छा की पूर्ति का भी कोई साधन नहीं था। किन्तु जिन लोगों ने इसे सुना वह हंसने लगे। और मेरी इच्छा को मूर्खतापूर्ण बताने लगे।

उषाःपान की सरल विधि

उषाःपान अजीर्ण दूर करने के लिये कितना उपयोगी है। लेकिन उसका प्रयोग किस तरह किस- किस रोग में करना अथवा नहीं करना चाहिये- इन पंक्तियों में उस पर थोड़ा प्रकाश डालने की कोशिश करूंगा। पानी जीवन के लिये कितना आवश्यक पदार्थ है इसके विषय में कुछ भी कहना व्यर्थ है। संसार में इसके बिना कोई भी जीव, जड़ अथवा चेतन अपने जीवन को स्थिर नहीं रख सकता।

उषाःपान में कैसा जल प्रयोग हो? यों तो सदा ही शुद्ध एवं स्वच्छ जल काम में लाना चाहिये, किन्तु उषाःपान में खास तौर से जल की शुद्धता एवं निर्मलता की आवश्यकता है। इसमें किसी प्रकार की लापरवाही न होनी चाहिये। चाहे जल स्वच्छ ही हो, लेकिन फिर भी उसे किसी स्वच्छ वस्त्र से साफ बर्तन में छान लेना चाहिये। इसके लिये हमेशा शीतल एवं बासी जल की व्यवस्था होनी चाहिये। इसके मानी यह नहीं कि जल को बरफ से शीतल किया जाय अथवा कई दिन का बासी पानी प्रयोग में लाया जाय। एक शुद्ध घड़े में इस कार्य के लिये सुव्यवस्थित, यानी ढँक- छान कर खुली हवा में जल रख लेना चाहिये। प्रभात में सूर्योदय से कम से कम आधा घण्टे और अधिक से अधिक दो घण्टे पूर्व इस क्रिया को करना चाहिये। बिस्तर छोड़ने के उपरान्त फौरन ही इस क्रिया को करना ठीक नहीं। बिस्तर से उठने के बाद कुछ देर घूमकर दो, तीन बार गहरी श्वास लेकर हाथ, मुँह धोकर खूब गरारे करने चाहिये। इसके बाद नासिका द्वारा धीरे- धीरे जल पीना चाहिये और दो बार उसे जोर के साथ बाहर निकाल देना चाहिये, पर विश्वास हो जाने पर कि अब नासिका में किसी प्रकार की अशुद्धता नहीं रही, पुनः नासिका द्वारा जल पीना चाहिये, पहले पहल पाव छँटांक जल से अधिक नहीं पीना चाहिये बाद में अभ्यास द्वारा पाव भर तक जल पिया जा सकता है। सर्व प्रथम नासिका द्वारा जल पीने में कुछ कष्ट होता है, मस्तिष्क एवं नासिका की नलिकाओं में कुछ चींटी काटने जैसी पीड़ा होती है, किन्तु तीन चार दिन के अभ्यास के बाद वह शनैः शनैः दूर होने लगती हैं, फिर तो तनिक भी कष्ट नहीं होता।

नासिका से उषाःपान करने के उपरान्त मुख द्वारा जल पीना चाहिये, जिसकी मात्रा आध सेर से किसी भी हालत में अधिक न होनी चाहिये। हाँ यदि अजीर्ण हो तो एक सेर तक भी पीया जा सकता है। नासिका से पानी पीते समय श्वांस द्वारा खींचना नहीं चाहिये वरन् धीरे- धीरे पीना चाहिये। सर्व प्रथम नाक से पानी पीते समय दो तीन बार नाक से पीकर मुँह से कुल्ला कर देना चाहिये ताकि किसी प्रकार की गन्दगी मुँह द्वारा पेट में पहुँच कर विकार न पैदा कर दे। मुँह से पानी पीते समय जितनी कम श्वांस ली जावें उतनी ही लाभप्रद होती हैं। उषाःपान सदैव शैचादि से निवृत्त होने के पूर्व करना चाहिये। यदि नासिका द्वारा जल पीने में कष्ट मालूम हो, तो मुख द्वारा ही पिया जाय। मुख द्वारा पीने के उपरान्त यदि हो सके तो पुनः नासिका द्वारा पीने का प्रयत्न करना अच्छा है।

उषाःपान से लाभ-
अजीर्ण दूर होकर शौच बिल्कुल साफ होता है। पेट की गुड़ गुड़ाहट एवं फूलना बन्द हो जाता है। रक्त शुद्ध बनता है, मस्तिष्क शक्तिशाली तथा दृष्टि तीव्र होती है। शरीर में एक प्रकार की अद्भुत शक्ति पैदा होती है शरीर का रंग निखर जाता है। उषाःपान करने के दूसरे दिन ही भूख खूब लगने लगती है। स्वप्र दोष तथा अन्य वीर्य दोषों में आश्चर्यजनक लाभ होता है, कितने ही प्रमेह एवं स्वप्र दोष ग्रस्त रोगी नियमित रूप से उषाःपान करने से रोगमुक्त होते देखे गये हैं। रक्त विकार में भी आशातीत लाभ होता है। बाल सफेद होना रूक जाता है।

अतृप्त तृष्णा

संसार की उत्तम वस्तुऐं पाने के लिए निरन्तर कामना रहती है। पर इच्छानुसार वस्तु न मिलने पर विवश हो जाता पड़ता है। दुख से हृदय जलता है, द्वेष की चिनगारियाँ उठती हैं, चारों ओर विरह का धुआँ छा जाता है और अन्त में कष्टमय तृष्णा ही हाथ रहती है। आप भी इसका अनुमान लगाते होंगे। अतः इस स्थिति से मुक्त होने की उपाय करे। आइये, आज हम और आप मिलकर इस कामना का सदा के लिये त्याग करे और दुनियाँ की मन लुभाने वाली वस्तुओं के चक्कर में न आकर अपने पथ पर अटल रहें। संसार का कोई भी प्रलोभन हमें विचलित न कर सके। क्या आप ऐसा संकल्प करने के लिए तैयार हैं?
प्रेमियों के विपरीत हो जाने पर वियोग का कितना कष्ट होता है? इसे आप जानते ही होंगे। मिलन पर कितना हर्ष होता है? इसका भी आपको अनुभव होगा। इन दोनों परिस्थितियों में कौन सी परिस्थिति उत्तम है? इसका निर्णय आपका हृदय कर डाले तो अशान्ति दूर हो सकती है।
कोई धनवान होने की लालसा में मतवाले हैं। किसी को मान पाने की लगन है। कोई महलों तथा ऊँची- ऊँची अट्टालिकाओं के निर्माण और उनकी सजावट में व्यस्त हैं। कोई अपने चरित्र- चमत्कार से संसार को आश्चर्य चकित कर देना चाहते हैं। इनके अतिरिक्त और भी बहुत से अपनी- अपनी इच्छानुकूल वातावरण बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। इन सबसे पूछा जाय कि आपको अपनी इच्छित वस्तु मिल जाने पर क्या फिर किसी बात की आवश्यकता शेष रह जायेगी? तो क्या उत्तर मिलेगा? संतोष और आत्म तृप्ति को प्राप्त किये बिना क्या तृष्णा और कामना की दावानल किसी प्रकार बुझ सकती है?

विवाह का उद्देश्य

भारतवर्ष के प्राचीन ऋषियों ने इस अहंभाव का प्रसार बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के उत्कृष्ट उपाय दिखाये हैं। उन्हीं में से एक उपाय विवाह संस्कार है। विवाह का उद्देश्य वही अहं (मैं) का प्रसार है। पाठक एकाग्रचित्त से विचार करें कि विवाह विधान किस लिये हुआ है। अन्यान्य धर्मों में विवाह अवश्य कर्त्तव्य कर्मों में नहीं है। समाज शृंखला साधन के लिए सामाजिक युक्ति मात्र है। किन्तु गृहस्थ हिन्दु के पक्ष में विवाह एक अवश्य कर्तव्य कर्म और सर्व प्रधान संसार धर्म है। प्राचीन ऋषियों की जीवनी पढ़ने पर आप देखेंगे कि व्यास वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, याज्ञवल्क्य आदि महापुरुषों ने विवाह किये थे। वेद पढ़ने पर आप देखेंगे कि ऋषियों के पुत्र, पौत्रादि ने भी अपने पूर्व पुरुषों की भाँति आध्यात्मिक सामर्थ्य के प्रभाव से ऋषि पद पर अधिकार किया था। हिन्दू मात्र का विवाह एक विशेष धर्मानुष्ठान है।
 अविद्या के कारण मनुष्य अहंकार व ‘अहंभाव’ से परिपूर्ण है, मैं के सिवाय और कुछ विचारते ही नहीं। जिसमें ‘मैं’ देखते या जिसको ‘मैं’ जानते हैं, उसी में प्रीति करते हैं। ‘मैं’ के सिवाय और किसी में भी प्रीति नहीं है। शिक्षा अधिकार भेद से होती है। बिलकुल धनवान को एकदम अति उच्च ब्रह्म ज्ञान नहीं दिया जाता, ऐसा ज्ञान दिया जाए तो वह कुछ भी नहीं समझ सकता जिस स्थान में पहले था वहीं रह जाता है। अतएव इसको शनैः-शनि उस दिशा में ले आते हैं। अब विचारपूर्वक देखिए। विवाह करने से स्त्री मिलेगी, इन्द्रिय परिचर्या होगी, साँसारिक अनेक प्रकार की सुविधा होगी, पुत्र-पौत्र सहित आनन्द से समय व्यतीत करेंगे, इत्यादि अनेक आशायें विवाह के पूर्णकाल से ही मनुष्य के मन उठती हैं। विवाह हुआ कुछ दिन बाद पूर्व का वह सुख स्वप्न दूर हो गया। बड़ी आपदा ! जब अकेला था तब अच्छा था, आज मद्रास, कल बम्बई, परसों लाहौर, फिर काश्मीर, फिर तिब्बत, इत्यादि जगह- जगह मनमानी सैर करता था। अकेला पेट चाहे जैसे भर लेता था, कुछ श्रम करें या न करें दिन कट जाता था। अब वह विपद है कि सवेरे से रात के दोपहर तक खटते हैं विश्राम नहीं मिलता तब सुख कहाँ ? स्त्री बीमार रहती है, आप इतना श्रम करता हूँ फिर उसकी शुश्रूषा। क्रम से लड़के-लड़की हुये, उनका पढ़ाने-लिखाने और विवाह आदि का खर्च गले पड़ा। उनके सुख-दुख बीमारी आदि ने आच्छन्न कर डाला। अब देखिये कि विवाहित पुरुष अपने सुख की कुछ भी चिन्ता न करके, किस तरह पुत्र परिवार का पालन करूं किस तरह उनको सुख हो, कैसे वह सुशिक्षित हों किस तरह निरोग रहें, किस तरह कन्या का उत्तम सुयोग्य वर के साथ विवाह करूंगा, इत्यादि चिन्ताओं में अपना सुख भूल गया, विवाह का उद्देश्य भी सिद्ध हो गया।

विवाह का उद्देश्य आत्म-सुख नहीं है बल्कि विवाह का उद्देश्य है ‘अहंभाव’ का व आत्म प्रसार विवाह का उद्देश्य अपनी संकुचित ‘मैं’ को प्रसारित करके धीरे-धीरे दूसरों की ‘मैं’ में मिला देना। अविद्या ग्रस्त मनुष्य क्या एकदम अपरिचित व्यक्ति में अपना ‘मैं’ त्याग कर सकता है ? कभी नहीं, इसलिए विवाह का विधान है। ज्यों ही विवाह हुआ त्यों ही आपका मैं, जो केवल तुम्हें था दूसरे एक मनुष्य में जाकर फैल गया। और एक जन के सुख-दुख के साथ आपका सुख-दुख मिल गया जो एक में सीमाबद्ध था वह दो में हो गया, क्रम से बहुत से परिवार में फैल गया। आप अपने ‘मैं’ को छोड़ अन्ततः और एक जन के ‘मैं’ को अपना ‘मैं’ मानने लगे। अहंभाव (मेरेपन) की सीमा खूब बढ़ चली। अब केवल आप ही अच्छे कपड़े पहनने से काम नहीं चलेगा, स्त्री को भी कपड़े लेने होंगे, केवल आप घड़ी की चैन लटकाने से अच्छे नहीं लगेंगे, बल्कि स्त्री को भी जेवर पहनाना होगा, केवल अपनी ही चिकित्सा कराने से निश्चित न होंगे बल्कि बीमार स्त्री की भी चिकित्सा और शुश्रूषा आवश्यक होगी। अब आपका असंयत ‘मैं’ विस्तृत हुआ। आपने अपनी देह के अतिरिक्त स्त्री की देह को भी अपना जानना आरंभ कर दिया। किस काल्पनिक सुख की आशा से आपने विवाह किया था, देखते हैं कि वह अब कुछ नहीं है। आपका चित्त सुखी और हृदय उदार होने लगा, आप स्वार्थ त्याग करना सीखें, आपका मेरापन दिन-दिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला की तरह बढ़ने लगा। जब विवाह नहीं हुआ था। तब तुम जो कमाते थे वह सब अपने सुख पर खर्च कर डालते थे। जब विवाह हो गया तब आपको भविष्य की चिन्ता आरंभ हुई और एक प्राणी का समस्त भार ग्रहण करके उसका दायित्व समझने लगे। विवाह का उद्देश्य सिद्ध हो गया। 

क्रम से पुत्र कन्यादि उत्पन्न हुए तब आपका यह दायित्व ज्ञान और भी बढ़ने लगा। पहले आपका एक मैं था, अब अनेक मैं हो गया। खुद नहीं खाते-पहनते पर बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में खर्च करने लगे। बहुत सा रुपया खर्च कर कन्या का सुपात्र के साथ विवाह किया अब आपके पुत्र, पौत्र, दौहित्र आदि अनेक मैं हो गये। अब आपको उस पुराने खास ‘मैं’ की कुछ चिन्ता नहीं रही-बल्कि और जो अनेक मैं अपने बना लिये है उनकी चिन्ता होने लगी, क्यों ऐसा ही हुआ न ? आपके विवाह से इस तरह आपके मैं का विस्तार हुआ।

परन्तु यदि आप शुकदेव या शंकराचार्य की भाँति विवेकी पुरुष हैं तब आपके विवाह की कुछ आवश्यकता नहीं क्योंकि जिस उद्देश्य से विवाह किया जाता है वह पहले ही आप प्राप्त कर चुके हैं। आपने यदि विवाह के पूर्व ही विश्व को ‘मैं’ रूप जानना सीख लिया है तो फिर विवाह आपको क्या सिखायेगा।

जब आपने जगत को मित्र भाव से देखना आरंभ किया है तब फिर विवाह आपको और क्या शिक्षा देगा? वेद को जानने वाला मनुष्य फिर वर्णमाला (क-ख) क्यों पड़ेगा? सनातन शास्त्र ने भी ऐसे लोगों के लिए विवाह अनावश्यक लिखा है। गुरुगृह में ब्रह्मचर्यावस्था में ही यदि आत्मज्ञान अथवा ‘मैं’ का पूर्ण विकास या प्रसार हो जाय तो फिर विवाह की आवश्यकता नहीं रहती तब फिर संबंध स्थापन पूर्वक मैं के प्रसार की आवश्यकता नहीं रही। यदि ब्रह्मचर्य अवस्था में ऐसा प्रसार न हो तो ब्रह्मचर्य पूरा होने पर विवाह करना आवश्यक है। सनातन शास्त्र का ऐसा ही विधान है। गृहस्थ का अवश्य विवाह करना चाहिए। आर्यशास्त्र में कहे हुए दस संस्कार और नित्य नैमित्तिक आचार-प्रणाली यह सब ही आत्म-प्रसार साधन के शिक्षक और सहाय स्वरूप हैं।

गंगा का महात्म्य

कैलाश के उच्च शिखर भगवान शंकर और गिरिसुता पार्वती बैठे हुए कुछ मनो विनोद कर रहे थे। इधर-उधर की बातों का प्रसंग चल रहा था। स्त्रियों को दूसरों के मामले में दिलचस्पी होने की विशेष रुचि होती है। पार्वती जी के मस्तिष्क में भी अनेक प्रकार के प्रसंग आ रहे थे और एक-एक करके वे योगिराज से पूछती जा रही थी।
अचानक उनकी दृष्टि, भगवती गंगा पर जा पड़ी। पार्वती ने पूछा-भगवन्! इस गंगा को लोग क्यों इतने आदर की दृष्टि से देखते हैं ? शंकरजी ने सहज ही पतित पावनी गंगा का महात्म्य उन्हें सुना दिया। उसे सुनकर पार्वतीजी को बड़ा कौतूहल हुआ इसमें स्नान करने से लोग पवित्र हो जाते हैं, स्वर्ग जाते हैं, मुक्ति पाते हैं यह बात उनके गले न उतर सकी।
संयोग से उसी दिन कोई पर्व था। पार्वती ने दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि गंगा जी से ले सिन्धु तक लाखों नर-नारी गंगा स्नान कर रहे हैं। क्या यह सब पवित्र हो जायेंगे? इन सबको स्वर्ग मिलेगा? उनके मस्तिष्क में शंका और प्रश्नों की झड़ी लग गई।
अंतर्यामी भूतनाथ ने उनकी चिन्ता जान ली। और हल्की हँसी हँसते हुए कहा- प्रिय, मेरे वचनों पर संदेह मत करो। मैं तुमसे अन्यथा नहीं कहता। उद्विग्न मन से पार्वती ने उनके चरण रज मस्तक पर चढ़ाते हुए कहा- नाथ! तब तो स्वर्ग बड़ा सस्ता हो जायेगा, मुक्ति टके सेर मारी मारी फिरेगी। केवल स्नान मात्र से...........
“हाँ, स्नान मात्र से” भगवान् शंकर ने कहा- लेकिन कोई सच्चे हृदय से स्नान करने भी तो जाय! यह जो लाखों मेंढ़कों की भीड़ गंगा तट पर खड़ी हुई है, इनमें कुछ उंगलियों पर गिनने लायक मनुष्य ही वास्तविक गंगा स्नान के लिए आये हैं। शेष तो अपने विभिन्न प्रकार के स्वार्थ साधन एवं मनोरंजनों के लिए पहुँचे हैं।
पार्वती चकरा गई। वे खिन्न होकर झुझलाने लगीं। भगवन्, आपकी एक भी बात मेरी समझ में नहीं आती। आप स्नान से मुक्ति बताते हैं और स्नान करने वालों को मेंढक बताते हैं। इसका क्या तात्पर्य? आप ऐसा उलझन में डालने वाला ज्ञान मुझे क्यों सिखाते हैं? कुछ असंतुष्ट सी होती हुई पार्वती वहाँ से उठ कर नदी के पास चली गई और उसके सींग खुजाने लगीं।
आखिर स्त्री स्वभाव ही जो ठहरा। भगवान् बम भोला उन्हें मनाने के लिए उठे और पास जाकर हँसते हुए बोले- प्रिये! तुम तो रुष्ट हो गई। धर्म का मार्ग कुछ ऐसा गहन है ही। यह उतनी आसानी से समझ में नहीं आता जिस प्रकार की तुम समझना चाहती हो। अच्छा, आओ! मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें प्रत्यक्ष सब बातें दिखा दूँगा। पार्वती जी की इच्छा पूर्ण हो गई। और वे प्रसन्न होती हुई उनके साथ चल दीं। रास्ते में एक सलाह पक्की कर ली गई।


*****
गंगा तट से कुछ दूर एक बड़े राज मार्ग के किनारे शंकर जी कोढ़ी का रूप बनाकर पड़े रहे। पार्वती ने अपना स्वरूप अत्यन्त ही सुन्दर षोडशी का बना लिया।
उस रास्ते गंगा स्नान के लिए जाने वाली भीड़ मुड़ मुड़ कर उन्हें देखती जाती। एक ने कहा- सुन्दरी! इस कोढ़ी के साथ क्यों कष्ट सह रही हो चलो मेरे घर! तुम्हें स्वर्ग का आनन्द मिलेगा। दूसरे ने कहा- मेरे यहाँ किसी बात का घाटा नहीं है फूलों की सेज पर बैठी रहना। सुन्दरी सबकी बातें सुनती रहीं पर उत्तर किसी को कुछ न दिया, सवेरे से शाम हो गई हजारों यात्री उस रास्ते से निकले होंगे। सभी ने तरुणी को मूर्ख बताया कि वह क्यों एक कोढ़ी के साथ रह रही है। बहुतों के मन ललचाये कि यह रमणी हमें मिल जाय। कई ने तो अपनी लालसा शब्दों द्वारा भी प्रकट कर दी।
एक प्रचलित प्रथा के अनुसार किसी किसी ने कोढ़ी के निकट कुछ पाइयाँ फेंक दी। पर पार्वती को फूलों की सेज पर बिठाने के इच्छुकों में से एक ने भी ऐसी सहायता देने का प्रयत्न न किया कि वह अपने उसी पीड़ित पति के साथ सुगमता से रह सके।
अन्त में केवल एक व्यक्ति ऐसा आया जिसने तरुणी के पवित्र धर्म को सराहा। प्रदक्षिणा की उसकी चरणरज मस्तक पर लगाई और कहा- माता! तुम धन्य हो, जो ऐसे संकट के समय में भी अपने धर्म पर दृढ़ हो। जो कुछ वह कर सकता था धन, भोजन आदि की सहायता करके आगे चला गया।
अब सारा काम समाप्त हो चुका था। पार्वती जी काफी अनुभव पा चुकी थी। महादेव जी अपने उस नकली रूप को छोड़ कर उठ बैठे। उन्होंने कहा- अब मेरा कथन तुम्हारी समझ में आया? इतनी बड़ी भीड़ में एक ही व्यक्ति वास्तव में गंगा स्नान को आय था। औरों का उद्देश्य तो मेला देखना, मनोरंजन करना, पर नारियों को कुदृष्टि से देखना, लोगों की निगाह में अपने को धर्मात्मा सिद्ध करना, पापों से मुक्त होने का झूठा आत्म संतोष करना, मनोकामनाएं पूर्ण करने के लिए गंगा को स्नान की रिश्वत देना एवं एक अन्ध परिपाटी का अनुकरण करना होता है।
पार्वती! इन लोगों को गंगा स्नान का कुछ भी फल नहीं मिल सकता। स्वर्ग तो वही पावेगा जिसने अपनी आत्मा को पवित्र कर लिया है।
पार्वती ने परम संतुष्ट होकर कहा- नाथ! आप सत्य कहते हैं। अब मेरी समझ में गंगा का सच्चा महात्म्य आ गया।

गीता का कर्मयोग

श्रीमद्भगवदगीता की प्रवृत्ति युद्ध से विरत होते हुए अर्जुन को युद्धरत करने के लिए हुई है और इसमें गीता का ज्ञान सफल रहा है, अतः मानना होगा कि गीता प्रवृत्ति प्रधान ग्रन्थ है। यों तो उसमें निवृत्ति का भी वर्णन है, परन्तु वह गीता का अपना विषय नहीं। अर्थों की खींचतान यदि न की जावे तो गीता को निष्काम कर्म योग परक मानना ही होगा। गीता के प्रवृत्ति प्रधान होने का एक पुष्ट प्रमाण है उसकी यह परम्परा जो भगवान ने बताया है- 
इमं विघस्त्रे योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। 
विबस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवे ऽब्रवीत॥
एवं परम्परा प्राप्तमिमं राजर्षयों विदुः। 

‘अविनाशी मुझ परमात्मा ने यह (गीता रूपी) योग सूर्य को बतलाया था। सूर्य ने उसका उपदेश मनु को दिया और मनु ने इक्ष्वाकु को। इसी प्रकार परम्परा द्वारा आये इस योग को राजर्षि लोग जानते रहे।’ 

इस परम्परा में सभी प्रवृत्ति प्रधान क्षत्रिय बताये गये हैं। निवृत्ति प्रधान नारद, सनकादि, दत्तात्रेय प्रभूति को छोड़कर सूर्य, मनु और इक्ष्वाकु का नाम लिया गया है जो क्षत्रिय वंश के प्रतिष्ठापक एवं कर्मरत नरेश हैं। आगे भी ‘राजर्षियो विदु’ कहा गया है। यह ज्ञान प्रवृत्ति प्रधान राजर्षियों का रहा है। निवृत्ति प्रधान ब्रह्मर्षियों का नहीं। लोक संग्रह के लिये निष्काम होकर राज्य करते हुए, दुष्टों के दमन में तत्पर चक्रवर्ती नरेश इस ज्ञान का आश्रय लेते रहे हैं। इस परम्परा के अतिरिक्त भगवान ने स्थान-स्थान पर स्पष्ट कहा भी है ‘तयोस्तु कर्म संन्यासात कर्मयोगो विशिष्यते’ आदि। 

संपूर्ण गीता निष्काम कर्म योग का शास्त्र है। उसमें कर्मयोग के प्रत्येक पहलू पर विशद रूप से विचार किया गया है। लेकिन पूर्वकाल में वर्णन की रीति ‘समास व्यास विधिना’ थी। किसी विषय को प्रथम कहीं थोड़े शब्दों में कह देते थे और पुनः उसी का विस्तार करते थे। भगवान ने इस परम्परा की रक्षा की है। संपूर्ण कर्मयोग को सूत्र रूप से एक श्लोक में बता दिया है। फिर उसी का विस्तार किया गया है। चार सूत्रों में गागर में सागर भर दिया गया है। वह कर्मयोग की चतुःसूत्री है- 
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषुकदाचन। 
भा कर्मफल हेतुभूः मा ते संगो ऽस्त्वकर्मणि॥ 

‘तेरा अधिकार कर्म करने में ही है, फल में कभी नहीं। कर्म फल का कारण मत बन। अकर्म से तेरा साथ न होवे।’ 

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कर्म करने में तेरा अधिकार है। कर्मयोग का यह प्रथम सूत्र है। इसमें बतलाया गया है कि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है। कर्म करने से उसे कोई रोकता नहीं। मनुष्य योनि की यही विशेषता है कि इस मानव शरीर में आकर स्वेच्छानुसार कर्म कर सकता है। वह अपने उत्थान या पतन का मार्ग यहीं बनाता है। मानव शरीर में किये कर्मों को ही वह देव, दैत्य, पशु, तिर्यकप्रभृति योनियों में भोगता है। गीता में इसके विपरीत दो श्लोक आते हैं- 

“ईश्वरः सर्वभूतानाँ हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। 
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारुढ़ानि मायया॥” 

ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया में उन्हें यन्त्र पर चढ़े हुए की भाँति घुमाता रहता है। 
‘प्रकृतीं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।’

प्राणी मात्र अपने स्वभाव के अनुसार ही बर्ताव करते हैं, वहाँ निरोध कुछ भी नहीं कर सकता। 

इस प्रकार के जो वाक्य आये हैं, उनका तात्पर्य यह नहीं कि मनुष्य कर्म करने में परतंत्र है। यदि वह कर्म करने में परतन्त्र हो तो शास्त्रों के समस्त विधि निषेध व्यर्थ हो जावेंगे। क्योंकि व्यवस्था तो स्वतन्त्र के लिए ही बनती है। परतन्त्रता पूर्वक जो कर्म मानव करेगा, उसका फल भागी भी वह नहीं हो सकता। अतएव कर्म करने में मनुष्य को स्वतन्त्र ही मानना होगा। यही बात भगवान ने प्रथम सूत्र से कही। ईश्वर प्राणिमात्र के हृदय में रहता और उन्हें यन्त्रारूढ़ की भाँति घुमाया करता है, तथा जीवमात्र अपनी अपनी प्रकृति के परतन्त्र है, इसको कहने का उद्देश्य मनुष्य कर्म करने में कहाँ तक स्वतंत्र है, इस स्वतन्त्रता की सीमा बतलाना है। कर्म करने में स्वतन्त्र होते हुए भी मानव ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ समर्थ तो है नहीं। उसके कर्म स्वातंत्र्य की सीमा है। 

प्रत्येक व्यक्ति संसार में किसी न किसी विशेष उद्देश्य से आता है और उसका एक जन्म जात स्वभाव भी होता है। वह उस विशेष उद्देश्य को करते हुए और स्वभाव के अनुसार कर्म करने में समर्थ होता है। उनके विपरीत जाने के लिए वह स्वतन्त्र नहीं। उदाहरण के रूप में अर्जुन को लीजिए, पृथ्वी के भार को दूर करने के विशेष उद्देश्य से उसका जन्म हुआ था। अतएव इस कार्य में वह ईश्वर परतन्त्र हुआ। उसे यह कार्य करना ही होगा। ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय में रहता हुआ उन्हें घुमाता रहता है, इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि भगवान उदय में हैं और उन्हीं के प्रकाश से जीव यावत्कर्म करता है। हमारे शरीर के भीतर जितने रक्त के कीटाणु हैं, वे जिस स्थान पर हैं, वहाँ रहने के लिए विवश हैं। कहा जा सकता है कि हमारी शक्ति उनके भीतर है और हमीं उनको संचालित करते हैं। परन्तु वे अपने स्थान पर रहते हुए अपनी चेष्टाओं में स्वतंत्र हैं। ऐसे ही ईश्वर द्वारा नियुक्त स्थान पर रहते हुए, संसार में अपने आने के विशेष उद्देश्य को पूर्ण करते हुए मनुष्य अपनी दूसरी चेष्टाओं में स्वतंत्र है। यही मनुष्य का कर्म स्वातंत्र्य है। 

‘प्रकृतीं यान्ति भूतानि’ में जीव को स्वभावतः परतन्त्र बताया गया है। स्वभाव परतन्त्रता से कर्म की स्वतन्त्रता में तो कोई बाधा आती नहीं। इतना अवश्य होता है कि स्वभाव के विपरीत चलने के लिए मनुष्य समर्थ नहीं। एक व्यक्ति का स्वभाव क्रोधी है। अब वह चाहे कि उसे क्रोध न आवे, यह असम्भव नहीं तो कठिनतम अवश्य है। लेकिन क्रोध के उपयोग में तो वह स्वतंत्र है ही। वह पापियों, दुष्टों तथा अपने दुर्गुणों पर क्रोध करके संसार की भलाई एवं अपनी आत्मोन्नति कर सकता है। दुष्टों से मिल कर निरापराधियों पर क्रोध करेगा तो उसका परिणाम उसके लिए घातक होगा। इसी प्रकार के स्वभावों का भला और बुरा उपयोग हो सकता है। स्वभाव के उपयोग में मनुष्य स्वतंत्र है और यही उपयोग उसकी उन्नति या अवनति का कारण होता है, अतः स्वभाव परतन्त्र होते हुए भी वह कर्म करने में स्वतन्त्र है, ऐसा कहने में कोई बाधा नहीं। इसीलिए भगवान ने ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कहा। केवल कर्म में अधिकार है, स्वभाव परिवर्तन या ईश्वर के दिये स्थान परिवर्तन में नहीं। 

‘माँ फलेषु कदाचन’ फल में तेरा अधिकार कभी नहीं। यह दूसरा सूत्र है कर्मयोग का। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि एक ही परिस्थिति में, एक ही प्रकार के साधन से, एक ही कर्म के करने वालों में फल भेद होता है। कोई सफल होता है, कोई विफल होता है, कोई किसी अंश में ही सफल होता है और कोई हानि भी उठाता है। अतः उद्योग का फल उद्योग पर निर्भर हो, ऐसी बात नहीं। फल तो प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त होता है। गोस्वामी जी ने कहा है - 
‘हानि लाभ जीवन मरण -जस अपजस विधि हाथ।’ 

कर्म के परिणाम स्वरूप हानि-लाभ, जीवन-मृत्यु यश एवं अपयश ये प्रारब्ध के अनुसार होते हैं। इन्हें प्राप्त करने में हम परतन्त्र हैं। अतः कर्म का यह फल होगा ही या यह फल होना ही चाहिए ऐसा सोच कर कर्म करने वाले सर्वदा दुख पाते हैं। फल भगवान को समर्पित करके कर्तव्य बुद्धि से कर्म करना चाहिए। फलासक्ति ही सर्वदा कष्ट देती है। यदि फल आसक्ति छोड़ दी जावे तो फिर कष्ट क्यों हो। जिसमें अपना अधिकार नहीं, उसमें आसक्ति करके कष्ट तो भोगना ही पड़ेगा। 

तीसरे सूत्र में कहा गया ‘मा कर्मफल हेतु र्भूः’ कर्म फल के कारण मत बनो ! कर्म करने पर उसका अच्छा या बुरा, पूरा या अधूरा कुछ न कुछ फल तो होता ही है। वह फल मेरे कर्म से, मेरे उद्योग से हुआ है ऐसा मत समझो। क्योंकि कर्म फल का कारण केवल उद्योग तो है नहीं। 

“अधिष्ठानं तथा कर्ताकरणं च पृथग्विधम। 
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्॥ 
शरीवाँमनोभिर्यर्त्कम प्रारभते नरः। 
न्याय्यं वा विपरीतं वा पंचेते तस्य हेतवः॥ 
तत्रैवं सति कर्तारंमात्मानं केवलं तु यः। 
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न। स पश्यति र्मदुतिः॥” 
18। 14। 15। 16 

अधिष्ठान (कर्म का जो आधार है) कर्ता (करने वाले की शक्ति और योग्यता) नाना प्रकार की सामग्रियाँ (जो उपयोग में आती हैं, उनकी अच्छाई बुराई) विविध प्रकार की भिन्न-भिन्न चेष्टा (जितनी तत्परता से और ठीक समय पर हो) तथा प्रारब्ध (जैसा अनुकूल या प्रतिकूल हो) ये पाँच उन सब उचित और अनुचित कर्मों के कारण होते हैं जो मनुष्य शरीर से, मन से अथवा वाणी से प्रारम्भ करता है। अज्ञता वह जो कर्मों में केवल अपने को कारण मानता है, वह दुर्बुद्धि ठीक नहीं समझता। 
‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 
अहंकार विमूढ़ात्मा कर्ता ऽहमिति मन्यते॥’ 

सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किये जाते हैं, केवल अहंकार से मूढ़ बुद्धि हुआ पुरुष अपने को कर्ता समझता है। यह कर्ता समझना ही बंधन का हेतु है। जब पुरुष अपने को कर्ता मान लेता है, कर्म फल को अपने उद्योग का फल मानता है तो वह उसके पाप-पुण्य का भागी होकर संसार चक्र में भटकता रहता है। कर्तापन का यह अभिमान ही उसे पाप-पुण्य से युक्त करता है। अन्यथा- 

“गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते।” 

त्रिगुण अपने गुणों में ही बर्ताव कर रहे हैं, ऐसा समझ कर उनके द्वारा किये कर्मों से संसक्त नहीं होता। 

‘यस्य नाहंकृतोभावों बुद्धिर्यस्य न लिप्यति। 
हत्वाऽपि स इमान्लोकानहन्ति न निबध्यते॥’ 

‘मैंने यह कार्य किया है’ ऐसा अहंभाव जिसमें नहीं है, जिसकी बुद्धि कर्म में लिप्त नहीं होती, वह त्रिभुवन के संहार के सदृश घोर कर्म करे तो भी न तो वह हत्यारा होता और न उसे उस कर्म से बंधन होता। भगवान शंकर इसके साक्षात उदाहरण भी है। संपूर्ण विश्व का प्रलय करके भी वे शिव कल्याण स्वरूप ही रहते हैं। 

बात यह है कि कर्म में अहंकार व्यक्ति से पाप कराता है। पाप सर्वदा भोगेच्छा या स्वार्थ बुद्धि से होते हैं, ऐसे ही सकाम पुण्य कर्म भी अहंकार युक्त और यशादि की इच्छा से ही होते है। जिसमें अहंभाव नहीं है, उससे न तो पाप हो सकते है और न सकाम पुण्य। वह केवल अपने स्वभाव के अनुसार उस कर्म को करेगा, जिस कर्म विशेष के लिए विश्वनियन्ता ने उसे भेजा है। उसके द्वारा जो भी कर्म होता है, वह विश्वकर्ता की इच्छा ही से होता है। अतः वह उस कर्म के फल से क्यों संसक्त होने लगा। फल से तो संसर्ग तभी होता है जब उस फल में आसक्ति हो। मैंने उसे प्रकट किया है, ऐसा अहंकार हो अतएव भगवान इस अहंकार से जो कि मिथ्याहंकार है, सावधान करते हैं ‘मा कर्मफल हेतु र्भूः’ कर्मफल को अपने उद्योग का फल समझ उसके कारण मत बनो ! यह तो प्रारब्ध की देन है, भगवान का प्रसाद है।

‘माते संगोस्त्वकर्मणि’ यह चौथा और अन्तिम सूत्र है कि तुम्हारा अकर्म से संग न हो ! आलसी बनकर बैठे मत रहो! ‘फल में अपना अधिकार ही नहीं, उद्योग करने पर भी फल होगा यह निश्चित नहीं, फल हो भी तो वह प्रारब्ध से होता है, उद्योग उसका कारण नहीं ऐसा समझकर उद्योग करना ही मत छोड़ दो!’ कर्म करना तुम्हारा कर्तव्य है, अतः तुम्हें कर्म तो करना ही चाहिए। क्योंकि तुम कर्म को छोड़ नहीं सकते। कर्म करने के लिए विवश हो। 
“न कश्चिक्षणमपि आतु तिष्ठत्यकर्मकृत्। 
कार्यते हावशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैगुर्णेः॥” 

कोई उत्पन्न हुआ प्राणी एक क्षण भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। प्रकृति के गुणों से विवश होकर गुणों द्वारा उससे कर्म कराया ही जाता है। सभी इस प्रकार प्रतिक्षण कर्म करते ही रहते हैं। चाहे हमें इन्द्रियों को रोककर कर्म करने से विरत भी रख सकें, पर मनीराम तो मानने से रहे। उनकी उधेड़बुन तो चला ही करेगी। फिर इस प्रकार इन्द्रियों से कर्म न करना कोई अच्छा तो है नहीं। 
“कर्म्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसास्यरन्। 
इन्द्रियार्थान विसूढात्मा मिथ्याचारः स उच्चयते॥” 

जो मूर्ख बुद्धि पुरुष कर्मेंद्रियों को कर्मों से रोक कर मन के द्वारा विषयों का चिन्तन करता है, वह पाखण्डी कहा जाता है। इस प्रकार के पाखण्ड से कोई भी लाभ नहीं है। इस बाह्य त्याग के द्वारा कोई भी नैष्कर्म्यावस्था को नहीं पाता। 
‘न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषोश्नुते। 
न च सन्यसनादेव सिद्धिं समाधिमच्छति॥ 

कर्म को आरंभ न करने मात्र से पुरुष निष्कर्मावस्था का आनन्द नहीं प्राप्त करता और न तो करते हुए कर्मों को छोड़ देने (कर्म संन्यास) मात्र से नैष्कर्म्य सिद्धि कर पाता है। निष्कर्मता तो मन का धर्म है। शरीर के द्वारा निष्क्रिय हो भी गये तो क्या लाभ ? क्योंकि बंधन और मोक्ष का कारण तो है मन। इस मन को निष्क्रिय बनाना है। मन की निष्क्रियता है कर्म और कर्मफल से अनासक्त रहना। इस के अतिरिक्त शरीर से कर्म छोड़ देने में हानि भी है। सभी जानते हैं कि सत्वगुण का धर्म आनंद, रजोगुण का धर्म क्रिया तथा तमोगुण का धर्म निद्रा एवं आलस्य है। कोई भी निरंतर सत्वगुण में स्थिति रहे, यह नितांत कठिन है। सत्वगुण में स्थिति न रहने पर यदि हम बलात् कर्म को त्याग दें और इस प्रकार रजोगुण में न रहने का दुराग्रह करें तो निश्चय है कि हमें तमोगुण में रहना होगा। हमारे द्वारा निद्रा एवं आलस्य का पोषण होगा। यह स्थिति किसी भी अध्यात्म मार्ग के पथिक के लिए भयंकर है। 

एक महापुरुष का कहना है ‘चोर एवं डाकू तो अच्छे है, उन्हें भगवान मिल सकते है; लेकिन निरंतर आलस्य में पड़े रहने वाले अच्छे नहीं। उन्हें कभी भी प्रभु के दर्शन न होंगे।’ मतलब यह है कि रजोगुण से सतोगुण में पहुंचना ही शक्य है, लेकिन तमोगुण से सतोगुण में नहीं पहुँचा जा सकता। इसलिए वीर कर्म करने वाले डाकू प्रभृति भी राजसिक होने के कारण नींद एवं आलस्य में पड़े रहने वाले लोगों से श्रेष्ठ तथा भगवान के निकट हैं। कुछ भी न करके आलस्य में पड़े रहने की अपेक्षा कुछ भी करना, बुरे से बुरा काम भी करना अच्छा है। क्योंकि क्रिया में मनुष्य तामसिकता से उठकर कुछ तो रजोगुण में आता ही है। 

स्पष्ट है कि बल पूर्वक कर्म का त्याग किसी भी साधक के लिए हितकर नहीं हो सकता। इससे उसकी हानि ही होगी। कर्म त्याग करके वह अपने पतन का मार्ग बना लेगा। अतएव भगवान साधक को सावधान करते हैं ‘माते संगोसत्वकर्मणि’ अकर्म से तुम्हारा संगों न हो ! तुम कहीं आलसी न बन जाओ। इन चार सूत्रों द्वारा गीता के एक ही श्लोक में पार्थ-सारथि ने संपूर्ण कर्मयोग बतला दिया है। कर्म करने में तुम स्वतंत्र हो, परन्तु फल तुम्हारे आधीन नहीं। कर्म का फल हो भी तो उस फल का कारण अपने को मत समझो। साथ ही कर्म करना छोड़ भी मत दो! यही संपूर्ण कर्मयोग है। 
यत्करोषि यदश्नासि यज्जहोषि ददासियत्। 
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदपर्णम॥ 

जो कुछ करते हो, जो भोजन करते हो, जो हवन करते हो, जो दान करते हो और जो तपस्या करते हो वह सब मेरे अर्पण कर दो! कर्म करते रहो, छोड़ो मत! पर उसे कर्तव्य समझकर और उसके फल को भगवदार्पण करते हुए।

भोगे बिना छुटकारा नहीं

वह दोनों सगे भाई थे। गुरु और माता पिता के द्वारा शिक्षा पाई थी, पूजनीय आचार्यों से प्रोत्साहन पाया था, मित्रों द्वारा सलाह पाई थी। उन्होंने वर्षों के अध्ययन, चिन्तन और अन्वेषण के पश्चात जाना था कि दुनिया में सबसे बड़ा काम जो मनुष्य के करने का है वह यह है कि अपनी आत्मा का उद्धार करे। मूर्ख इसे नहीं जानते। वे पत्ते-पत्ते को सींचते फिरते हैं फिर भी पेड़ मुरझाता ही चला जाता है। संसार की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक शारीरिक सभी प्रकार की समस्यायें इसी एक बात पर निर्भर हैं कि आदमी ईमानदार बने, सदाचारी हो, आत्म कल्याण करे।

वे दोनों भाई शंख और लिखित इस तत्व को भली प्रकार जान लेने के बाद तपस्या करने लगे। पास पास ही दोनों के कुटीर थे। मधुर फलों के वृक्षों से वह स्थान और भी सुन्दर एवं सुविधाजनक बन गए। ये दोनों भाई अपनी-अपनी तपोभूमि में तप करते और यथा अवसर आपस में मिलते-जुलते थी।
एक दिन लिखित भूखे थे। वे भाई के आश्रम में गये और वहाँ से कुछ फल तोड़ लाये। उन्हें खा रहे थे कि शंख भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने पूछा यह फल तुम कहाँ से लाये ? लिखित ने उन्हें हंसकर उत्तर दिया-तुम्हारे आश्रम से।
शंख यह सुनकर बड़े दुखी हुए। फल स्वयं कोई बहुत मूल्यवान वस्तु न थे। दोनों भाई आपस में फल लेते देते भी रहते थे किन्तु चोरी से बिना पूछे नहीं उन्होंने कहा-भाई ! यह तुमने बुरा किया। किसी की वस्तु बिना पूछे लेने से तुम्हें चोरी का पाप लग गया। लिखित को अब पता चला कि वास्तव में उन्होंने पाप किया है और पाप के फल का बिना भोगे छुटकारा नहीं हो सकता।
दोनों भाई इस समस्या में उलझ गये कि अब क्या करना चाहिए। पाप का फल तुरंत ही मिल जाय तो ठीक अन्यथा प्रारब्ध में जाकर वह बढ़ता ही रहता है। और आगे चलकर ब्याज समेत चुकाना पड़ता है। निश्चय हुआ कि इस पाप का फल शीघ्र ही भोग लिया जाय। चूँकि दंड देने का अधिकार राजा को होता है इसलिए लिखित अपने कार्य का दंड पाने के लिए राजा सुद्युम्न के पास पहुँचे।
इस तेज मूर्ति तपस्वी को देखकर राजा सिंहासन से उठ खड़े हुए और बड़े आदर के साथ उन्हें उच्च सिंहासन पर बिठाया। तदुपरान्त राजा ने हाथ जोड़कर तपस्वी से पूछा-महाराज कहिये मेरे योग्य क्या आज्ञा है ? लिखित ने कहा-राजन्! मैंने अपने भाई के पेड़ से चोरी करके फल खाये हैं सो मुझे दंड दीजिए इसीलिए आपके पास आया हूँ।
राजा बड़े असमंजस में पड़ा। इस छोटे से अपराध पर इतने बड़े तपस्वी को वह क्या दंड दे। और वह भी ऐसे समय जबकि वह स्वयं अपना अपराध स्वीकार करते हुए दंड पाने के लिए आया है। राजा कुछ भी उत्तर न दे सका।
तपस्वी ने उसके मन की बात जान ली। और उन्होंने न्यायाधिपति से स्वयं ही पूछा कि बताइये शास्त्र के अनुसार चोरों को क्या दंड दिया जाता है? न्यायाधीश अपनी ओर से बिना कुछ कहे शास्त्र का चोर प्रकरण निकाल लाये। उसमें विधान था कि चोर के हाथ काट लिये जायें।
‘यही दंड मुझे मिलना चाहिए।’ तपस्वी ने कहा - न्याय दंड किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। व्यक्तियों का ख्याल किये बिना निष्पक्ष भाव से जो व्यवहार किया जाता है वही सच्चा न्याय है। राजन् तुमने मुझसे आते समय यह पूछा था मेरे योग्य क्या आज्ञा है? मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि शीघ्र ही मेरे दोनों हाथ कटवा डालो।’ राजा विवश था, उसे तपस्वी की आज्ञा पालन करनी पड़ी।
अपने अपराध का दंड पाकर तपस्वी लिखित प्रसन्नतापूर्वक आश्रम को लौट आये। अपने भाई की कर्त्तव्य परायणता और कष्ट सहनशीलता को देखकर शंख का गला भर आया और वे उनके गले से लिपट गये। शंख ने कहा-अपराधी हाथों को लेकर जीने की अपेक्षा बिना हाथों के जीना अधिक श्रेष्ठ है। लिखित ! पाप का फल पाकर अब तुम विशुद्ध हो गये।
शंख की आज्ञानुसार लिखित ने पास की नदी में जाकर स्नान किया। स्नान करते ही उनके दोनों हाथ फिर वैसे ही उग आये। वे दौड़े हुए भाई के पास गए और उन नये हाथों को आश्चर्य पूर्वक दिखाया।
शंख ने कहा-भैया, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हम लोगों की तपस्या के कारण ही यह क्षतिपूर्ति हुई है। तब लिखित ने और अधिक अचंभित होकर पूछा-यदि हम लोगों की इतनी तपस्या है तो क्या उसके बल से उस छोटे से पाप को दूर नहीं किया जा सकता था ?
शंख ने कहा- ‘न’ पाप का परिणाम भोगना ही पड़ता है। उसे बिना भोगे छुटकारा नहीं मिल सकता।
(महाभारत)

हिन्दुओं की जातीय भावना

हिंदू किसी से द्वेष नहीं करते। यह उनका जन्म जात संस्कार है। इस संस्कार को कोई नष्ट नहीं कर सकता, क्योंकि हिंदुओं के जातीय चिरंजीव का मूल इसी संस्कार से सींचा गया है। विभिन्न संस्कृत के अपने ही कुछ बेगानों के बेसुरे आलाप से तंग आकर हम कितनी ही बार यह सोचते हैं कि हिन्दुओं में यदि शाँति न होती तो बड़ा अच्छा होता। परन्तु यह सोचना ठीक नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता। कारण, हिन्दु जाति का यह मूलगत संस्कार है। मूलगत संस्कारों के उखाड़ने की चेष्टा मूल को ही उखाड़ने की सी चेष्टा हो जाती है। हिंदुस्तान पर कितनी ही बार विदेशियों के आक्रमण हुए, कितनी ही बार हिन्दुओं को विदेशियों ने लूटा-खसोटा, कितने ही बार भयंकर से भयंकर अत्याचार किये, पर हिन्दुओं के हृदय, रक्त, माँस, मज्जा में उनके प्रति कहीं भी कोई द्वेष नहीं है। इतना शाँत रक्त संसार में अन्य किसी भी जाति का न होगा। कुछ लोगों का यह कहना है कि यह शाँति कायरता है। परन्तु यह सदा स्मरण रहे कि, यह शाँति कायरता में नहीं होती। कायरता अशान्ति की एक देन है। कायर वही होता है, जिसमें सत्य नहीं होता, सत्य पर विश्वास नहीं होता। हिन्दू जिस शाँति के रक्षक हैं, वह सत्यमूलक है। ऐसी शान्ति यदि जगत में सब देशों को प्राप्त हो, तो उनका कल्याण हो जाये। हिन्दुओं की यह द्वेषरहित शाँति जगत के लिए वरेण्य है और इसका हिन्दुओं में सुरक्षित रहना हिन्दुओं के अभ्युदय और जगत के सुख के लिए अत्यंत आवश्यक है। हिन्दू आज संसार को कुछ देना चाहें तो क्या दे सकते हैं। हिन्दू सब कुछ तो खो चुके हैं, इस शाँति के सिवाय अब उनके पास है ही क्या ? इस शाँति को भी यदि वे खो दें, तो वे कहीं के भी न रहेंगे। आवश्यक यह है कि हिन्दू जाति के इस मूलगत संस्कार को हम लोग समझें और जाति के उत्थान के लिए जो कुछ करना चाहें, वह इसी बुनियाद पर करें। 

हिन्दुओं की यह शाँति अवश्य ही दोषों से बिलकुल खाली नहीं है। शाँति तो है, पर उसके साथ कुछ दोष भी हैं, जिनको दूर करना होगा। ये दोष वे ही हैं, जिनके कारण हम आज वह नहीं हैं, जो कुछ कि हम होना चाहते हैं, जिसके लिए हिन्दुओं का हिन्दू जातीय जीवन है। वे दोष क्या हैं ? हम बहुत से दोषों की चर्चा नहीं करेंगे, एक मुख्य दोष ही सामने रखते हैं, जिसमें पाठक देखेंगे कि अन्य कई दोषों का समावेश हो जाता है। वह दोष यही है कि हिन्दुओं में जाति की मर्यादा की अपेक्षा व्यक्ति की मर्यादा बहुत अधिक बढ़ गयी है। व्यक्ति सदा ही शाँति का एक छोटा सा अंग मात्र है, पर जातीय शरीर का यह छोटा सा अंग जाति के विराट शरीर से भी बड़ा हो गया है- आकार में नहीं, मनोभाव में। तरंग समुद्र का एक अंग है, वह समुद्र से कभी बड़ा नहीं हो सकता, पर मान लीजिए कि कोई तरंग अपने आपको समुद्र से बड़ा मान ले, तो इसे आप जितना उपहासास्पद समझेंगे, उससे किसी व्यक्ति का अपने आपको जाति से बड़ा मान लेना कम हास्यास्पद नहीं है। व्यक्ति का भी एक स्वातंत्र्य होता है, पर वह जाति के एकाँश में होता है। जाति के बाहर नहीं, जैसे तरंग समुद्र के अन्दर रहकर ही चाहे जितना ऊँचा उछल सकता है, समुद्र से अलग होकर नहीं। व्यक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं है, यदि वह जाति के अन्दर न हो। व्यक्ति जाति का अभिन्न अंग है। प्रत्येक हिन्दू, हिन्दू जाति का अभिन्न अंग है, किसी को हम अपने से अलग नहीं कर सकते, अलग किया जाना बरदाश्त नहीं कर सकते और कोई अलग होकर हिन्दू रह भी नहीं सकता। विचारकाल में यह बात तो हमें जंचती है, पर क्या व्यवहार में हमें इसका कोई अनुभव होता है ? यदि होता तो हिंदुओं की जन्मजात सत्यमूल शाँति बदनाम न होती और हम लोग इतने हीन, इतने दीन, इतने असहाय न होते। 

लोग कहते हैं और उनका यह कहना ठीक है कि, मुसलमानों में जैसी जातीय एकता है, वैसी हिन्दुओं में नहीं है। हिन्दुओं में जो शाँति है वह चाहे मुसलमानों में न हो, पर मुसलमानों में जो जातीय एकता है वह हिंदुओं में नहीं है, यह बात तो माननी पड़ेगी क्या ही अच्छा होता यदि मुसलमान हिंदुओं से शाँति ले लेते और हिन्दू मुसलमानों से जातीय एकता सीख लेते। 

जातीय एकता क्या है ? इस एकता का, सबकी समझ में आने योग्य एक छोटा सा नाम है अभिमान। हमें इस बात का अभिमान होना चाहिए कि, हम हिन्दू हैं और कोई भी हिन्दू, चाहे वह किसी जाति का हो, हमारा भाई है-केवल विचार में नहीं व्यवहार में भी। कोई गृहस्थ जब ईश्वर से अपने सुख के लिए प्रार्थना करता है, तो उस प्रार्थना का क्या आशय होता है? उसकी प्रार्थना अपने घर के सब लोगों के सब प्रकार के सुख के लिए होती है। इसी तरह प्रत्येक हिन्दू की कामना-प्रार्थना सब हिंदुओं के लिए-हिन्दूमात्र के लिए होनी चाहिए। ईश्वर हमारी रक्षा करे। यह जब हम कहते हैं, तो चित्त में यह भाव जागता हुआ होना चाहिए कि, ईश्वर हम सब हिंदुओं की रक्षा करें। हम जो ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय हैं, वैश्य हैं, शूद्र हैं और अंत्यज हैं-वे सब हमारे अंग हैं, हमसे भिन्न नहीं, हमारा सुख इन सबके सुख में है हमारा जीवन इन सबका जीवन है। मनुष्य का जैसा मन होता है, वैसा ही उसके द्वारा आप ही प्रचार हुआ करता है, चाहे वह सुख से एक शब्द भी न बोले। व्याख्यानों में बड़ी-बड़ी बातें कहकर पीछे उन्हें भूल जाने की अपेक्षा बिना कुछ कहे ही मन को ऐसा बना लेना कि, वह जातीय मन हो जाय। जाति की हितकामना से सर्वथा सहज अभिन्न-बहुत अधिक काम करता है, क्योंकि ऐसे मन से वे ही परमाणु निकला करते हैं। यह बात तो वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा भी सिद्ध हो चुकी है। यदि हम ब्राह्मण होकर भी चांडाल को अपना भाई समझते हैं, तो बिना कुछ कहे-सुने ही चांडाल भी हमें देखने के साथ ही अपना भाई मानता है। हिंदुओं का मन तो अत्यंत वैयक्तिक होकर जाति की मर्यादा को बराबर लाँघता आ रहा है, यही हिंदुओं के समष्टिगत और व्यक्तिगत दुख का कारण है। यही दोष है, जो हिंदुओं की स्वभावगत शाँति की अव्यर्थ शक्ति को ऊपर उठने नहीं देता। 

स्कूलों में, कालेजों में, पाठशालाओं और विद्यालयों में हिंदू बालकों की शिक्षा का यह प्रधान अंग होना चाहिए कि, वे हिंदूमात्र को अपने से अभिन्न समझें, उसके सुख-दुख को अपना सुख-दुख मानना सीखे और हिंदू जाति के किसी अंग पर किसी प्रकार का आघात होने पर उसे अपने ऊपर होने वाला आघात अनुभव करे। यह शिक्षा का काम है। घरों में, विद्यालयों में, सभाओं में और समाचार पत्रों में इसी मर्म को ध्यान में रखकर यथा प्रसंग लोकमत को ऐसा ही बनाने का सच्चे हृदय से जो भी प्रयत्न किया जायगा, यह अवश्य हितकर होगा। 

दो ही बातें ध्यान में रखने की हैं- (1) हिंदुओं की शाँति हिंदू जाति का मूलगत संस्कार है, इसके विपरीत छेड़छाड़ न कर इसे पुष्ट ही करना चाहिए और (2) हिंदूमात्र मा मन जातीय भावना से इस तरह भर जाय कि हिंदूमात्र की व्यक्तिगत कामना और जातीय हितकामना एक ही चीज हो। हिंदुओं का आगे जो कुछ करना है, उसके ये दो मूल सिद्धाँत हैं।

ब्राह्मणों से श्रेष्ठ

दुनियादारी के चक्कर में चिरकाल तक पिसने के बाद आत्मा को एक विशेष शाँति की आवश्यकता होती है। भगवान भास्कर दिन भर अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए एक विश्राम चाहते थे। वे एकान्त सेवन के लिए अस्त ही हुआ चाहते थे। इस संध्या समय में महर्षि गौतम का आश्रम बड़ा शोभायमान हो रहा था। संध्या की सुनहरी धूप ने मानो उस उपवन में स्वर्ण बखेर दिया हो। गुरु चरणों के निकट बैठकर छात्रगण अपना पाठ पढ़ रहे थे। 

इसी समय एक अपरिचित बालक आया। उसने परिक्रमा करके गुरुचरणों में प्रणाम किया और विनम्र भाव से कहने लगा-भगवान ! मैं विद्या पढ़ने के लिए आपके चरणों में उपस्थिति हुआ हूँ। मुझे विद्या दान दीजिए। 

गुरु ने बालक को आशीर्वाद दिया और पूछा - वत्स, तुम्हारा क्या वर्ण है ? वर्ण के अनुसार ही विभिन्न विद्याएं प्राप्त करनी चाहिए। ब्रह्म विद्या का अधिकार ब्राह्मणों को ही है। 

बालक ने मस्तक झुकाकर उत्तर दिया - ‘भगवान मुझे अपने वर्ण का पता नहीं है। मैं जाकर अपना वर्ण पूछ आता हूँ।’ 

आश्रम में चलकर नदी को पार करता हुआ बालक अपनी कुटी पर पहुँचा। भीतर पुत्र की प्रतीक्षा में मरतर बैठी हुई थी एक मन्द दीपक पास में टिलटिला रहा था। पुत्र को आया देखकर माता को चिन्ता प्रसन्नता में परिणत हो गई। 

बालक ने माता से गुरु का प्रश्न कह सुनाया। पूछा -”माता ! मैं किस वर्ण का हूँ? मेरे पिता कौन हैं?” 

माता की आंखें लज्जा से पृथ्वी में गड़ गई। उसने धीमे स्वर में कहा-”पुत्र! बड़ी दरिद्रता की दशा में मैंने अपना जीवन काटा है। युवावस्था में पेट के लिए मुझे अनेक पुरुषों की सेवा करनी पड़ी है। मेरी गोदी है, किन्तु पति कोई नहीं।’ 

कर्म सबको करना होता है। रूप धारण करके कोई निःचेष्ट नहीं रह सकता। प्रकृति के चक्र पर संपूर्ण पदार्थ चाक पर चढ़ी हुई मिट्टी की तरह घूमते रहते हैं। दूसरा दिन आया। प्रातःकाल होते ही सूर्य ने पुनः अपना कर्तव्य कर्म आरंभ कर दिया। वन पर्वत सभी प्रातः रश्मियों से चमक उठे। गुरु गौतम के आश्रम की पाठशाला में वेद ध्वनि सुनाई पड़ने लगी। 

बालक सत्य काम आया और ऋषि के चरणों में प्रणाम करने चुपचाप खड़ा हो गया। 

गुरु ने पूछा - पूछ आये ? बताओ किस वर्ण के हो ? 

बालक ने कहा - भगवन् मेरी माता ने कहा है - ‘बड़ी दरिद्रता की दशा में मैंने अपना जीवन काटा है। युवावस्था में पेट के लिए मुझे अनेक पुरुषों की सेवा करनी पड़ी है। मेरी गोदी है, किन्तु पति कोई नहीं।’ 

छत्ते की क्रुद्ध बर्रों की तरह छात्रगण आपस में भिनभिनाने लगे। धर्म का वास्तविक तत्व से अपरिचित वर्ण धर्म का मूल रहस्य न जानने वाले किसी कुल में जन्म लेने मात्र के कारण ही से उस व्यक्ति के संबंध में मत निर्धारित कर लेते हैं। 

परन्तु गुरु दृष्टा थे। उनने जान लिया कि आत्म दोष को सबके सामने निस्संकोच प्रकट कर देने वाला, अपमान के भय से विचलित न होने वाला और हानि होने की संभावना देखते हुए भी सत्य पर दृढ़ रहने वाला नीच नहीं हो सकता। 

महर्षि गौतम अपने आसन पर से उठे और भुजाएं पसार कर बालक को छाती से लगा लिया और कहा- वत्स सत्य काम! तुम ब्राह्मणों से श्रेष्ठ हो। 

(छाँदोग्य उपनिषद्)

ईश्वर की प्राप्ति के लिए

चिरकाल से हम दरवाजे-दरवाजे पर भीख माँग रहे हैं और भ्रमवश असत्य को सत्य समझ कर उस पर विश्वास कर रहे हैं। परन्तु दरअसल हम ऐसे है नहीं। सम्राटों के भी सम्राट परमात्मा की हम संतान-राजकुमार और राजकुमारियाँ हैं। अब हम द्वार-द्वार पर भीख न माँगेंगे। न किसी के सामने गिड़गिड़ायेंगे। अब हम अपने उन ईश्वरीय गुणों को प्राप्त करेंगे जो कि हमारी पैतृक सम्पत्ति है। हमारे सम्मुख स्वर्ग का द्वारा खुला हुआ है फिर हम बाहर ही क्यों खड़े रहें ? परमात्मा हमें इस छोटे जीवन की अपेक्षा एक बहुत विशाल जीवन में प्रवेश करने के लिए बुला रहा है। चलो बढ़ें और उसका निमंत्रण स्वीकार करें। 

अपने को क्षुद्र और नीच समझना घातक है। हीनता और तुच्छता के विचार हमें हमारी वास्तविक शक्ति से वंचित किये हुए हैं। संसार में दुख और झगड़े भरे पड़े हैं। ऐसा सोचने से संसार सौंदर्य देखने वाला मानव हृदय निर्बल हो जाता है। असल में आदमी तुच्छ जीव नहीं है। यह संकल्प करे तो वह परमात्मा के पद को प्राप्त कर सकता है। हम अपने शरीर और मन के राजा हैं। अपनी प्रत्येक बात, कर्म और परिस्थिति के निर्माणकर्ता हैं। जिस दिन हम अपनी शक्ति सत्ता के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं। हमें चाहिए कि ठीक उसी क्षण से अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने के लिए चल पड़ें।

अस्वाद

यह व्रत ब्रह्मचर्य से निकट सम्बन्ध रखने वाला है। मेरा अपना अनुभव तो यह है कि यदि इस व्रत का भली-भाँति पालन किया जाए तो ब्रह्मचर्य अर्थात् जननेन्द्रिय संयम बिलकुल आसान हो जाए। पर आमतौर से इसे कोई भिन्न व्रत नहीं मानता, क्योंकि स्वाद को बड़े-बड़े मुनिवर भी नहीं जीत सके हैं। इसी कारण इस व्रत को पृथक स्थान नहीं मिला। यह तो मैंने अपने अनुभव की बात कही। वस्तुतः बात ऐसी हो या न हो तो भी चूँकि हमने इस व्रत को पृथक माना है, इसलिए स्वतंत्र रीति से इसका विचार कर लेना उचित है। 

अस्वाद के मानी हैं, स्वाद न करना। स्वाद अर्थात् रस-जायका। जिस तरह दवाई खाते समय इस बात का विचार नहीं करते कि आया वह जायकेदार है या नहीं, पर शरीर के लिए उसकी आवश्यकता समझ कर ही उसे योग्य मात्रा में खाते हैं, उसी तरह अन्न को भी समझना चाहिए। अन्न अर्थात् समस्त खाद्य पदार्थ अतः इनमें दूध-फल का भी समावेश होता है। जैसे कम मात्रा में ली हुई दवाई असर नहीं करती या थोड़ा असर करती है और ज्यादा लेने पर नुकसान पहुँचाती है, वैसे ही अन्न का भी है। इसलिए स्वाद की दृष्टि से किसी भी चीज को चखना व्रत भंग है। जायकेदार चीज को ज्यादा खाने से तो सहज ही व्रत भंग होता है। इससे यह जाहिर है कि किसी पदार्थ का स्वाद बढ़ाने, बदलने या उसके अस्वाद को मिटाने की गरज से उसमें नमक वगैरह खिलाना व्रत को भंग करना है। लेकिन यदि हम जानते हों कि अन्न में नमक की अमुक मात्रा में जरूरत है और इसलिए उससे नमक छोड़ें, तो इससे व्रत का भंग नहीं होता। शरीर-पोषण के लिए आवश्यक न होते हुए भी मन को धोखा देने के लिए आवश्यकता का आरोपण करके कोई चीज मिलाना स्पष्ट ही मिथ्याचार कहा जाएगा। 

इस दृष्टि से विचार करने पर हमें पता चलेगा कि जो अनेक चीजें हम खाते हैं, वे शरीर रक्षा के लिए जरूरी न होने से त्याज्य ठहरती हैं और यों जो सहज ही असंख्य चीजों को छोड़ देता है, उसके समस्त विकारों का शमन हो जाता है। ‘पेट जो चाहे सो करावे’, ‘पेट चांडाल है’, ‘पेट कुई, मुँह सुई’, ‘पेट में पड़ा चारा तो कूदने लगा विचारा,’ ‘जब आदमी के पेट में आंत है रोटियाँ। फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियाँ।’, ये सब वचन बहुत सारगर्भित हैं। इस विषय पर इतना कम ध्यान दिया गया है कि व्रत की दृष्टि से खुराक की पसन्दगी लगभग नामुमकिन हो गयी है। इधर बचपन ही से माँ-बाप झूठा हेतु करके अनेक प्रकार की जायकेदार चीजें खिला-खिला कर बालकों के शरीर को निकम्मा और जीभ को कुत्ती बना देते हैं। फलतः बड़े होने पर उनकी जीवन-यात्रा शरीर से रोगी और स्वाद की दृष्टि से महा विकारी पायी जाती है। इसके कड़ुए फलों को हम पग-पग पर देखते हैं अनेक तरह के खर्च करते हैं, वैद्य और डाक्टरों को सेवा उठाते हैं और शरीर तथा इन्द्रियों को वश में रखने के बदले उनके गुलाम बनकर अपंग सा जीवन बिताते हैं। एक अनुभवी वैद्य का कथन है कि उसने दुनिया में एक भी नीरोग मनुष्य को नहीं देखा। थोड़ा भी स्वाद किया कि शरीर भ्रष्ट हुआ और तभी से उस शरीर के लिए उपवास को आवश्यकता पैदा हो गई। 

इस विचारधारा से कोई घबराये नहीं। अस्वाद व्रत की भयंकरता देख कर उसे छोड़ने की भी जरूरत नहीं। जब हम कोई व्रत लेते हैं, तो उसका यह मतलब नहीं कि तभी से उसका संपूर्ण पालन करने लग जाते हैं। व्रत लेने का अर्थ है, उसका संपूर्ण पालन करने के लिए, मरते दम तक, मन, वचन और कर्म से प्रामाणिक तथा दृढ़ प्रयत्न करना। कोई व्रत कठिन है इसीलिए उसकी व्याख्या को शिथिल करके हम अपने आपको धोखा न दें। अपनी सुविधा के लिए आदर्श को नीचे गिराने में असत्य है, हमारा पतन है। स्वतन्त्र रीति से आदर्श को पहचान कर, उसके चाहे जितना कठिन होने पर भी, उसे पीने के लिए जी-तोड़ प्रयत्न करने का नाम ही परम अर्थ है, पुरुषार्थ है-( पुरुषार्थ का अर्थ हम केवल नर तक ही सीमित न रखें, मूलार्थ के अनुसार जो पुर यानी शरीर में रहता है, वह पुरुष है, इस अर्थ के अनुसार पुरुषार्थ शब्द का उपयोग नर-नारी दोनों के लिए हो सकता है।) जो तीन कालों में महाव्रतों का संपूर्ण पालन करने में समर्थ है, इसके लिए इस जगत में कुछ कार्य-कर्तव्य है नहीं, - वह भगवान है, मुक्त है। हम तो अल्प मुमुक्षु-सत्य का आग्रह रखने वाले, उसकी शोध करने वाले प्राणी हैं। इसलिए गीता की भाषा में धीरे-धीरे पर अतन्द्रित रह कर प्रयत्न करते चलें। ऐसा करने से किसी दिन प्रभु-प्रसादी के योग्य हो जाएंगे और तब हमारे तमाम विकार भी भस्म हो जाएंगे।

अस्वाद-व्रत के महत्व को समझ चुकने पर हमें उसके पालन का नये सिरे से प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए चौबीसों घंटे खाने की ही चिन्ता करना आवश्यक नहीं है। सिर्फ सावधानी की-जागृति की-बहुत ज्यादा जरूरत है। ऐसा करने से कुछ ही समय में हमें मालूम होने लगेगा कि हम कब और कहाँ स्वाद करते हैं। मालूम होने पर हमें चाहिए कि हम अपनी स्वाद वृत्ति को दृढ़ता के साथ कम करें। इस दृष्टि से संयुक्त पाक-यदि वह अस्वाद वृत्ति से किया जाय-बहुत मददगार है। उसमें हमें रोज-रोज इस बात का विचार नहीं करना पड़ता कि आज क्या पकायेंगे और क्या खावेंगे ? जो कुछ बना है और जो हमारे लिए, त्याज्य नहीं है, उसे ईश्वर की कृपा समझ कर, मन में भी उसको टोका न करते हुए, संतोषपूर्वक शरीर के लिए जितना आवश्यक हो, उतना ही खाकर हम उठ जाएं। ऐसा करने वाला सहज ही अस्वाद-व्रत का पालन करता है। संयुक्त रसोई बनाने वाले हमारा बोझ हलका करते हैं-हमारे व्रतों के रक्षक बनते हैं। वे स्वाद कराने की दृष्टि से कुछ भी न पकावें, केवल समाज के शरीर पोषण के लिए ही रसोई तैयार करें। वस्तुतः तो आदर्श स्थिति वह है, जिसमें अग्नि का खर्च कम से कम या बिल्कुल न हो। सूर्यरूपी महा अग्नि जो खाद्य पकाती है, उसी में से हमें अपने लिए खाद्य पदार्थ चुन लेने चाहिए। इस विचार-दृष्टि से यह साबित होता है कि मनुष्य प्राणी केवल फलाहारी है। लेकिन यहाँ इतना गहरा पैठने की जरूरत नहीं। यहाँ तो विचारना था कि अस्वाद-व्रत क्या है, उसके मार्ग में कौन-सी कठिनाइयाँ है और नहीं है तथा उसका ब्रह्मचर्य के साथ कितना अधिक निकट संबंध है। इतना ठीक-ठाक हृदयंगम हो जाने पर सब इस व्रत के पालन का शुभ प्रयत्न करें।

क्या तुम यही हो?

ईश्वर के अमर पुत्र-मनुष्य का आज कैसा विकृत रूप बना हुआ है ? जिस नर तन के लिए देवता भी ललचाते हैं उसे पाकर भी हम कैसा नीच आवरण धारण किए हुए हैं ? उसकी क्षुद्रता और पामरता के स्वरूप को देख कर मनुष्यता को भी लज्जा आती है। 

रमजानी फकीर हाथ पाँव स्वस्थ रहते हुए भी भीख का पेशा अख़्तियार किये हुए है, दिन भर पेट दिखा कर अन्न माँगता है और उसी से अपना निर्वाह करता है। नसीबन रंडी कोठे पर बैठी हुई आगतों की प्रतीक्षा करती है दुष्ट, दुराचारी घृणित रोगों को लिए हुए, कैसा ही व्यक्ति क्यों न हो पैसे के लिए वह अपने सतीत्व को उसके आगे पटक देती है। प्यारे खवास अपने मालिक की गालियाँ सुनता है, लात-घूँसे खाता है, समय पर वेतन भी नहीं पाता फिर भी दूसरी जगह नौकरी न मिलने के डर से उसी मालिक की नौकरी करता है। सुक्खा मेहतर पकवान् और मिष्ठान्नों का लोभ संवरण नहीं कर सकता और दावतों में बची हुई झूठी, थूक लार लगी हुई झूठन को पाने के लिए उत्सुकता पूर्वक पहुँचता है। लीला धीमर सैकड़ों मछलियाँ रोज मार कर लाता है, जीवा बहेलिये की बैंगी में रोज दर्जनों कबूतर होते हैं, बूचा कसाई को कई पशुओं का रोज पेट चीरना पड़ता है। जीवा, मुसाफिरों की पोटलियाँ उठाता है, भीखा ताले चटकाता है, गणपति का गिरोह डकैतियां डालने में प्रसिद्ध है। चोरी, ठगी, अन्याय, दुराचार, मद्यपान, हत्या, हिंसा का सर्वत्र साम्राज्य छाया हुआ है। 

धर्म की उन पवित्र वेदियों से जिनका उद्देश्य मनुष्य को ईश्वर के समीप पहुँचाना है, क्या-क्या दुष्कर्म नहीं होते ? चन्दन जैसी सुगंधि से पुते हुए और सोने जैसे मनोहर रंग वाले इन धर्म घटों का ढक्कन उठाकर भीतर देखना चाहेंगे तो दुर्गन्ध के मारे नाक सड़ने लगेगी। 

जिसके पास शक्ति है, जो शासक है, जो पैसे वाला है, जिसके शरीर में पर्याप्त माँस है, जिसके पास विद्या है, जिसके मस्तिष्क में तीक्ष्ण बुद्धि है उनका एक ही पेशा है। अपने से छोटों का शोषण करना। चालक ढोंग रचता है, बलवान जुल्म करता है, कायर पाप करता है और निर्बल भीख माँगता है। समाज के चारों ही अंग विकृत रूप धारण किए हुए आसुरी भावनाओं में लिप्त हो रहे हैं। 

और बेचारी मनुष्यता एक कोने पर खड़ी-खड़ी सिसक रही है। विशुद्ध लोक कल्याण के लिए दान कौन देता है ? पराये की विपत्ति को देख कर किसकी आँखों में आँसू आते हैं ? भूखे के सामने कौन अपनी थाली सरकाता है ? पीड़ितों की मदद के लिए कौन अपनी जान होमता है। ईमानदारी की कमाई पर किस की रोटी चलती है ? औरों का सौंदर्य और वैभव देखकर उस पर न ललचाता हुआ कौन प्रसन्न होता है। अपने बल, बुद्धि, विद्या सुख को निस्वार्थ भाव से संसार की सेवा में अर्पण करने वाले मनुष्य कितने हैं? बेचारी मनुष्यता युगों से ऐसे मनुष्यों को ढूंढ़ रही है पर उसे उंगलियों पर गिनने लायक ही मिल सके हैं। 

अभागा मनुष्य आखिर जा कहाँ रहा है आखिर इसे हो क्या गया है ? ईश्वर के अतुल्य वैभव का अधिकारी, प्रकृति की संपूर्ण शक्तियों का स्वामी, शाश्वत और अविनाशी, संसार को पवित्र कर सकने की क्षमता रखने वाला आदमी आखिर कर क्या रहा है ? उसका इतना प्रतिभाशाली मस्तिष्क इतनी सुंदर बुद्धि और इतनी सुँदर कार्य क्षमता जिन फिजूल और उल्टे कार्यों में लग रही है। उन्हें देख कर आश्चर्य और आन्तरिक कष्ट होता है। 

काश, मनुष्य अपने को पहचान सका होता, अपने वास्तविक स्वरूप को समझ सका होता, अपने और संसार के रिश्ते को जान गया होता तो कैसा सुन्दर होता। तब यह संसार नरक न रह कर स्वर्ग बन जाता और मनुष्य शैतान का गुलाम न बन कर सम्राटों का भी सम्राट कहलाता। 

हमारा विश्वास है कि अखंड ज्योति के पाठक कुछ न कुछ भजन, पूजा, साधन अनुष्ठान अवश्य करते होंगे। वे जैसे भी कुछ अपने विश्वास के कारण करते हों करें। परन्तु एक साधन के करने के लिए हम उन्हें अनुरोध पूर्वक प्रेरित करेंगे कि वह दिन रात में से कोई भी पन्द्रह मिनट का समय निकालें और एकान्त स्थान में शाँति पूर्वक यह विचार करें कि हम क्या हैं? हमारा जो कर्तव्य है उसे पूरा कर रहे हैं ? शैतानी आदतें और वृत्तियाँ हमारे अंदर कौन-कौन कितने परिमाण में घुस आई हैं ? और उनने हमारे दैवी अंश को कितना ग्रस लिया है ? इन प्रश्नों का उत्तर देने से पूर्व अपने मन से कहिए कि वह बिलकुल निष्पक्ष बन जाए। झूठी गवाही न दे। एक निर्भीक सत्य वक्ता की तरह अपने अवगुण साफ-साफ बतावें। अखंड ज्योति के पाठक इस प्रकार नित्य किसी नियमित समय पर आत्म परीक्षण करें। और जो दोष दृष्टिगोचर हों उनके परिणाम के संबंध में सोचें कि क्या यही हमारे कल्याण का मार्ग है? 

अपने अनुभव के आधार पर हम शपथपूर्वक कह सकते हैं कि जो आत्म परीक्षण करेंगे उन्हें वास्तविकता दिखाई देगी। और जो वास्तविकता को समझेंगे उन्हें अपने कल्याण का मार्ग भी मिल ही जाएगा।

प्रसन्न रहो

प्रसन्न रहो-प्रसन्न रहना ही जीवन का सुख है, सौंदर्य है, कारण यही वह चीज है जिसके अभाव में मनुष्य म्लान, दुखी व नीरस दिखाई देता है। हंसना-जी खोलकर हंसना-वह कला है जो मनुष्य के पहाड़ समान दुख को भी लघुकाय बना देती है, जो जीवन में उत्साह आमोद और प्रमोद का संदेश लाती है, जो जीवन को रस व स्नेह से स्निग्ध बनाती है। 

जिसके मुँह पर मृदुल हंसी की रेखा खिंची होती है उसके प्रति कौन आकर्षित नहीं होता। किसी इच्छा उससे दो बातें कर अपने आपको तृप्त करने की नहीं होती ? परिचित उसके संसर्ग में स्वर्गीय आनंद अनुभव करते हैं, अपरिचित भी उससे परिचय प्राप्त करने को उत्कंठित हो उठते हैं-ऐसा है इस हंसी में-प्रसन्नता में वशीकरण। 

प्रसन्न बने रहने के बाहर साधन ढूंढ़ने की जरूरत नहीं-घर में जिज्ञासु दृष्टि डालो और उसी घर में जहाँ तुम्हें पहिले फीकापन-सा अनुभव होता था, तुम हंसी का-प्रसन्नता का फव्वारा चलता हुआ पाओगे। देखो, किलकारी मारता हुआ वह बच्चा तुम्हारी और दौड़ता हुआ चला आ रहा है, उसे झिड़को नहीं, गोद में उठाओ और उससे बातें करो-देखो अपने मौन और अर्धमुखरित भाव में वह मनो-विनोद का कैसा रहस्य छिपाये है। वह देखो, मुन्नी आपके कंधे पर चढ़ बैठी, उससे बात पूछो और सुनो कि अपनी तुतलाती बोली में वह कैसा मधुर जवाब देती है। और, उधर दृष्टि डालो वह ‘बेबी’ भी आ रहा है। उससे पूछो, तुम्हें कैसी बहू चाहिए, वह कहेगा फूल-सी कोमल और खिल-खिल कर हंसती हुई और उसके खिल-खिलाकर हंसने के साथ आप भी अपने आपको उसी अवस्था में पायेंगे। जब बच्चों में प्रकृति के इन सरल अबोध निश्चल खिलौनों में रस का सरोवर बह रहा है, तो आप और कहाँ अपने लिए आनंद ढूंढ़ने जा रहे हैं ? 

यदि तुम व्यवसायी हो, अपने काम को ठीक प्रकार समझते हो तो अवश्य घर आते ही अपनी चिन्ताओं को दूर कर दो; घर में जब तक रहो कामकाज को बातों से दूर रहो, छोटे बच्चों के साथ खेलो, घर में माँ बहिन, स्त्री के साथ जी भरकर दिल खोलकर पेट भरकर बात करो। मित्रों के साथ हंसी दिल्लगी करो, खेलो-कूदो, तुम देखोगे दूसरे रोज पहले रोज का कठिन काम कितना सरल और आनन्ददायक हो जाता है। 

तुम खूनी हो पर फाँसी लटकने जा रहे हो फिर भी हंसो। जिस शरीर से पाप बन पड़ा उसी का अन्त हो रहा है क्या यह हंसने के लिए कम बात है ? वेश्या को क्या तुमने दिल खोलकर हंसते नहीं देखा, उनके प्रसन्न रहे बिना-रोजगार भी न चलेगा। क्या हुआ यदि तुम्हारा कुटुम्ब बड़ा है उसके पालन पोषण करने में तुम्हारा विवाह न हुआ, विद्याध्ययन न कर सके, तुम्हारे लिए भरसक परिश्रम करने के दूसरा कोई रास्ता नहीं पर फिर भी प्रसन्न क्यों नहीं रहते हो ? गरीब आदमी क्या अपनी झोंपड़ी में अपने बाल बच्चों के साथ हंसते-खेलते नहीं ? 

जब पास में पैसा न हो तब भी जरा देर के लिए दिल खोल कर हंस लो। ईश्वर पर विश्वास रखो, जब वह सुख दे तब हंसो और विपत्ति में डाल दे तब रोओ यह तो, ठगबाजी है। 

जगत में सभी कुछ दबा दिया जा सकता है पर राख की तरह बाह्य आचरणों से अन्तरात्मा में छुपी हुई आग ढकी नहीं जा सकती। हंसने के लिए इस वास्ते यह जरूरी है कि सारी दुनिया की परवाह न कर अपनी आत्मा की आवाज सुनो और उसके आदेश का पालन करो। बच्चों की भाँति भोला, सरल, पवित्र हृदय बना लो, किसी भी बात का बुद्धि द्वारा उलट फेर कर मन को समझा दो पर अन्तरात्मा में जब तक भगवान के स्वच्छ प्रकाश का आलोक न होगा तब तक सुख कहाँ रखा है?

सफलता की कुँजी

डरो मत। श्रद्धा करो। दुःख और आपत्ति की छाया से घिरने पर भी मत डरो। तुम अविनाशी परमात्मा के पुत्र हो। वह दिव्य अखंड ज्योति तुम्हारे अंधकार को नष्ट कर देगी। धीर बनो। तुम्हारे भीतर वह शक्ति है जो तुम्हें प्रत्येक परिस्थिति का मालिक बना देगी। उच्च विचारों का आवाहन करो। हृदय को वीर, हाथ को बलवान और इच्छा को अचल बनाओ। सत् चित् और आनंद की प्राप्ति के लिए अपनी शक्ति में श्रद्धा करो। सब में जीवन और स्फूर्ति का संचार करो। धैर्य आशा और दृढ़ निश्चय को धारण करो। जिम्मेदारियों को सिर पर लोगे, बल और साहस दिखाओगे तो निश्चय ही तुम्हें सफलता प्राप्त होगी।

Tuesday, October 13, 2015

कष्टों का निवारण

अनेकों को कई प्रकार के शारीरिक तथा मानसिक कष्ट होंगे। बाहरी परिस्थितियाँ विपरीत होने या दूसरों के आक्रमण से चिन्तित होंगे। कइयों को भाग्य और ईश्वर से शिकायत होगी। कुछ घर वालों, मित्रों और अफसरों के व्यवहार से असंतुष्ट होंगे। वे यथा साध्य इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए प्रयत्न किया करते हैं। परन्तु फल कोई संतोषजनक नहीं होता। कठिनाइयाँ ज्यों की त्यों बनी रहती हैं। 

इस समस्या पर विचार करने के लिए कुछ गहरा उतरना होगा। गहरा अन्वेषण करने पर पता चलता है कि बाह्य परिस्थितियों की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वे आन्तरिक परिस्थितियों की छाया मात्र हैं। मनुष्य का बीज रूप वास्तविक जीवन, उसका आन्तरिक जीवन है। जैसा बीज होगा वैसा पौधा उगेगा, जैसी इच्छा होगी वैसा फल मिलेगा। विचार बीज है और परिस्थितियाँ उनके फल। पत्ते-पत्ते को सींचने पर भी जिस प्रकार सूखा हुआ पेड़ हरा नहीं होता उसी प्रकार बाहरी दुख शोकों को दूर करने के तात्कालिक उपाय करने पर भी उनकी जड़ नहीं कटती। तात्कालिक सहायता के बल पर क्षणिक शाँति मिल सकती है परन्तु जो रोग की पूरी चिकित्सा चाहते हैं उन्हें मूल कारण को तलाश करना पड़ेगा। मुरझाये हुए वृक्ष को हरा करने के लिए उसकी जड़ों का निरीक्षण करना होगा और खाद पानी द्वारा वहीं सिंचन करना पड़ेगा। 

मानस तत्व वेत्ता जानते है कि कर्म भोग को छोड़ कर परिस्थितियाँ अपने आप नहीं आती वरन् वे जान-बूझ कर बुलाई जाती हैं। इसमें आश्चर्य की कुछ भी बात नहीं है। आप के कपड़ों पर गंदगी लगी होगी तो मक्खियाँ भिनभिनाएंगी, साफ होंगे तो वे पास भी नहीं फटकेंगी। नाली में यदि कीचड़ सड़ेगी तो कीड़े पैदा होंगे अन्यथा कुछ भी खराबी न होगी। मन की इच्छाओं की जब पूर्ति नहीं होती तभी दुख होता है। यदि जरूरतें ही कम रखी जायें तो दुख किस बात का? मन बहुत-सी चीजें माँगता है और वह नहीं मिल पातीं तो क्षोभ उत्पन्न होता है। उस अभाव की पूर्ति के लिए पाप कर्म किये जाते हैं। और पापों का निश्चित परिणाम दुख है। दूसरी बात यह भी है कि विचार अपने अनुकूल परिस्थितियों को ही आकर्षित करते हैं। जो भिखारी दो सेर आटा पाने की ही अन्तिम इच्छा करता है वह राजा नहीं हो सकता। महत्वाकाँक्षी ही महत्व को प्राप्त करते हैं। सेनापति होने का स्वप्न देखने वाला नेपोलियन ही एक महान विजेता हो सका था। 

सामयिक परिस्थितियों में भी अधिकाँश का कारण अपना स्वभाव ही होता है। मुहल्ले वाले तुम्हें बुरा बताते हैं, झगड़े लगाते हैं और दुर्व्यवहार करते हैं। उन सब से अलग-अलग लड़ोगे तो भी शायद इच्छित शाँति को प्राप्त न कर सकोगे। सोचना चाहिए कि मेरे अंदर वास्तव में वे दुर्गुण कौन से हैं जो इतने लोगों को मेरा विरोधी बनाये हुए है। तुम्हारे अंदर यदि कड़ुआ बोलने, अनुचित हस्तक्षेप करने, लोक विरोधी काम करने की आदतें हैं तो उन्हें सुधारो, बस, सारे शत्रु मिट जायेंगे। तुम्हें कोई नौकर नहीं रखता। तो मालिकों को मत कोसो। अपने अंदर वह योग्यता प्राप्त करो जिसके होने पर हर जगह से आमंत्रण मिलता है। सद्गुण मनुष्य की वह सम्पत्ति हैं जिनके होने पर उसका हर जगह आदर होना चाहिए। हर किसी का प्रेम और सहानुभूति प्राप्त होनी चाहिए। जब साधु स्वभाव काले पुरुष भी तुम्हारा विरोध कर रहे हों तो देखो कि हमारे अंदर कौन-कौन से दुर्गुण आ छिपे हैं। कई लोगों में यह कमी होती है कि जन साधारण में फैले हुए झूठे भ्रम को दूर नहीं कर सकते और अकारण लोगों के कोप का भाजन बनते हैं। उन्हें चाहिए कि सत्य बात को लोगों के सामने प्रकट करके अपनी निर्दोषिता साबित करें। 

भय करने डरने और घबरा जाने के दुर्गुण ऐसे हैं जो दूसरों को अपने ऊपर अत्याचार करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिनका स्वभाव निर्भय रहने का, हर प्रकार की कठिनाइयों का मुकाबला करने का होता है उन पर ज्यादती करने वाले झिझकते हैं। कहते हैं कि हिम्मत के सामने तलवार की धार भी मुड़ जाती है। धनाभाव के बारे में भी यही बात है जिसका पूरा ध्यान और मनोयोग धन संचय के साधनों में लगा हुआ नहीं है वह धनपति नहीं हो सकता। स्वास्थ्य को बढ़ाने की जिसकी प्रबल मनोकामना नहीं है वह पहलवान कैसे बन सकेगा? 

बीमारी से ग्रसित हो जाने या किसी अन्य संकट में फंस जाने पर उससे मुक्त होने के लिए भी अपना आन्तरिक बल चाहिए। सदाशा और शुभ भविष्य का दृढ़ विश्वास कठिनाई से निकाल सकते हैं। आत्म विश्वास की जितनी मदद, बीस मित्र मिलकर भी नहीं कर सकते। आत्म निर्भरता वह संजीवनी बूटी है जिसे पीकर मुर्दे जी पड़ते हैं और बुड्ढे जवान हो जाते हैं इसके मुकाबले का और कोई ‘टानिक’ विश्व भर में अविष्कृत नहीं हो सका है। 

तात्पर्य यह है कि बाहर की जो कुछ भी भली बुरी परिस्थितियाँ तुम्हें घेरे हुए हैं वह तो फूल पत्तियाँ हैं इनकी जड़ आन्तरिक जीवन में है। उन्हें बदलना चाहते हो, अपने जीवन में परिवर्तन करना चाहते हो, कष्टों से छुटकारा पाना चाहते हो, आगे का जीवन सुखी बनाना चाहते हो तो केवल बाहरी दौड़ धूप करके संतुष्ट मत हो जाओ, इससे तुम्हें स्थायी शाँति नहीं मिल सकेगी। आत्यंतिक निवृत्ति तो तभी होगी जब उसके मूल स्त्रोत का उपचार किया जाएगा। 

यदि तुम अपने वर्तमान जीवन से असंतुष्ट हो, उन्नति और विकास की आकाँक्षा करते हो तो अपना आन्तरिक जीवन टटोल डालो। उसमें से बुरी आदतों, नीच वासनाओं, दुष्ट वृत्तियों को निकाल डालो। इससे तुम्हारा मार्ग साफ हो जाएगा और उसकी सारी कठिनाईयाँ दूर हो जायेंगी। आत्म बल, दृढ़ता और तीव्र इच्छा शक्ति को बढ़ाओं अपने अंदर शुभ वृत्तियों और सद्गुण को आने दो इन्हीं के आधार पर उन्नति के पथ पर सरपट दौड़ते चले जाओगे।

बुद बुदे का रंग

पानी का बुद-बुदा नश्वर शरीर धारी मनुष्य अपनी वास्तविक हस्ती को भूल जाता है और अपने को न जाने क्या समझकर इतराता है, ऊंचा बनता है और झगड़ता है। संसार चक्र उसकी अज्ञानता पर हंसता है। काल एक ही फूँक में सारा बखेड़ा समाप्त हो जाता है। इस दार्शनिक कहानी में इस भाव को दिखाया गया है।
-किसने ‘कब’ ‘कैसा’ ये शब्द भी उत्पन्न नहीं हुए थे, तभी वह बुद बुदा बहता आ रहा था। 

-उस पर न्यारे रंग दिखाई दे रहे थे

-नीला, काला, लाल और भी बहुत से।

-ये आपस में झगड़ते, लड़ते।

-कहतें मैं बड़ा ! मैं श्रेष्ठ ! मैं ऊँचा !

-क्षण में वे पैदा होते।

-क्षण में कहीं चले जाते।

-तो भी तकरार रुकी नहीं।

-प्रवाह ने हवा से पूछा - ‘यह क्या -गड़बड़ है ?’

-हवा बोली होगी कुछ

-जब उस बुद बुदे के भीतर की हवा बाहर वाली से मिली तो सब झगड़े ठिकाने लग गये।

अभय

भगवान् ने गीता के 16 वें अध्याय में दैवी संपादक वर्णन करते हुए इसकी गणना प्रथम की है। यह श्लोक की संगति बैठाने के लिए किया है, या अभय को प्रथम स्थान मिलना चाहिए, इसलिए। इस विवाद में न पड़ूंगा; इस प्रकार का निर्णय करने की मुझमें योग्यता भी नहीं है। मेरी राय में तो यदि अभय को अनायास ही प्रथम स्थान मिला हो, तो भी उसके योग्य ही है। बिना अभय के दूसरी सम्पत्तियाँ नहीं मिल सकती। बिना अभय के सत्य की शोध कैसी ? बिना अभय के अहिंसा का पालन कैसा ? हरि का मार्ग है शूरो का नहीं कायर का काम, देखे सत्य ही हरि है, वही राम है, वही नारायण, वही वासुदेव। कायर अर्थात् भयभीत, डरपोक, शूर अर्थात् भयमुक्त तलवार आदि से सज्ज नहीं। तलवार शौर्य की संज्ञा नहीं भय की निशानी है। 

अभय अर्थात् समस्त बाह्य भयों से मुक्ति-मौत का भय माल लुटने का भय, कुटुम्ब परिवार-सम्बन्धी भय, शस्त्र-प्रहार का भय, आबरू-इज्जत का भय, किसी को बुरा लगने का भय यों भय की वंशावली जितनी जितनी बढ़ावें, बढ़ायी जा सकती है। सामान्यतया यह कहा जाता है कि एक मौत का भय जीत लेने से सब भय, पर जीत लेने से सब भय पर जीत मिल जाती है। लेकिन वह ठीक नहीं लगता। बहुतेरे (बिछोह) मौत का डर छोड़ते हैं, पर वे ही नाना प्रकार के दुखों से दूर भागते हैं, कोई स्वयं मरने को तैयार होते हैं कई सगे सम्बन्धियों का वियोग नहीं सह सकते। कुछ कंजूस इन सब को छोड़ देते है, पर संचित धन को छोड़ते कतराते हैं। कुछ अपनी मानी हुई आबरू-प्रतिष्ठा की सत्ता के लिए अनेक अकार्य करने को तैयार होते रहते हैं। डडडड दूसरे लोक-निन्दा के भय से, सीधा मार्ग जानते हुए उसे ग्रहण करने में झिझकते हैं। पर सत्य शोधक के लिये तो इन सब भयों को तिलांजलि दिये ही छुटकारा। हरिश्चंद्र की तरह पामाल होने की उसकी तैयारी होनी चाहिए। हरिश्चंद्र की कथा चाहे काल्पनिक हो, परन्तु चूँकि समस्त आत्मदर्शियों का यही अनुभव है, अतः इस कथा की कीमत किसी भी ऐतिहासिक कथा की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक है और हम सबके लिए संग्रहणीय तथा माननीय है। 

इस व्रत का सर्वथा पालन लगभग अशक्य है भय मात्र से तो वही मुक्त हो सकता है जिसे आत्मसाक्षात्कार हुआ हो। अभय अमूर्छ स्थिति की पराकाष्ठा-हद है। निश्चय से, सतत प्रयत्न से और आत्मा पर श्रद्धा बढ़ने से अभय की मात्रा बढ़ सकती है। मैं आरंभ ही में कह चुका हूँ कि हमें बाह्य भयों से मुक्त होना है। अन्तर में जो शत्रु वास करते हैं उनसे तो डर कर ही चलना है। काम, क्रोध आदि का भय सच्चा भय है इन्हें जीत लें तो बाह्य भयों का उपद्रव अपने आप मिट जाय। भय मात्र देह के कारण है। देह संबंधी राम-आसक्ति-दूर हो तो अभय सहज ही प्राप्त हो। इस दृष्टि से विचार करने पर हमें पता लगेगा कि भय मात्र हमारी कल्पना की सृष्टि है। धन में से, कुटुम्ब में से, शरीर में से, ‘ममत्व’ को दूर कर देने पर भय कहाँ रह जाता है। ‘तेन त्यक्तेन मुँजी था’ यह रामबाण वचन है। कुटुम्ब, धन, देह जैसे-के-तैसे रहेंगे, पर उनके सम्बन्धी की अपनी कल्पना हमें बदल देनी होगी। ये ‘हमारे’ नहीं ‘मेरे’ नहीं, ईश्वर के हैं; मैं भी उसी का हूँ; मेरा अपना इस जगत में कुछ भी नहीं है, तो फिर मुझे भय किस का हो सकता है ? इसी से उपनिषदधर ने कहा है कि ‘उसका त्याग करके उसे माँगों।’ अर्थात् हम उसके मालिक न रह कर केवल रक्षक बनें। जिसकी ओर से हम रक्षा करते हैं, वह उसकी रक्षा के लिए आवश्यक शक्ति और सामग्री हमें देगा यों यदि हम स्वामी मिट कर सेवक बनें, शून्यव्रत रहें, तो सहज ही समस्त भयों को जीत लें; सहज ही शान्ति प्राप्त करें और सत्यनारायण के दर्शन करें।

सार्वभौम धर्म

वृति क्षमा दमोस्तेयं शौच मिन्द्रिय निग्रह। 
घी विद्या सत्यम् क्रोधोदशकंधर्म लक्षणम्॥ मनु॥ 

भगवान मनु ने धर्म के दश लक्षण उपरोक्त श्लोक में बताये हैं। वे धैर्य, क्षमा, इन्द्रिय दमन, चोरी न करना, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि का प्रयोग, ज्ञान, सत्य, क्रोध न करने को धर्म मानते हैं। 

सत्य पर विश्वास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति उपरोक्त धर्म की सचाई और उपयोगिता को स्वीकार करेगा। इनका पालन करता हुआ कोई व्यक्ति यदि किसी मजहब को न माने वो भी श्रेष्ठ धर्मात्मा रह सकता है। ऐसे धर्म प्रिय लोगों की संख्या बढ़ते ही सारे साम्प्रदायिक कलह शाँत हो जावेंगे और समाज पूर्ण शाँति एवं सुव्यवस्था के साथ रह सकेगा। 

हम हर काम में उतावली और जल्दबाजी करते हैं। गाँधी कहते हैं कि जल्दबाजी नास्तिकता है। किसी बात को अच्छी तरह सोचे विचारे बिना उतावली में किसी काम को कर डालने से बड़े-बड़े अनर्थ होते हैं। आत्महत्या सिर फुटौअल गाली, गलौज आदि कार्य अक्सर उतावली में होते हैं। यदि किसी काम को करने से पूर्व उसके संबंध में कुछ देर ठंडे दिल से सोच समझ लिया तो कोई ऐसा कार्य नहीं हो सकता जो हानिकार, अव्यवस्था फैलाने वाला और दुखदायी हो। यही धैर्य धर्म का पहला लक्षण है। 

धर्म का दूसरा लक्षण क्षमा है। बदला लेने पर न तो बैर मिटता है और न बैरी ही। वरन् वह और अधिक बढ़ता है। पहले जितना द्वेष था बदला लेने के बाद उससे कई गुना बढ़ जाता है। बैरी पहले की अपेक्षा और भी अधिक कट्टर दुश्मन हो जाता है। यदि उसका प्राण ले लिया गया तो भी उसके मित्र कुटुम्बी उस द्वेष की प्रतिहिंसा धारण किये रहते हैं और अवसर पाकर अपनी क्रोधाग्नि बुझाते हैं। इस प्रकार आग की चिनगारी की तरह कलह बढ़ता जाता है और सुख शान्ति नष्ट होते जाती है। इसके विपरीत यदि अपराधी को क्षमा कर दिया जाय तो बैर भी तुरंत मिट जाता है और अपराधी किस प्रकार से आजन्म अपना ऋणी बना रहता है। यह क्षमा धर्म का दूसरा लक्षण है। 

दम-इन्द्रियों का दमन करना भी धर्म है। उन्हें स्वतंत्र छोड़ दिया जाय तो बड़े-बड़े अनर्थ कर सकती है। मन की तृष्णाओं को भी दबाना दम है। थोड़े में संतुष्ट हो जाने पर सभी झगड़े शाँत रहते हैं। 

अस्तेय का अर्थ चोरी न करना है। हर जगह अपनी कमाई पर अवलंबित रहें। जो अधिक शारीरिक और मानसिक श्रम करते हैं उन्हें अधिक द्रव्य मिलना ही चाहिए और जो निठल्ले और काम से जी चुराने वाले हैं उन्हें अपने कार्य के अनुकूल कष्ट भोगना चाहिए। दुनिया में कर्म फल एक निश्चित सिद्धाँत है। जो करे वह भरे। चोरी में आदमी दूसरे की कमाई को हड़पता है। इससे समाज में अव्यवस्था का जन्म होता है। अनधिकारी लाभ उठाते हैं। तदनुसार ऐश, बुरी प्रवृत्ति और पापेच्छा चल पड़ती है। अपनी वस्तुओं को ही सब भोगे तो समाज की शाँति कायम रह सकती है इसीलिए धर्म का चौथा लक्षण अस्तेय बताया गया है। 

बाहरी पवित्रता शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए भीतरी पवित्रता अनिवार्य है। इन भीतरी और बाहरी पवित्रताओं को बनाये रहना जरूरी है। शौच से अपना शरीर और मन सुन्दर स्वस्थ और प्रसन्न रहता है तथा दूसरों पर भी वैसा ही असर पड़ता है। दाद, खाज, उपदंश, क्षय, चेचक आदि शारीरिक छूत रोग और दुराचार, फैशन, द्वेष, दुराव कपट आदि मानसिक छूत रोग शौच के पालन करने से पनपने नहीं पाते। फलतः सब लोग सुखी रह सकते हैं। यह पाँचवाँ धर्म लक्षण है। 

गीता में कहा गया है कि असंयत इन्द्रियाँ ही अपनी सबसे बड़ी शत्रु हैं। मन इन्द्रिय भोगों के लिए ललचाता है। जिह्वा तरह-तरह के सुस्वादु पदार्थ चाहती है, कामेन्द्रियाँ विषय भोगों के लिए पागल होती हैं, आंखें सुन्दर मनोरंजनों को देखना चाहती हैं, शरीर आराम की इच्छा करता है। इन इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य न जाने कितने-कितने पाप कर्म करते हैं। वश में हुई इन्द्रियाँ तो सबसे बड़ी मित्र हैं। इन्द्रिय निग्रही मनुष्य सच्चा, महात्मा और मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। यह धर्म का छठा लक्षण है। 

बुद्धिपूर्वक विचार के साथ ठीक तरह सोच समझकर आगा पीछा देखभाल कर जो कार्य किये जाते हैं, वे अपने व दूसरों के लिए कष्टकर नहीं होते। बुद्धिमान होना इसीलिए धर्म के सातवें लक्षण में गिना गया है। 

विद्या का तात्पर्य यहाँ ज्ञान से है। केवल पुस्तकें पढ़ लेना विद्या नहीं है वरन् आवश्यक विषयों की पूरी जानकारी रखना उनके हर पहलू पर उचित विचार विमर्श कर सकने योग्य क्षमता का रखना विद्या है। ऐसा विद्यावान् पुरुष किसी घटना को सामने उपस्थित हुआ देख कर घबराता नहीं, उसके वास्तविक स्वरूप को देखता है, कारण और हेतुओं पर विचार करके परिस्थिति के अनुसार अपना ठीक कर्तव्य चुन लेता है। ऐसे विद्यावान् पुरुष संसार को स्वर्ग बनाते हैं। सत्यज्ञान का सम्पादन करने वाला व्यक्ति इसलिए धर्मात्मा माना गया है। 

सत्य की उपासना ईश्वर की उपासना है। जिसने सत्य को अपना लिया उसने सर्वश्रेष्ठ धर्म को ग्रहण कर लिया। सत्य समस्त धर्मों की धुरी है। मार्ग जीवन व्यवहार में यदि सत्य घुल-मिल जाय तो मनुष्य और देवताओं में कुछ भी अन्तर न रहे। महात्मा कबीर सत्य की बराबर कोई तप नहीं मानते। इस नवमें धर्म लक्षण को ग्रहण करके मनुष्य जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। 

क्रोध की जड़ में शैतानियत होती है। मनुष्य अज्ञान और गलतियों का पुतला है। उससे भूलें होती हैं। हमारा कर्तव्य है कि उन भूलों के कारणों की परीक्षा करें और गलती करने वाले को समझा कर उसे सन्मार्ग पर ले आवें। लेकिन लोग अपने इस वास्तविक कर्तव्य को तो भुला देते हैं और अपनी इस गलती का प्रतिकार बेचारे अज्ञानलिप्त अपराधी से लेना चाहते हैं। यह सरासर अनुचित कार्य है। क्रोध के कारण जो दूसरों का दिल दुखाता है, भयंकर घटना घटित हो जाती है, द्वेष का बीजारोपण होता है सो अलग। क्रोध के कारण शारीरिक एवं मानसिक क्षति भी काफी होती है। इस प्रकार पाठक देखेंगे कि क्रोध एक शैतानी कार्य है। इसका त्याग कर देना धर्म का दसवाँ लक्षण माना गया है। 

भगवान मनु के बताये हुए धर्म के उपरोक्त लक्षण मानव-जीवन का एक अच्छा समाज-शास्त्र है। इन्हें पालन करके हम लोग शारीरिक, मानसिक आर्थिक, समाजिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं को ठीक रख सकते हैं। संसार में प्रेम और सहानुभूति का साम्राज्य बढ़ा सकते हैं। यही वह धर्म है जिसकी छाया में मनुष्य मात्र इकट्ठे हो सकते हैं। जाति, देश और रंग का भेद-भाव इसमें नहीं है और वह संकुचित दृष्टिकोण भी इसमें नहीं है जो एक को ईश्वर का प्रिय और दूसरे को अप्रिय बनाता है। मजहबों की मार से जो व्याकुल हो गये हैं, घृणा और द्वेष से भरे हुए उन छोटे दायरों से जो ऊब गये हैं वे मनु भगवान के इस महान् सार्वभौम धर्म की शरण में आकर सच्ची सुख शाँति प्राप्त कर सकते हैं।